अकबर के साथ किसी एक आदमी का नाम जुड़ा है तो वह बीरबल है। उन्हीं के किस्से- कहानी लोक में मशहूर हैं। बीरबल न होता तो अकबर का कोई नामलेवा न होता। लोग तो अकबर से ज्यादा अक्लमंद बीरबल को मानते हैं। पता नहीं ये बीरबल उस जमाने चाय पीता था क्या ? जो हर समय उसे नई –नई तरकीबें सूझती रहती थीं।
भारत एक खोज की तर्ज पर आजकल बीरबल की खोज जारी है। जैसे चुनाव में जीत की गारंटी के लिए बाहुबली की तलाश हर दल के नेताओं को रहती है ,उसी तरह हर नेता अपने साथ एक बीरबल भी रखता है ,जिसका काम नेताजी की छवि को हर तरह से चमकाना होता है। एक तरह से यह बीरबल राजा और प्रजा के बीच सौहार्द और सम्बन्ध कायम करने का विश्वसनीय माध्यम होता है। राजतन्त्र में यह काम अक्सर अक्लमंद ,हंसोड़ विदूषकों के जिम्मे होता था। कई बार जब राजा उनके इशारों को समझ नहीं पाता था तो उन्हें आँखों में अंगुली डालकर समझाना पड़ता था। नबावी दौर में भी यह काम जारी रहा।
अंग्रेजों ने अपने इन वफादार बीरबलों को बड़ी –बड़ी जायदाद और इनाम –इकराम बख्शे थे। रायबहादुर –रायसाहब जैसे ख़िताब इन्हीं जैसों के लिए थे। आजादी की लड़ाई में यह काम कवियों और शायरों ने किया था। इसीलिए गांधीजी इन्हें बड़ी इज्जत देते थे। गुरुदेव और राष्ट्रकवि जैसी उपाधि तक उन्हें हासिल थी।
चाचा नेहरू जरा नजाकत –नफासत पसंद थे। बीरबलों की उन्हें जरूरत नहीं थी लेकिन राष्ट्रवादी एक- दो कवि उन्होंने भी पाल रखे थे। चीन युद्ध में इनका वीररस किसी काम नहीं आया था और देश की गरीब, साधनहीन सेना पिट गयी थी। तब बीरबल की जगह मेनन को बलि का बकरा बनना पड़ा था।
उसके बाद अनेक बीरबल हुए हैं जिनका नाम जनता जानती है ,इसलिए बताने की जरूरत नहीं। उनमें कई तो वीरगति को प्राप्त हो चुके हैं। आजकल की भाषा में चुनाव में जमानत जब्त हो जाना ही वीरगति को प्राप्त होना है। इसीलिए हर झंगा –पतंगा शहीद कहलवाना पसंद करता है। कई तो खुद ही अंगुली में आलपिन चुभाकर शहीद हो जाते हैं।
तो किस्सा –कोताह यह कि देश को नये बीरबल की जरूरत है। जो लोग खुद को इस पद के योग्य समझते हों आवेदन करें। वेतन ,बंगला। ..वगैरह योग्यतानुसार \
नोट-रायपुर महोत्सव में एक बार भाग ले चुके साहित्यकार कृपया दोबारा न आयें
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मूलचन्द्र गौतम,
लेखक प्रख्यात आलोचक हैं।
साहित्यिक पत्रिका “परिवेश” के संपादक हैं।
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