गुरुवार, 1 जनवरी 2015

जो करेगा, सो भरेगा, तू काहे होत उदास

पीके फिल्म
 डा. अरविन्द कुमार सिंह

इस लेख को लिखने के पूर्व, मैं इस बात की उद्घोषणा करना जरूरी समझता हूॅ कि मैने पीके फिल्म देखी है। ऐसा इस लिये की लेख के बीच में आपके जेहन में ऐसा सवाल उठ सकता है। ठीक उस टीवी एंकर की तरह जिसके पास जब कोई सवाल नही बचता तो यही सवाल उसका सबसे किमती सवाल होता है। लेख प्रारम्भ करने के पूर्वएक छोटी घटना -
एक मुहल्ले में एक व्यक्ति ने एक बच्चे को एक फूल देकर कहा – यदि तुम यह फूल उस सामने वाली लडकी को ले जाकर दे दोगे तो मैं तुम्हे सौ रूपये दूॅगा।
इस घटनाक्रम से कुछ सवाल पैदा होते है -

क्या किसी लडकी को फूल देना गलत है?
क्या इस घटनाक्रम में छोटा लडका गलत है?
जिसने फूल भिजवाया क्या वह गलत है?
इन प्रश्नो का उत्तर देते हुये मैं लेख को आगे बढाउगा।

किसी को फूल देना गलत नही है, फूल देने के पीछे छिपी नियत ज्यादा महत्वपूर्ण है।
छोटा लडका गलत नही है। यदि वह फूल देने के पीछे छिपी नियत को यदि नही समझ पा रहा है तो।
जी हाॅ, वह गलत है। उसकी नियत गलत है। यदि उसकी नियत गलत नही थी तो उसने स्वंय क्यो नही फूल खुद उस लडकी को जाकर दिया।
कुछ इसी तरह के सवाल उठ रहे है फिल्म पीके पर। सबसे पहले हम उन प्रश्नो को जान ले जो इस फिल्म के बाबत आज चर्चा के मध्य में है। या दूसरे अर्थो में पहले यह समझ ले कि क्यो विरोध हो रहा है पीके फिल्म का।

धार्मिक अन्धविश्वास या पाखण्ड पर चोट है इस कारण?
अधिकांश हिस्सा हिन्दू धर्म के अन्धविश्वास पर चोट है इस कारण?
ईश्वर के वजूद पर सवाल उठाया गया है इस कारण?
देवी देवताओ का उपहास उडाया गया है इस कारण?
मुस्लीम या ईसाइ धर्म के अन्धविश्वासो को फिल्म में विस्तार न देने के कारण?
फिल्म का उद्देश्य क्या है – मनोरंजन ? समाजसुधार या पैसा कमाना?
एक एक बिन्दुओ की चर्चा करते है बिन्दुवार -

धार्मिक अन्धविश्वास और पाखण्ड पर चोट पहले भी होती रही है और आगे भी होती रहेगी। संत कबीर और राजा राम मोहन राय उन व्यक्तियों के जामात में खडे है जिन्होने अन्धविश्वास और पाखण्ड पर जमकर चोट की। कबीर से बडा समाजसुधारक और हिम्मतवर व्यक्ति खोजना मुश्किल है। हम कबीर के नियत पर शक नही कर सकते । क्योकि कबीर की खुद की जिन्दगी पाखण्ड से कोसो दूर थी। अतः इस आधार पर फिल्म का विरोध कही से उचीत नही है। लेकिन इस बिन्दू पर क्या फिल्म निर्माता या आमिर खुद को पाते है? उनकी खुद की जिन्दगी क्या अन्धविश्वास या पाखण्ड से दूर है? यदि है तो पहला पत्थर उन्हे मारने का हक है। वरना पहला पत्थर वो मारे जो गुनहगार नही।
इस पूरी फिल्म का ज्यादातर फुटेज हिन्दु अन्धविश्वास पर चोट है। क्यो? क्या मुस्लीम अन्धविश्वासपर चोट करने पर फिल्म नही चलती इसका डर था? अगर इसाई धर्म के अन्धविश्वास को फिल्म के केन्द्रिय भाग में रखा जाता तो फिल्म के न चलने का या भारी विरोध की आशंका थी? आने वाले वक्त में क्या निर्माता इसाई या मुस्लीम धर्म के अन्धविश्वासो पर चोट करती फिल्म देश को देगें? और आमिर खाॅन उसमें एक कलाकार के तौर पर काम करेगें? यदि नहीं तो क्यो? इस आधार पर यदि फिल्म का विरोध है तो यह विल्कुल उचीत है। मनोरंजन की विषयवस्तु किसी व्यक्ति की धार्मिक आस्था नहीं हो सकती। आमिर या राजकुमार हिरानी उस छोटे बच्चे की भूमिका में नही है कि जिसे लडकी को फूल देने का अर्थ नही पता है।
इस फिल्म में एक जगह संवाद है – जो डरता है वो ईश्वर की पूजा करता है। आस्था डर नही श्रद्धा की विषयवस्तु है। आमिर 2012 में हज यात्रा पर गये थे। उन्हे स्पष्ट करना चाहिये, यह डर था या श्रद्धा?
फिल्म में शंकर भगवान का एक कलाकार के माध्यम से जो उपहास उडाया गया है। क्या यह भारतीय लोकतंत्र की कमजोरी है? या भारतीय लोकतंत्र की सुविधा? यदि सुविधा है तो फिर इस सुविधा का फायदा मुस्लीम या अन्य धर्मो के लिये क्यो नही?
मुस्लीम या इसाई धर्म के अन्धविश्वासो पर चोट करती हुयी कोई फिल्म निर्माता क्यो नही बनाता? इस विषय पर किसी टीवी चैनल पर बहस क्यों नही? शायद इस लिये नही कि ये धर्म विरोध का माद्दा रखते है? या इन धर्मो में मनोरंजन का तत्व नही? या भारत में ये संगठित है, विरोध करने की क्षमता रखते है? हिन्दु समाज का संगठित न होना क्या उसके उपहास का कारण है? यह जुमला आखिर कबतक रटा जायेगा कि थोडे से उपहास करने से क्या हिन्दू समाज इतना कमजोर है कि वह टूट जायेगा? भारतीय लोकतंत्र की आड में किसी समाज से ऐसे मजाक की छूट क्यो?
कोई भी चीज बिना उद्देश्य की नही होती। आखिर इस फिल्म का उद्देश्य क्या है? मनोरंजन? समाजसुधार या पैसा कमाना? याद रखे किसी की धार्मिक आस्था मनोरंजन की विषयवस्तु नही होती। समाजसुधार, अपनी तिजोरी भरने का माध्यम नही होता? गाॅधी, कबीर या राजा राम मोहन राय ने समाजसुधार के माध्यम से अपनी तिजोरियाॅ नही भरी।
कितना हास्यास्पद है फिल्म निर्माता राजकुमार हिरानी कहते है हमने गाॅधी और कबीर के सिद्धांतो पर फिल्म बनायी है। क्या सिर्फ पैसा कमाने के लिये? यदि ऐसा है तो एक कलाकार का सच से यह एक अवैध गठबन्धन है। राग नम्बर है फिल्म के डायलाग के अनुसार। यदि पैसा कमाना इस फिल्म का उद्देश्य है तो यह गिरावट की निम्न सीमा है, जहाॅ अब कोई विषय पैसा कमाने के लिये नही मिल रहा है। चूकि राजकुमार हिरानी जी ने कबीर को याद किया है अतः कबीर के माध्यम से इस लेख का समापन करना चाहूॅगा -

कहते है कबीर बहुत परेशान रहा करते थे। कारण उनके घर के पास एक कसाई रहा करता था। कबीर जब भी शाम को घर वापस आते थे कसाई को देखकर उन्हे बहुत दुख होता था। वे सोचते थे, मैं दिन भर अच्छी बाते करता हूॅ और यह दिन भर बकरा काटता है। कहते है एक दिन कबीर को इलहाम हुआ। इलहाम का अर्थ, जिन प्रश्नो का उत्तर हम अपने बौद्धिक क्षमता से प्राप्त नही कर पाते है, उनका उत्तर हमे उस चेतन सत्ता से प्राप्त होता है। इसे हम इलहाम की संज्ञा देते है। कबीर ने उस इलहाम को शब्दो में व्यक्त किया।

कबीरा तेरी झोपडी, गलकटियन के पास । हे कबीर तेरी झोपडी गला काटने वाले के पास है। तू , न तो यह वातावरण बदल सकता और न ही यह परिस्थिति। अतः यह याद रख -

कबीरा तेेरी झोपडी, गलकटियन के पास ।
जो करेगा, सो भरेगा, तू काहे होत उदास।।

और याद रख, यदि तू गलत करेगा तो तू भी भरेगा। ईश्वरिय सत्ता की अनुभूति, स्व अनुभूति की बात है। सारी जिन्दगी दूसरो को ढूढने वाला यदि नही ढूढ पाता है तो सिर्फ अपने आप को। जिस दिन अपने को ढूढ लेगा उस दिन किसी और की आवश्यकता नही।

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