बुधवार, 14 मई 2014

स़िर्फ आरोपों से कोई कमजोर नहीं होता

मनमोहन सिंह ने परमाणु समझौते को लेकर जॉर्ज बुश को जब मना लिया, तो सभी लोग आश्‍चर्यचकित हो गए थे. उन्होंने अच्छे निर्णयों से पार्टी को 2009 के चुनाव में ज़्यादा अच्छी स्थिति में पहुंचने में मदद की, लेकिन गठबंधन इसके बाद दिक्कत में आ गया. कांग्रेस पार्टी के लोग यह देख नहीं सके कि आख़िर मनमोहन सिंह को दोबारा प्रधानमंत्री क्यों बनाया गया? ऐसा नहीं माना जा रहा था कि उन्हें जीत का श्रेय दिया जाएगा. इस बार ताकत धीरे-धीरे प्रधानमंत्री के हाथों से निकल गई. वहीं 2011 के मध्य में सोनिया गांधी की तबियत खराब हो गई और यूपीए-2 अपने रास्ते से भटक गया. आख़िर किस तरह के प्रधानमंत्री साबित होंगे राहुल गांधी? इससे पहले वह सत्तासीन होने को लेकर नकारात्मक भाव ही जताते रहे हैं. वह सत्ता को जहर का प्याला बताते रहे हैं. इसके अलावा यूपीए-1 और 2 के दौरान जो कुछ भी हुआ, उससे भी उन्होंने खुद को अलग कर लिया और बाहरी आलोचक की तरह सारी घटनाओं की आलोचना करते रहे. एक बात जो देखने वाली है कि इस चुनाव में अगर कुछ आश्‍चर्यजनक हो जाए और कांग्रेस अगली सरकार बनाने की अवस्था में आ जाए, तो क्या राहुल गांधी एक निर्णायक प्रधानमंत्री साबित होंगे? प्रधानमंत्री की गरिमा को चोट पहुंचाई जा रही है. न स़िर्फ वर्तमान प्रधानमंत्री के बारे में, जो हाल में प्रकाशित दो किताबों के केंद्र बिंदु रहे, बल्कि इससे पहले के प्रधानमंत्री के बारे में भी. हाल के समय में एकदम से अटल बिहारी वाजपेयी को सबसे कमजोर प्रधानमंत्री बताया जाने लगा है. यह वही अटल बिहारी हैं, जो कांग्रेस के सबसे प्रिय ग़ैर कांग्रेसी नेता थे. लेकिन, आख़िर किन अर्थों में वह सबसे कमजोर प्रधानमंत्री थे? क्या उन्हें कांग्रेस के मजबूत प्रधानमंत्री के मानदंड पर खरा उतरने के लिए परमाणु बम का न स़िर्फ परीक्षण करना चाहिए था, वरन् उसे किसी देश पर चला भी देना चाहिए था? या वह इस बात के लिए कमजोर थे कि उन्होंने लाहौर बस की शुरुआत की? भारत के पास नीति वाक्य के तौर पर भले ही सत्यमेव जयते हो, लेकिन देश की राजनीति के मामले में सच्चाई बयान कर दी जाए, तो कई लोगों को झटके का सामना करना पड़ सकता है. बिना किसी दबाव के दूसरों की आत्मकथाएं लिखना, व्यक्तिगत संबंधों का खुलासा करना जैसी हरकतें पश्‍चिमी पत्रकार करते रहे हैं और उसका निशाना वहां के नेता बनते भी रहे हैं. ऐसी आत्मकथाएं लिखना और व्यक्तिगत जीवन को उजागर करना पश्‍चिमी पत्रकारों का काम रहा है, यह हमारे लिए नहीं है. जॉन एफ कैनेडी के प्रेम संबंधों, उनकी स्वास्थ्य समस्याओं और माफियाओं के साथ उनके रिश्तों को कभी भारतीय पत्रकारों द्वारा नहीं उजागर किया गया. हम अपने नेताओं को पवित्र देखना चाहते हैं, किसी भी तरह के प्रलोभन से रहित. एक अन्य बात यह है कि सरकार किस तरह चलाई जाती है, इसके बारे में कोई भी जानकारी न दी जाए. विशेषत: जब मामला एक विशेष परिवार से जुड़ा हो. यह जानना बहुत ही कठिन है कि नीतियां किस तरह बनाई जाती हैं. यह जानना भी बहुत कठिन होगा कि आख़िर दो जगहों से चलने वाला निर्णय तंत्र कैसे काम करता है? इस बात को थोड़ी आसानी से यूं समझा जा सकता है कि सोनिया गांधी पार्टी की अध्यक्ष थीं और मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री, ये सत्ता के दो धु्रव थे. इस बात में कोई संदेह नहीं है कि मनमोहन सिंह वही बने, जो उन्हें सोनिया ने बनाया. यहां यह बात भी महत्वपूर्ण है कि कांग्रेस ने 1989 में गठबंधन की सरकार बनाने से मना कर दिया था, लेकिन जब 2004 में ऐसी सरकार बनाने की बात आई, तो सोनिया गांधी पूरी तरह से तैयार थीं. मैं अब भी मानता हूं कि उन्होंने प्रधानमंत्री न बनकर एक बड़ी गलती की थी. उनके पास पार्टी के अन्य नेताओं से ज़्यादा राजनीतिक समझ है. सत्ता को दो भागों में बांटने का निर्णय भी बेहतरीन था. इस दौरान गठबंधन को बनाए रखने और अच्छी तरह से चलाए जाने का भी बड़ा महत्व था, क्योंकि कांग्रेस को इससे पहले गठबंधन सरकार चलाने का कोई अनुभव नहीं था. यहां पर भी ताकत के दो ध्रुव हो गए थे, पहला कैबिनेट और दूसरा गठबंधन के नेताओं की जमात. पहले के पास सत्ता के अधिकार संवैधानिक रूप से थे, लेकिन दूसरा ज़्यादा ताकतवर था. सोनिया गांधी गठबंधन के चेयरमैन के रूप में दूसरी पार्टी के नेताओं के साथ महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्ति और हटाने के ़फैसले लेती थीं. मनमोहन सिंह का ए राजा पर कोई नियंत्रण नहीं था. ए राजा को मंत्री पद दिया जाना सोनिया गांधी और करुणानिधि के बीच हुई बातचीत में तय हुआ था. इस बात से कोई इंकार नहीं है कि यह सब प्रधानमंत्री कार्यालय के बाहर तय होता था. यह सच्चाई है कि भारतीय राजनीति में अब किसी भी प्रधानमंत्री के पास, चाहे वह मोदी भी क्यों न हों, जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा जैसे अधिकार नहीं हैं, क्योंकि उन्हें गठबंधन की सरकार चलानी है. इसके विपरीत अगर अटल बिहारी वाजपेयी के कार्य करने के तरीके काफी हद तक अमेरिकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन से मिलते-जुलते थे. वह खुद को बड़े रणनीतिक निर्णयों तक सीमित रखते थे और बाकी निर्णय अपने स्टाफ एवं साथियों के लिए छोड़ देते थे. वह अच्छा नेतृत्व कर सके, क्योंकि वह एक करिश्माई व्यक्तित्व के मालिक थे. वहीं मनमोहन सिंह यह जानते थे कि वह मुख्य कार्यकारी हैं और सोनिया गांधी चेयरमैन. यूपीए-1 की सरकार में गठबंधन अच्छी तरह चला, क्योंकि सारी बातें स्पष्ट थीं, पार्टियों की हदें तय थीं और कांग्रेस के सदस्य शक्ति पाकर खुश थे. वे जानते थे कि मनमोहन सिंह एक नियुक्त प्रधानमंत्री हैं. मनमोहन सिंह ने परमाणु समझौते को लेकर जॉर्ज बुश को जब मना लिया, तो सभी लोग आश्‍चर्यचकित हो गए थे. उन्होंने अच्छे निर्णयों से पार्टी को 2009 के चुनाव में ज़्यादा अच्छी स्थिति में पहुंचने में मदद की, लेकिन गठबंधन इसके बाद दिक्कत में आ गया. कांग्रेस पार्टी के लोग यह देख नहीं सके कि आख़िर मनमोहन सिंह को दोबारा प्रधानमंत्री क्यों बनाया गया? ऐसा नहीं माना जा रहा था कि उन्हें जीत का श्रेय दिया जाएगा. इस बार ताकत धीरे-धीरे प्रधानमंत्री के हाथों से निकल गई. वहीं 2011 के मध्य में सोनिया गांधी की तबियत खराब हो गई और यूपीए-2 अपने रास्ते से भटक गया. सोचने वाली बात यह है कि अगर राहुल गांधी प्रधानमंत्री बन जाते हैं, तो क्या होगा? सीधा जवाब है कि सत्ता परिवार में ही रहेगी और अगर वह केजरीवाल की तरह इस्तीफा भी दे देंगे, तो भी प्रियंका मौजूद हैं ही. - See more at: http://www.chauthiduniya.com/2014/05/sirf-aaropon-se-koi-kamjor-nahin-hota.html#sthash.srB96Dbe.dpuf

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