गुरुवार, 22 मई 2014

गंगा-एक कारपोरेट एजेंडा

बिस्मिल्लाह खां ने कहा – ’’गंगा और संगीत एक-दूसरे के पूरक हैं।’’ है कोई, जो गंगा का संगीत लौटा दे ? है कोई, जो गंगोत्री ग्लेशियर का खो गया गौमुखा स्वरूप वापस ले आये ? गंगा के मायके में उसका अल्हङपन, मैदान में उसका यौवन और ससुराल में उसकी गरिमा देखना कौन नहीं चाहता ? कौन नहीं चाहता कि मृत्यु पूर्व दो बूंद की आकांक्षा वाला प्रवाह लौट आये ? गंगा फिर से सुरसरि बन जाये ?? मैं उस देश का वासी हूंजिस देश में गंगा बहती है – इस गीत को गाने का गौरव भला कौन हिंदोस्तानी नहीं चाहेगा लेकिन यह हो नहीं सकता। जिस तरह बिस्मिल्लाह की शहनाई लौटाने की गारंटी कोई नहीं दे सकता, उसी तरह गंगा की अविरलता और निर्मलता की गारंटी देना भी अब किसी सरकार के वश की बात नहीं है। इसलिए नहीं कि यह नामुमकिन है; इसलिए कि अब पानी एक ग्लोबल सर्विस इंडस्ट्री है और भारतीय जलनीति कहती है – वाटर इज कमोडिटी। जल वस्तु हैतो फिर गंगा मां कैसे हो सकती है ? गंगा रही होगी कभी स्वर्ग में ले जाने वाली धारा, साझी संस्कृति, अस्मिता और समृद्धि की प्रतीक, भारतीय पानी-पर्यावरण की नियंता, मां, वगैरह, वगैरह। ये शब्द अब पुराने पङ चुके। गंगा, अब सिर्फ बिजली पैदा करने और पानी सेवा उद्योग का कच्चा माल है। मैला ढोने वाली मालगाङी है। कॉमन कमोडिटी मात्र !! जो दुनिया चलाते हैंउन्हे पानी से ज्यादा पानी की सेवा देने में रूचि है। पानी की सेवा में सबसे बङी मेवा है। सेवा दो, मेवा कमाओ।… इसी कमाई के बूते तो वे दुनिया की प्रथम सौ कंपनियों में स्थान रखती हैं। आर डब्लयू ई ग्रुप, स्वेज, विवन्डी, एनरॉन आदि आदि। विवन्डी- विश्व में पानी की सबसे बङी सेवादाता है। स्वेज 120 देशों की सेवा करती है; तो भला भारत को कैसे छोङ दें ? लेकिन जब तक भारत में गंगा जैसा सर्वश्रेष्ठ प्रवाह घटेगा नहीं,… गुणवत्ता मरेगी नहीं, तब तक आप शुद्ध पानी की सेवा के लिए किसी को क्यों आमंत्रित करेंगे ? सेवा लेने के लिए पैसा न हो, तो कर्ज देने के लिए वे हैं न – विश्व बैंक, यूरोपियन कमीशन और एडीबी। शर्तों में बांधने डब्लयू टी ओ और गैट्स। उनका अनुमान नहीं, बिजनेस टारगेट है कि 2015 तक दुनिया जल और उसकी स्वच्छता के लिए 180 बिलियन डॉलर खर्च करे। 2025 तक हर तीन में से दो आदमी स्वच्छ जल की कमी महसूस करे। 2050 तक दुनिया की 70 प्रतिशत आबादी पानी का संकट झेले। यह तभी होगा, जब भूजल गिरे। इसके लिए गांवों को कस्बा, कस्बों को शहर और शहरों को महानगर बनाओ। बंद पाइप और बंद बोतल पानी की खपत बढ़ाओ। सिर्फ जलसंचयन! जलसंचयन!! चिल्लाओ। करो मत। जरूरत पङे, तो ट्यूबवैल, बोरवैल और समर्सिबल से धकाधक पानी खींचते जाओ। फिर पानी की कमी होने लगे तो जलनियंत्रक प्राधिकरण बनाओ। हमें बुलाओ। पी पी पी चलाओ। बूट अपनाओ। पानी की कीमतें बढ़ाओ। याद रखो! पानी खींचने वाली कोक, पेप्सी और विहस्की पीने के लिए है और पानी लङने और मरने के लिए। एक दिन भूजल खाली हो ही जायेगा और आप लङने भी लगोगे। शाबाश! 1990 के 23 लाख की तुलना में आज भारत में 63 लाख कस्बे हैं। भारत में आपके 70 प्रतिशत भूजल भंडार खाली हो चुके हैं और आप पानी के लिए लङने भी लगे हो और पानी की बीमारियों से बीमार होकर मरने भी। स्वच्छ पानी के बाजार का जो लक्ष्य हमने 2015 के लिए रखा था, आपने तो उसे 2012 में ही हासिल करा दिया। वैल डन इंडिया! अब भारत की नदियों को मरना चाहिए। नदियां मरेंगी, तभी धरती सूखेगी, तभी खेती मरेगी। लोग मलीन बस्तियों को पलायन करेंगे। खाद्य सुरक्षा घटेगी। कीमते बढ़ेंगी। खाद्य सुरक्षा कानून बनाना पङ़ेगा। खाद्य आयात बढ़ेगा। जी डी पी का ढोल फूटेगा। साथ ही तुम्हारा भी। तुम हमें सिक्योरिटी मनी दे देना। हम तुम्हे फूड, वाटर… जो जो कहोगे, सब की सिक्योरिटी दे देंगे। इसके लिए नदी जोङ करो। नदियों से जलापूर्ति बढ़ाओ। बिजली बनाने के नाम पर पानी रोको। नदियों के किनारे एक्सप्रेसवे बनाओ। इंडस्ट्रीज को पानी की कमी का आंकङा दिखाओ। नदियों में अधिक पानी का फर्जी आंकङा दिखाकर उनके किनारे- किनारे इंडस्ट्रियल कॉरीडोर बनाओ। टाउनशिप बनाओ। उनका कचरा नदियों में बहाओ। ’दो बूंद जिंदगी की’ से आगे बढ़कर यूनीसेफ, विश्व स्वास्थ्य संगठन की राय को और बङा बाजार दिलाओे। एक दिन तुम असल में अपाहिज हो जाओगे। आबादी खुद ब खुद घट जायेगी। न गरीब रहेगा, न गरीबी। तुम भी हमारी तरह विकसित कहलाओगे। आज भारत में यही सब हो रहा है। यदि इसके पीछे कोई इशारा न होता, तो क्या गांव धंसते रहते, धारायें सूखती रहती, विस्फोटों से पहाङ हिलते रहते, जीवों का पर्यावास छिनता रहता और सरकारें पनबिजली परियोजनाओं को मंजूरी देती रहती ? भूकंप में विनाश का आकलन की बिना पर इंदिराजी द्वारा रोके जाने और सरकारी समिति द्वारा रदद् कर दिए जाने के बावजूद टिहरी परियोजना को आखिर मंजूरी क्यों दे दी गई?’’अलकनंदा और भागीरथी में प्रस्तावित यदि 53 बिजली परियोजनायें बन गई, तो दोनो नदियां सूख जायेंगी।’’ – कैग की इस चेतावनी के बावजूद क्या हम परियोजनायें रोक रहे हैं ? तय मानक टरबाइन में नदी का 75 प्रतिशत पानी डालने की इजाजत देते हैं। उत्तराखण्ड की ऊर्जा नीति 90 प्रतिशत की इजाजत देती है। इस पर कैग की आपत्ति के बावजूद क्या ऊर्जा नीति बदली ? परियोजनाओं का नदी का हमे कर्ज देने वाले संगठनों के सदस्य देश अपने यहां बङे और मंझोले बांधों को तोङ रहे है और हमे बनाने के लिए कर्ज दे रहे हैं। क्यों ? हमे मालूम है कि मलशोधन का वर्तमान तंत्र फेल है। फिर भी हमें उसी में पैसा क्यों लगा रहे हैं ? मालूम है कि उद्योग नदियों में जहर बहा रहे हैं। फिर भी उन्हे नदियों से दूर भगाते क्यों नहीं ? प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों प्रदूषण नियंत्रित करने की बजाय सिर्फ ’’प्रदूषण नियंत्रण में है’’ का प्रमाणपत्र ही क्यों बांट रहा है ? नदियों को तटबंधों में बांधने की भूल कोसी-दामोदर में हम झेल रहे हैं। फिर भी एक्सप्रेसवे नामक तटबंध क्यों बना रहे है ? दिल्ली-मुंबई कॉरीडोर में आने वाली नदियों में अधिक पानी का गलत आकलन आगे बढ़ा रहे हैं। क्यों ? हमें मालूम है कि राज्यों पर जवाबदेही टालने की बजाय केंद्र को एक जिम्मेदार भूमिका निभानी होगी। गंगा की अविरलता-निर्मलता विश्व बैंक के धन से नहीं, जन – जन की धुन से आयेगी।.. गंगा संरक्षण की नीति -कानून बनाने तथा उन्हें अमली जामा पहनाने से आयेगी। जानते हुए भी क्यों हमारी सरकारें ऐसा नहीं कर रही। ऐसा न करने को लेकर अब तक राज्य व केंद्र की सरकारों में गजब की सहमति रही है। क्यों ? इन सभी क्यों का जवाब एक ही है – क्योंकि गंगा में गंग नहर और शारदा सहायक के रास्ते विश्व बैंक का निवेश है। एक्सप्रेस वे की परिकल्पना में उसका भी हाथ है। सोनिया विहार संयंत्र के माध्यम से दिल्ली वालों के पानी के बिल का पैसा स्वेज को कमाई करा रहा है। पनबिजली परियोजनाओं में जांघिया बनियान बनाने से लेकर साइकिल बनाने वालों तक का पैसा लगा है।… क्योंकि गंगाअब राजनैतिक नहींएक कारपोरेट एजेंडा है। क्या नई सरकार इस एजेंडे को उलटने का साहस दिखायेगी ?


About The Author

अरुण तिवारी, लेखक प्रकृति एवम् लोकतांत्रिक मसलों से संबद्ध वरिष्ठ पत्रकार एवम् सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें