शुक्रवार, 27 जून 2014

सामाजिक शुद्दिकरण और मुनाफाकरण का नायाब मोदी मॉडल


सरकार के गलियारे में प्रधानमंत्री मोदी की तूती पहली बार इंदिरा गांधी के दौर से ही ज्यादा डर के साथ गूंज रही है। हर मंत्री के निजी स्टाफ से लेकर फाइल उठाने वाले तक की नियुक्ति पर अगर पीएमओ की नजर है या फिर हर नियुक्ती से पहले प्रधानमंत्री का कलीरियेंस चाहिये तो संकेत साफ है। इंदिरा गांधी के दौर में काउंसिल आफ मिनिस्टर से ताकतवर किचन कैबिनेट थी। किचन कैबिनेट पर पीएमओ हावी था। और पीएमओ के भीतर सिर्फ इंदिरा गांधी। लेकिन मोदी के दौर में किचन कैबिनेट भी गायब हो चुका है। यानी प्रधानमंत्री मोदी के दौर में कोई शॉक ऑब्जरवर नहीं है। पहली बार केन्द्र में सामाजिक-सांस्कृतिक शॉक ट्रीटमेंट के साथ जनादेश को राजनीतिक अंजाम देने की दिशा में प्रधानमंत्री मोदी बढ़ चुके हैं। यह शॉक ट्रीटमेंट क्यों हर किसी को बर्दाश्त है कभी बीजेपी के महारथी रहे नेताओं का कद भी अदना सा क्यों हो चला है इसे समझने से पहले जाट राजा यानी चौधरी चरण सिंह का एक किस्सा सुन लीजिये। सत्तर के दशक में चौधरी चरण सिंह की दूसरी बार सरकार बनी। मंत्रियों को शपथ दिलायी गयी। शपथ लेकर एक मंत्री मुंशीलाल चमार अपने विधानसभा क्षेत्र करहल पहुंचे। चाहने वालो ने पूछा , मुंशीलाल जी कौन सा पोर्टफोलियो मिला है। सादगी जी भरे मुंशीलालजी बोले चौधरी जी ने हाथ में कुछ दिया तो नहीं। तब लोगों ने कहा मंत्री की शपथ लिये है तो कौन सा विभाग मिला है। मुंशीलाल ने कहा यह तो पता नहीं लेकिन चौधरी जी से पूछ लेते हैं। सभी लोगो के बीच ही लखनऊ फोन लगाया और कहा, चौधरी जी गांव लौटे है तो लोग पूछ रहे है कौन सा विभाग हमें मिला है। उधर से चौधरी जी कि आवाज फोन पर थी। कडकती आवाज हर बैठे शख्स को सुनायी दे रही थी। लेकिन बड़े प्यार से चौधरी चरण सिंह ने पूछा, मुंशीजी लाल बत्ती मिल गयी। जी । बंगला मिल गया है । जी । तो फिर विभाग कोई भी हो काम तो हमें ही करना है। आप निश्चित रहे। जी । और फोन तो रख दिया गया। लेकिन मुंशीलाल चमार के उस बैठकी में उस वक्त मौजूद भारत सरकार के सूचना-प्रसारण मंत्रालय से डेढ दशक पहले रिटायर हुये व्यक्ति ने यह किस्सा सुनाते हुये जब मुझसे पूछा कि क्या सारा काम प्रधानमंत्री मोदी ही करने वाले हैं तो मुझे कहना पड़ा कि तब मुंशीलाल चमार ने फोन तो कर लिया था।

लेकिन इस वक्त तो कोई फोन करने की हिम्मत भी नहीं कर सकता। बुजुर्ग शख्स जोर से ठहाका लगाकर हंसे जरुर। और बोले तब तो मोदी जी को संघ परिवार चन्द्रभानु गुप्ता की तरह देखती होगी। क्यों। क्योंकि चन्द्रभानु गुप्ता ने राजनीति कांग्रेस की की। १९२९ में लखनऊ शहर के कांग्रेस अध्यक्ष बने।  काकोरी डकैती के नायकों को कानूनी मदद की । लेकिन नेहरु के काम करने का खुला विरोध किया । चमचा राजनीति का खुला विरोध किया । और १९६७ में जब गैर कांग्रेसी सरकार बनी तो चन्द्रभानु गुप्ता सीएम बने । जनसंघ ही नहीं आरएसएस को भी सीबी गुप्ता बहुत भाये क्योंकि वह अकेले थे । परिवार था नहीं। तो भ्रष्ट हो नहीं सकते हैं। और सच यही है कि सीबी गुप्ता का खर्च कुछ भी नहीं था। सरकारी खादी दुकान से धोती खरीदकर उसे पजामे बदलवाते। बाकी जीवन यायवरी में चलता। तो क्या नरेन्द्र मोदी को आप ऐसे ही देख रहे हैं। देख नही रहा, लग रहा है। क्योंकि अपने ही मंत्रियो को संपत्ति। परिजनो से दूर रहने की सलाह। जो संभव नहीं है। क्यों। क्योंकि समाज लोभी है और युवा पीढी नागरिक नहीं उपभोक्ता बनने को तैयार है। और दोनो एक साथ चल नहीं सकता। या तो गैर शादी शुदा या प्रचारको की जमात से ही सरकार चलाये य़ा फिर समाज ऐसा बनाये जिसमें नैतिक बल इमानदारी को लेकर हो। सादगी को लेकर हो। चलो देखते है, कहने के बाद बुजुर्ग पूर्व अधिकारी तो चले गये, लेकिन उस तार को छोड गये जिसे प्रधानमंत्री मोदी पकडेंगे कैसे और नहीं पकडेंगे तो मनमोहन सरकार की गड्डे वाली नीतियों से उबकाई जनता का जनादेश कबतक नरेन्द्र मोदी के साथ खड़ा रहेगा। असल इम्तिहान इसी का है। क्योंकि मनमोहन सरकार के दौर में जिन योजनाओं पर काम शुरु हुआ। लेकिन सत्ता के दो पावर सेंटर , सत्ता के राजनीतिक गलियारों के दलालों और खामोश नौकरशाही की वजह से पूरे नहीं हो पाये उसे ही पहली खेप में मोदी पूरा कराना चाहते हैं। इसीलिये सचिवों से रिपोर्ट बटोरी। और अंजाम में पहले कालेधन पर एसआईटी, फिर फ्राइट कारीडोर, आईआईटी , आईआईएम, दागी सांसदों पर नकेल जैसे मुद्दो को ही सामने रख दिया । लेकिन अब दो सवाल हर जहन में है । पहला जिन्हें मंत्री बनाया गया  प्रधानमंत्री मोदी उन्हें कर्मठता सीखा रहे है या फिर मंत्री पद का तमगा लगाकर देकर किसी कलर्क की तरह काम करने की सीख दे रहे है। और दूसरा सत्ता के राजनीतिक तौर तरीको को बदलकर नरेन्द्र मोदी लुटियन्स की दिल्ली
की उस आबो-हवा को बदलने में लगे है जिसने बीते बारह बारस उन्हे कटघरे में खड़ा कर रखा था। या फिर तीसरी परिस्थिति हो सकती है कि जनादेश से जिम्मेदारी का एहसास इस दौर में बड़ा हो चला हो जिसे पूरा करने के लिये सबकुछ अपने कंधे पर उठाना मजबूरी हो। पहली दो परिस्थितियों तो पीएम के कामकाज से जुड़ी हैं लेकिन जनादेश की जिम्मेदारी का भाव देश की उस जनता से जुडा है जिसमें एक तरफ राष्ट्रीयता का भाव जो संघ परिवार की सोच के नजदीक है और बुजुर्ग पीढ़ी में हिलोरे भी मारता है कि चीन के विस्तार को कौन रोकेगा। पाकिस्तान को पाठ कौन पढायेगा। भारत अपनी ताकत का एहसास सामरिक तौर पर कब करायेगा। तो दूसरी तरफ युवा भारत की समझ । उसके लिये ऱाष्ट्रीयता का शब्द उपबोक्ता बनकर देश की चौकाचौंध का लुत्फ उठाना कहीं ज्यादा जरुरी है बनिस्पत नागरिक बनकर संघर्ष और कठिनायी के हालातों से रुबरु होना। जिस युवा पीढी ने नरेन्द्र मोदी को कंधे पर बैठाया उसके सपनों की उम्र इतनी ज्यादा नहीं है कि वह मोदी सरकार के दो बजट तक भी इंतजार करें। फिर चुनाव के वक्त की मोदी ब्रिग्रेड के पांव इस वक्त आसमान पर है। जिस रवानगी के साथ उसने सड़क से लेकर सोशल मीडिया को मोदीमय बना दिया और शालीनों को डरा दिया उसके एहसास उसे अब कुछ करने देने की ताकत दे चुके है। उसे थामना भी है और दो करोड़ के करीब रजिस्ट्रड बेरोजगारों के रोजगार के सपनो को पूरा भी करना है। लेकिन जिस आदर्श रास्ते को
प्रधानमंत्री मोदी ने पकड़ा है उसमें गांव, पंचायत, जिला या राज्य स्तर पर राजनीतिक पदों को बांटना भी मुश्किल है क्योंकि संघ परिवार खुद के विस्तार के लिये जमीनी स्तर पर राजनीतिक काम कर रहा है । और पहली बार राजनीतिक सक्रियता चुनाव में जीत के बाद कही तेजी से दिखायी देने लगी है । यानी अयोध्या कांड के बाद वाजपेयी सरकार बनने के बाद जिस संघ परिवार ने वाजपेयी सरकार की नीतियों की तारफ ताकना शुरु किया था वही इस बार सरकार को ताकने की जगह खुद को सक्रिय रखकर सरकार पर लगातार दबाब बनाने की समझ है ।

यानी सरकार पर ही संघ परिवार का दबाब काम कर रहा है,जो कई मायने में मोदी के लिये लाभदायक भी साबित हो रहा है। क्योंकि कांग्रेसी मनरेगा को मोदी के मनरेगा में कैसे बदला जाये इसके लिये गांव गांव की रिपोर्ट स्वयंसेवक से बेहतर कोई दे नहीं सकता। तो मनरेगा को मशीन से जोड़कर गांव की सीमारेखा को मिटाने की नीति पर काम शुरु हो गया है। मनमोहन सरकार के दौर में शिक्षा को बाजार से जोडकर जिस तरह शैक्षणिक बंटाधार किया गया उसे कोई मंत्री या कोई नौकरशाह कैसे और कितना समझ कर किस तेजी से बदल पायेगा इसके लिये संघ परिवार के शिक्षा बचाओ आंदोलन चलाने वाले दीनानाथ बतरा से ज्यादा कौन समझ सकता है, जो देश भर में आरएसएस के विधा भारती स्कूलों को चला रहे हैं। इसी तर्ज पर ग्रामीण भारत के लिये नीतियों को बनाने का इंतजार आदिवासी कल्याण मंत्री या नौकरशाहों के आसरे हो नहीं सकता । जबकि तमाम आंकडो से लेकर हालातों को तेजी से बताने के लिये आरएसएस का वनवासी कल्याण
आश्रम सक्षम हैं। क्योंकि देश के छह सौ जिले में से सवा तीन सौ जिलों में आदिवासी कल्याण आश्रम स्वास्थय , शिक्षा,आदिवासी खेल, संस्कृति पर १९५२ से काम कर रहा है। तो पहली बार संघ का नजरिया आदिवासी बहुल इलाकों में ही ग्रामीण भारत में भी नजर आयेगा। अधिकतर मंत्रालयों के कामकाज को लेकर अब यह बहस बहुत छुपी हुई नहीं है कि मंत्री और नौकरशाह के जरीये प्रधानमंत्री को क्या काम कराना है और संघ परिवार कैसे हर काम को अंजाम में कितनी शिरकत करेगा। असल सवाल यह है कि भारत को देखने का नजरिया युवा ,शहरी और उपभोक्ता समाज के नजरिये से होगा या ग्रामीण और पारंपरिक सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों को सहेजते हुये आर्थिक स्वावलंबन के नजरिये से । क्योंकि दोनो रास्ते दो अलग अलग मॉडल हैं। जैसे उमा भारती चाहती हैं गंगा को स्वच्छ करने के लिये आंदोलन हों और मेधा पाटकर चाहती हैं कि नर्मदा बांध की उंचाई रोकने के लिये आंदोलन हो। सरकार चाहती है नदिया बची भी रहें और नदियों को दोहन भी करे। दोनो हालात विकास के किसी एक मॉडल का हिस्सा हो नहीं सकते। जैसे गंगा पर बांध भी बने और गंगा अविरल भी बहे। यह संभव नहीं है । जैसे शिक्षा सामाजिक मूल्यों की भी हो और युवा पीढी विकास की चकाचौंध में उपभोक्ता भी बने रहें। जैसे समाज लोभी भी रहे और पद मिलते ही लोभ छोड़ भी दें। तो फिर प्रधानमंत्री मोदी किस नाव पर सवार हैं। या फिर दो नाव पर सवार हैं। एक नाव संघ परिवार के सामाजिक शुद्दिकरण की है और दूसरी गुजारात मॉडल के मुनाफाकरण की। वैसे यह खेल प्रिंसिपल सेक्रेटरी के सामानांतर एडिशनल प्रिंसिपल सेक्रेटरी की नियुक्ती से भी समझा जा सकता है । और कद्दावरों को मंत्री बनाकर क्लर्की करवाने से भी। क्योंकि इस दौर की रवायत यही है।

पुण्य प्रसून बाजपेयी

सत्ता की रेवड़ियाँ बाँटने के नियम क्यों नहीं बनते?

प्रमोद जोशी

 शुक्रवार, 20 जून, 2014 को 16:20 IST तक के समाचार
भारत का सर्वोच्च न्यायालय
सुषमा स्वराज
हंसराज भारद्वाज, मोदी
भारत की संसद
बीएल जोशी
नरेंद्र मोदी
नरेंद्र मोदी की सरकार ने अपने मंत्रियों को निर्देश दिया है कि वे अपने साथ ऐसे मंत्रालयी कर्मचारियों को ‘किसी भी रूप में’ न रखें जो यूपीए सरकार के मंत्रियों के साथ काम कर चुके हैं. यह निर्देश अपने ढंग का अनोखा है और नौकरशाही के राजनीतिकरण को रेखांकित करता है.
नई सरकार बनने के साथ नियुक्तियां और इस्तीफे चर्चा का विषय बन रहे हैं.
शुरुआत प्रधानमंत्री के प्रमुख सचिव नृपेंद्र मिश्र की नियुक्ति से हुई थी, जिसके लिए सरकार ने एनडीए सरकार के बनाए एक नियम को बदलने के लिए अध्यादेश का सहारा लिया था.
राज्यपालों, अटॉर्नी और एडवोकेट जनरलों, महिला आयोग और अनुसूचित जाति, जनजाति आयोग या योजना आयोग के अध्यक्षों तक मामला समझ में आता है.
हम मानकर चल रहे हैं कि ऐसे पदों पर नियुक्तियाँ राजनीतिक आधार पर होती हैं लेकिन इस निर्देश का मतलब क्या है? क्या यह नौकरशाही की राजनीतिक प्रतिबद्धता का संकेत नहीं है?
नियुक्तियों का दौर शुरू हुआ है तो अभी यह चलेगा. मंत्रिमंडल में बड़ा बदलाव होगा. फिर दूसरे पदों पर. यह क्रम नीचे तक जाएगा. ऊँचा अधिकारी नीचे की नियुक्तियाँ करेगा. पर कुछ सवाल खड़े होंगे, जैसे इस बार राज्यपालों के मामले पर हो रहे हैं.

इनाम-इकराम का चलन

सत्ता परिवर्तन के साथ विजेता दल का अपने समर्थकों को उपकृत करना अब दुनिया भर की मान्य परंपरा है लेकिन भारत में यह बड़े अटपटे ढंग से विकसित हो रही है. इस बार भी सरकार के शपथ लेते ही नियुक्तियाँ शुरू हो गईं.
प्रधानमंत्री के निर्देश पर भाजपा की एक महिला सांसद को अपने पिता को अपने चुनाव क्षेत्र में अपना प्रतिनिधि नियुक्त करने का फ़ैसला वापस लेना पड़ा.
वह फ़ैसला तो वापस हो गया लेकिन राजदूतों, राज्यपालों, आयोगों, निगमों, परिषदों, समितियों और अकादमियों के अध्यक्ष, सहकारी और ग्रामीण बैंकों के चेयरमैन वगैरह के राजनीतिक दरवाज़े से भीतर आने का चलन ख़त्म होने वाला नहीं है. चूंकि 
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नियुक्ति राजनीतिक रास्ते से होती है, इसलिए सत्ता परिवर्तन के समय थोक के भाव इस्तीफ़े या बर्खास्तगियाँ भी लाज़मी हैं.

दिक्कत तब होती है जब राजनीति और ग़ैर-राजनीति का भेद मिटता है. सुप्रीम कोर्ट की इच्छा है कि बड़े स्तर पर पुलिस सुधार हो लेकिन कांस्टेबल तक की नियुक्ति में राजनीति प्रवेश कर गई है.
डॉक्टरों, इंजीनियरों, जूनियर इंजीनियरों से लेकर टीचरों तक की नियुक्ति, तबादले, तरक्की तक राजनेताओं के हवाले हो रही है. राज्यों में लालबत्ती संस्कृति ने प्रशासनिक पदों पर भी राजनीतिक नियुक्ति के रास्ते खोल दिए है.
इसे राजनीति के ग्रास रूट तक जाने की प्रक्रिया का हिस्सा तो नहीं माना जा सकता. अमरीका में राजनीतिक भर्तियों को ‘स्पॉइल्स सिस्टम’ और योग्यता के आधार पर भर्ती को ‘मेरिट सिस्टम’ कहते हैं. हमारा मेरिट सिस्टम स्पॉइल क्यों हो रहा है?

आदर्श राजनीति संभव नहीं?

पिछले लोकसभा चुनाव में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने वोट नहीं डाला.

उनके प्रेस सचिव के अनुसार, "राजनीतिक प्रतिस्पर्धा में अपनी तटस्थता दिखाने के लिए उन्होंने अपना वोट नहीं दिया."
राष्ट्रपति के इस कदम पर कई तरह की प्रतिक्रियाएं हुईं लेकिन यह एक परंपरा की शुरूआत थी. वैसे ही जैसे ब्रिटिश संसद में स्पीकर का पद, जो पूरी तरह राजनीति से बाहर है.
हमारे देश में स्पीकर का पद राजनीति से परे नहीं है लेकिन ब्रिटेन में हाउस ऑफ कॉमन्स का जो सदस्य स्पीकर चुना जाता है वह पहले अपने राजनीतिक दल से त्यागपत्र देता है.
स्पीकर चुने जाने के बाद वह अगले चुनाव के बाद भी स्पीकर पद पर बना रहता है. वह जिस क्षेत्र से चुना जाता है वहाँ से उसके ख़िलाफ़ किसी दल का प्रत्याशी चुनाव नहीं लड़ता. यह परंपराओं को बनाने की बात है.

आचार संहिता क्यों नहीं?

पुराने राजदरबारों से लेकर आधुनिक लोकतंत्र तक राज्याश्रय एक स्वीकृत परंपरा है. खास तौर से कलाकारों, रंगकर्मियों, लेखकों, साहित्यकारों, पत्रकारों और विचारकों आदि को सम्मान देने की एक पद्धति यह भी है.
हमारे यहाँ राज्यसभा में सदस्यों के मनोनयन की परंपरा है. राजनीतिक नियुक्तियों पर भी आपत्ति नहीं है लेकिन यह स्पष्ट होना चाहिए कि किस पद से किन हालात में हट जाना होगा.
माना जाता है कि दुनिया में सबसे ज्यादा राजनीतिक नियुक्तियाँ अमेरिका में होती हैं. अमेरिका में 19वीं सदी में राजनीतिक विजय के बाद बख्शीश के तौर पर सरकारी पद देने की परंपरा शुरू हुई थी. लेकिन समय के साथ वहाँ की परंपराएं विकसित हुईं.
पेंडलटन एक्ट (1883) और हैच एक्ट (1939) जैसे कानूनी व्यवस्थाएं भी वहाँ की गईं. वहाँ के जज राजनीतिक आधार पर नियुक्त होते हैं, लेकिन वे काम न्यायिक मूल्यों के आधार पर करते हैं. उनके यहाँ सरकारी नैतिकता का एक अलग विभाग है.
सत्ता परिवर्तन के बाद जिन 
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पदों से इस्तीफ़े देने होते हैं वे हो जाते हैं और जिन पदों पर सत्ता परिवर्तन के बावजूद कार्यकाल पूरा होने तक बने रहना है वे बने रहते हैं. पार्टी के लिए धन संग्रह करने वाले राजदूत वहाँ भी बनते हैं लेकिन सत्ता परिवर्तन होते ही वे इस्तीफ़ा देते हैं.

कौन सा पद राजनीतिक, कौन सा अराजनीतिक?

कौन सा पद राजनीतिक है और कौन सा अराजनीतिक इसका फ़ैसला कैसे होगा? इस बार नई सरकार के आते ही अटॉर्नी जनरल गुलाम वाहनवती और सॉलीसिटर जनरल मोहन पारासरन ने इस्तीफ़े सौंप दिए. मुकुल रोहतगी की नियुक्ति अटॉर्नी जनरल के रूप में हो गई.
हालांकि अटॉर्नी जनरल और सॉलीसीटर जनरल संवैधानिक पद हैं. ऐसे पदों से लोगों को हटाया नहीं जाता. परंपरा है कि नई सरकार आने के बाद पुरानी सरकार के विधि अधिकारी अपने पद से ख़ुद इस्तीफा दे देते हैं.
इसके विपरीत राज्यपालों के मामले में परंपरा की शुरूआत बर्खास्तगी से हुई थी. सन 1977 में पहला मौका था जब केंद्र में सत्ता परिवर्तन हुआ और थोक के भाव राज्यपाल हटाए गए.
वह एक कटु अनुभव था, जो परंपरा बन गया. हमारा लोकतंत्र अपेक्षाकृत नया है और परंपराओं को पनपने के लिए भी समय चाहिए.

नियम तो बन सकते हैं

बर्खास्तगी से ज़्यादा महत्वपूर्ण है नियुक्ति. नियुक्ति की परंपरा भी होनी चाहिए. पिछले दिनों केंद्रीय सतर्कता आयुक्त (सीवीसी) पीजे थॉमस की नियुक्ति का मामला अदालत तक गया. चयन के लिए जो तीन सदस्यीय समिति थी उसकी बैठक में नेता विपक्ष सुषमा स्वराज ने थॉमस की नियुक्ति पर विरोध दर्ज कराया था. चूंकि प्रधानमंत्री और गृह मंत्री ने उसकी अनदेखी की इसलिए नियुक्ति हो गई.
लोकपाल विधेयक पर चर्चा के दौरान सर्च कमेटी और नियुक्ति करने वाली टीम को लेकर मतभेद लगातार बना रहा. यूपीए की पिछली सरकार लोकपाल की नियुक्ति में अतिशय तेज़ी दिखा रही थी लेकिन सरकार को उस वक़्त फ़ज़ीहत झेलनी पड़ी, जब सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश केटी थॉमस और न्यायविद फली एस नरीमन ने सर्च कमेटी की सदस्यता ठुकरा दी.
विवादास्पद नियुक्तियाँ गलत परंपराएं स्थापित करती हैं. इन दिनों राज्यपालों की नियुक्ति को लेकर चर्चा हो रही है, जिसका मूल आधार सुप्रीम कोर्ट का एक फ़ैसला है. अदालत के अनुसार राज्यपाल केंद्र सरकार का एजेंट नहीं है और न किसी राजनीतिक टीम का सदस्य है लेकिन यदि नियुक्ति का आधार राजनीतिक होगा तो वह पद राजनीतिक होने से कैसे बचेगा?
इसके पहले सरकारिया आयोग की सलाह थी कि राज्यपाल का चयन राजनीति में सक्रिय व्यक्तियों में से नहीं होना चाहिए. कम से कम केंद्र में सत्तारूढ़ दल का व्यक्ति तो कदापि नहीं. आयोग की सलाह थी कि राज्यपालों का चयन केंद्र सरकार नहीं, बल्कि एक 'स्वतंत्र न्यायिक संस्था' करे. यह फैसला अंततः राजनीति को ही करना होगा.

जजों की नियुक्ति

यह अलग से चर्चा का विषय हो सकता है. अगले सप्ताह 25 जून को इमरजेंसी के 39 साल पूरे हो जाएंगे. जनवरी 1977 में तत्कालीन सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की नियुक्ति में एचआर खन्ना की वरिष्ठता की अनदेखी की तब एक ग़लत परंपरा की शुरुआत हुई थी.
सरकार के उस कदम से आहत जस्टिस खन्ना ने उसी दिन इस्तीफ़ा दे दिया. जस्टिस खन्ना को उनके साहस के लिए याद किया जाता है. पाँच सदस्यों की संविधान पीठ में केवल उन्होंने इमरजेंसी को ग़लत बताया था. उसके बाद से जजों की नियुक्ति को लेकर जो बहस चल रही है, वह अभी पूरी नहीं हुई है.
देर-सबेर सुप्रीम कोर्ट ने संविधान की व्याख्या कर नियुक्ति के सारे अधिकार अपने हाथ में ले लिए. कॉलेजियम व्यवस्था का जन्म हुआ और जजों की नियुक्ति का अधिकार पूरी तरह सरकार के हाथ से चला गया. अब कॉलेजियम व्यवस्था भी सवालों के घेरे में हैं.
पिछली यूपीए सरकार ने संविधान (संशोधन) बिल पेश किया था ताकि जजों की नियुक्ति में राजनीतिक कार्यपालिका की भूमिका भी हो. यह विमर्श अभी अधूरा है. न्यायिक नियुक्तियाँ और न्यायिक ज़िम्मेदारी राष्ट्रीय विमर्श का हिस्सा नहीं बन पाई हैं. राजनीति वहाँ भी किसी न किसी रूप में मौजूद है.
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जेल से बेल पर निकले 915 कैदी फरार

पवन कुमार, नई दिल्ली
हत्या, लूट, अपहरण और डकैती की वारदातों में शामिल 915 खूंखार अपराधी दिल्ली और इसके आस-पास के इलाकों में खुली हवा में सांस ले रहे हैं। दिल्ली पुलिस के पास इसकी जानकारी भी है, मगर साथ में लाचारी भी है। पुलिस के पास इन अपराधियों की जन्म कुंडली तो है मगर, इन अपराधियों के पतों व अन्य जरूरी जानकारी नदारद है। पुलिस रिकार्ड में दर्ज 500 से ज्यादा अपराधियों के मकान व रिश्तेदारों के पते तक फर्जी पाए गए हैं। जिससे पुलिस अपराधियों का सुराग तक नहीं लगा पा रही है। ये सभी अपराधी दिल्ली हाईकोर्ट से जमानत मिलने के बाद तिहाड़ जेल से निकले और फरार हो गए। इनमें गैंगस्टर नीरज बवाना, सत्यवान सोनू और कई ऐसे खूंखार अपराधियों के नाम शामिल हैं जो अपराध की दुनिया में पुलिस व लोगों के जी का जंजाल बने हुए हैं। इस चौंकाने वाले तथ्य का खुलासा जेल महानिदेशक की ओर से दिल्ली हाईकोर्ट में पेश की गई एक रिपोर्ट के माध्यम से किया गया है। यह रिपोर्ट एक मृत घोषित अपराधी राजवीर सिंह उर्फ छंगा के जीवित साबित होने के बाद हाईकोर्ट के निर्देश पर पेश की गई है। हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति कैलाश गंभीर व न्यायमूर्ति सुनीता गुप्ता की खंडपीठ ने उक्त मामले को गंभीरता से लेते हुए दिल्ली पुलिस को निर्देश दिया है कि वह इस मामले में सभी फरार अपराधियों का पता लगाए और उन्हें गिरफ्तार करे। इतना ही नहीं मामले में अपराधियों की जमानत देने वाले लोगों पर भी कड़ी कानूनी कार्रवाई की जाए। इस संबंध में खंडपीठ ने पुलिस को एक विशेष रिपोर्ट भी पेश करने को कहा है। अब इस मामले की सुनवाई 18 जुलाई को होगी।
जेल महानिदेशक की ओर से पेश की गई विशेष रिपोर्ट के माध्यम से बताया गया है कि दिल्ली हाईकोर्ट में लंबित हत्या के विभिन्न मामलों में वर्ष 1999 से लेकर अब तक 915 कैदी हाईकोर्ट से जमानत या पैरोल लेकर फरार हो चुके हैं। इनमें से 563 कैदी ऐसे हैं। जिनके फरार होने के बाद उनके मकान व रिश्तेदारों के पते तक फर्जी पाए गए हैं। ऐसे अपराधियों का पुलिस कोई सुराग नहीं लगा सकी है। यहां तक कि इन अपराधियों की जमानत देने वाले जमानती तक फरार हैं। वहीं, अन्य जो कैदी हैं, उनके मकान के पते तो ठीक हैं, मगर अपराधी फरार हैं।
हाईकोर्ट के समक्ष पेश की गई रिपोर्ट में बताया गया है कि उत्तर पश्चिमी और बाहरी दिल्ली में आतंक का पर्याय बने गैंगस्टर नीरज बवाना भी जमानत लेकर फरार हो गया था। इसके अतिरिक्त हत्या व फिरौती की विभिन्न वारदातों में शामिल बदमाश सुनील कुमार कालरा भी सितंबर 2012 से जमानत लेकर फरार है। लूटपाट व हत्या के कई मामलों में शामिल सत्यवान उर्फ सोनू गिरोह का मुखिया सोनी और बिजेंद्र यादव भी तिहाड़ से वर्ष 2011 में पैरोल पर रिहा हुए थे, मगर वापस नहीं लौटे।

यह था मामला
गाजियाबाद निवासी राजवीर सिंह उर्फ छंगा हत्या के एक मामले में जमानत लेकर फरार हो गया। हाईकोर्ट के न्यायमूर्ति कैलाश गंभीर व न्यायमूर्ति सुनीता गुप्ता की खंडपीठ के समक्ष एक दिन गाजियाबाद पुलिस ने मामले में छंगा का मृत्यु प्रमाण पत्र पेश किया। इस मामले में सरकारी वकील सुनील शर्मा को संदेह हुआ। उनके आग्रह पर मामले की जांच की गई तो पाया गया कि छंगा मरा ही नहीं है। बल्कि किसी ओर को मार कर छंगा साबित कर दिया गया। इस मामले में दिल्ली हाईकोर्ट ने तिहाड़ जेल अधीक्षक को उन सभी कैदियों की रिपोर्ट पेश करने के लिए कहा था जो जमानत या पैरोल पर जेल से निकले और फरार हो गए और उनके मामले हाईकोर्ट में विचाराधीन हैं।
साभार – दैनिक जागरण

नेहरु के समाजवाद के छौंक की भी जरुरत नहीं मोदी मॉडल को

पुण्य प्रसून बाजपेयी

बात गरीबी की हो लेकिन नीतियां रईसों को उड़ान देने वाली हों। बात गांव की हो लेकिन नीतियां शहरों को बनाने की हो। तो फिर रास्ता भटकाव वाला नहीं झूठ वाला ही लगता है। ठीक वैसे, जैसे नेहरु ने रोटी कपड़ा मकान की बात की । इंदिरा गांधी ने गरीबी हटाओ का नारा दिया और अब नरेन्द्र मोदी गरीबों के सपनों को पूरा करने के सपने दिखा रहे हैं। असल में देश के विकास के रास्ता कौन सा सही है, इसके मर्म को ना नेहरु ने पकड़ा और ना ही मोदी पकड़ पा रहे हैं। रेलगाड़ी का सफर महंगा हुआ। तेल महंगा होना तय है। लोहा और सीमेंट महंगा हो चला है। सब्जी-फल की कीमतें बढेंगी ही। और इन सब के बीच मॉनसून ने दो बरस लगातार धोखा दे दिया तो खुदकुशी करते लोगों की तादाद किसानों से आगे निकल कर गांव और शहर दोनों को अपनी गिरफ्त में लेगी। तो फिर बदलाव आया कैसा। यकीनन जनादेश बदलाव ले कर आया है। लेकिन इस बदलाव
को दो अलग अलग दायरे में देखना जरुरी है। पहला मनमोहन सिंह के काल का खात्मा और दूसरा आजादी के बाद से देश को जिस रास्ते पर चलना चाहिये, उसे सही रास्ता ना दिखा पाने का अपराध। नरेन्द्र मोदी ने मनमोहन सिंह से मुक्ति दिलायी, यह जरुरी था। इसे बड़ा बदलाव कह सकते हैं। क्योंकि मनमोहन सिंह देश के पहले प्रधानमंत्री थे जो भारत के प्रधानमंत्री होकर भी दुनिया की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के नुमाइन्दे के तौर पर ही ७ रेसकोर्स में थे। क्योंकि मनमोहन सिंह ऐसे पहले पीएम बने, जिन्हे विश्व बैंक से प्रधानमंत्री रहते हुये पेंशन मिलती रही। यानी पीएम की नौकरी करते हुये टोकन मनी के तौर पर देश से सिर्फ एक रुपये लेकर ईमानदार पीएम होने का तमगा लगाना हो  या फिर परमाणु संधि के जरीये दूनिया की तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियो को मुफा बनाने देने के लिये भारत को उर्जा शक्ति बनाने का ढोंग हो। हर हाल में मनमोहन सिंह देश की नुमाइन्दगी नहीं कर रहे थे बल्कि विश्व बाजार में बिचौलिये की भूमिका निभा रहे थे। 

जाहिर है नरेन्द्र मोदी बदलाव के प्रतीक हैं, जो मनमोहन सिंह नहीं हो सकते। लेकिन यहां से शुरु होता है दूसरा सवाल जो आजादी के बाद नेहरु काल से लेकर शुरु हुये मोदी युग से जुड़ रहा है। और संयोग से नेहरु और मोदी के बीच फर्क सिर्फ इतना ही दिखायी दे रहा है कि भारत की गरीबी को ध्यान में रखकर नेहरु ने समाजवाद का छोंक लगाया था और नरेन्द्र मोदी के रास्ते में उस आरएसएस का छोंक है जो भारत को अमेरिका बनाने के खिलाफ है। लेकिन बाकी सब ? दरअसल नेहरु यूरोपीय माडल से खासे प्रभावित थे। तो उन्होंने जिस मॉडल को अपनाया उसमें बर चीज बड़ी बननी ही थी। बड़े बांध। बड़े अस्पताल। बडे शिक्षण संस्थान । यानी सबकुछ बडा । चाहे भाखडा नांगल हो या एम्स या फिर आईआईटी। और जब बड़ा चाहिये तो दुनिया के बाजार से इन बडी चीजो को पूरा करने के लिये बड़ी मशीनें। बड़ी टेकनालाजी। बडी शिक्षा भी चाहिये। तो असर नेहरु के दौर से ही एक भारत में दो भारत के बनने का शुरु हो चुका था। इसीलिये गरीबी या गरीबों को लेकर सियासी नारे भी आजादी के तुरत बाद से गूंजते रहे और १६ वीं लोकसभा में भी गूंज रहे हैं। लेकिन अब सवाल है कि मोदी जिस रास्ते पर चल पड़े हैं, वह बदलाव का है। या फिर जनादेश ने तो कांग्रेस को रद्दी की टोकरी में डाल कर बदलाव किया लेकिन क्या जनादेश के बदलाव से देश का रास्ता भी बदलेगा। या बदलाव आयेगा, यह बता पाना मुश्किल इसलिये नहीं है क्योकि नेहरु ने जो गलती की उसे अत्यानुधिक तरीके से मोदी मॉडल अपना रहा है। सौ आधुनिकतम शहर। आईआईटी। आईआईएम। एम्स अस्पताल। बडे बांध । विदेशी निवेश । यानी हर गांव को शहर बनाते हुये शहरों को उस चकाचौंध से जोड़ने का सपना जो आजादी के बाद बहुसंख्यक तबका अपने भीतर संजोये रहा है। जहां वह घर से निकले।गांव की पगडंडियों को छोड़े। शहर में आये। वहीं पढ़े। राजधानी पहुंचे तो वहां नौकरी करे। फिर देश के महानगरो में कदम रखे। फिर दिल्ली या मुबंई होते हुये सात समंदर पार। यह सपना कोई आज का नहीं है। लेकिन इस सपने में संघ की राष्ट्रीयता का छौंक लगने के बाद भी देश को सही रास्ता क्यों नहीं मिल पा रहा है, इसे आरएसएस भी कभी समझ नहीं पायी और शायद प्रचारक से पीएम बने मोदी का संकट भी यही है कि जिस रास्ते वह चल निकले है उसमें गांव कैसे बचेंगे, यह किसी को नहीं पता। पलायन कैसे रुकेगा इसपर कोई काम हो नहीं रहा है। सवा सौ करोड़ का देश एक सकारात्मक
जनसंख्या के तौर पर काम करते हुये देश को बनाने संवारने लगे इस दिशा में कभी किसी ने सोचा नहीं । पानी बचाने या उर्जा के विकल्पों को बनाने की दिशा में कभी सरकारो ने काम किया नहीं । बने हुये शहर अपनी क्षमता से ज्यादा लोगों को पनाह दिये हुये है उसे रोके कैसे या शहरो का विस्तार पानी, बिजली, सड़क की खपत के अनुसार ही हो इसपर कोई बात करने को तैयार नहीं है । तो फिर बदलाव का रास्ता है क्या । जरा सरलता से समझे तो हर गांव के हर घर में साफ शौचालय से लेकर पानी निकासी और बायो गैस उर्जा से लेकर पर्यावरण संतुलन बनाने के दिशा में काम होना चाहिये। तीन या चार पढ़े लिखे लोगो हर गांव को सही दिशा दे सकते है । देश में करीब ६ लाख ३८ हजार गांव हैं। तीस लाख से ज्यादा बारहवी पास छात्रो को सरकार नौकरी भी दे सकती है और गाव को पुनर्जीवित करने की दिशा में कदम भी उठा सकती है। फिर क्यों तालाब , बावडी से लेकर बारिश के पानी को जमा करने तक पर कोई काम नहीं हुआ । जल संसाधन मंत्रालय का काम क्या है । पानी देने के राजनीतिक नारे से पहले पानी बचाने और सहेजने का पाठ कौन पढ़ायेगा । इसके सामानांतर कृषि विश्वविद्यालयों के जिन छात्रों को गर्मी की छुट्टी में प्रधानमंत्री मोदी गांव भेजना चाहते हैं और लैब टू लैंड या यानी प्रयोगशाला से जमीन की बात कर किसानों को खेती का पाठ पढाना चाहते हैं, उससे पहले जैविक खेती के रास्ते खोलने के लिये वातावरण क्यों नहीं बनाना चाहते । 

किसान का जीवन फसल पर टिका है और फसल की किमत अगर उत्पादन कीमत से कमहोगी तो फिर हर मौसम में ज्यादा फसल का बोझ किसान पर क्यों नहीं आयेगा । खनन से लेकर तमाम बडे प्रजोक्ट जो पावर के हो या फिर इन्फ्रास्ट्रक्चर के। उन्हें पूरा करने में तकनालाजी की जगह मानव श्रम क्यों नहीं लगाया जा सकता। जबकि मौजूदा वक्त में जितनी भी योजनाओं पर काम चल रहा है और जो योजनायें मोदी सरकार की प्राथमिकता है उनमें से अस्सी फीसदी योजना की जमीन तो ग्रामीण बारत में है। इनमें भी साठ फीसदी योजनायें आदिवासी बहुल इलाको में है। जहां देश के बीस करोड़ से ज्यादा श्रमिक हाथ बेरोजगार हैं। क्या
इन्हें काम पर नहीं लगाया जा सकता। लातूर में चीन की टक्नालाजी से आठ महीने में पावर प्रोजेक्ट लगा दिया गया। मशीने लायी गयी और लातूर में लाकर जोड़ दिया गया । लेकिन इसका फायदा किसे मिला जाहिर है उसी कारपोरेट को जिसने इसे लगाया । तो फिर गांव गांव तक जब बिजली पहुंचायी जायेगी तो वहा तक लगे खंभों का खर्च कौन उठायेगा । निजी क्षेत्र के हाथ में पावर सेक्टर आ चुका है तो फिर खर्च कर वह वसूलेगी भी । तो मंहगी बिजली गांव वाले कैसे खरीदेगें । और किसान मंहगी बिजली कैसे खरीदेगा । अगर यह खरीद पायेगें तो अनाज का समर्थन मूल्य तो सरकार को ही बढाना होगा । यानी मंहगे होते साधनो पर रोक लगाने का कोई विकास का माडल सरकार के पास नहीं है । सबसे बडा सवाल यही है कि बदलाव के जनादेश के बाद क्या वाकई बदलाव की खूशबू देने की स्थिति में मोदी सरकार है । क्योंकि छोटे बांध । रहट से सिंचाई । रिक्शा और बैलगाडी । सरकारी स्कूल । प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र । सौर उर्जा या बायो-गैस । सबकुछ खत्म कर जिस विकास माडल में सरकार समा रही है उस रास्ते पहाडियो से अब पानी झरने की तरह गिरते नहीं है । सड़कों पर साइकिल के लिये जगह नहीं । बच्चो के खुले मैदानों की जगह कम्यूटर गेम्स ने ले ली है । चलने वालों की पटरी पर चढाई कर फोर व्हील गाडिया ओवर-टेक कर दौडने को तैयार है । और जिस पेट्रोल -डीजल पर विदेशी बाजार का कब्जा है उसका उपयोग ज्यादा से ज्यादा करने के लिये गाडियों को खरीदने की सुविधा ही देश में सबसे ज्यादा है। यानी आत्मनिर्भर होने की जगह आत्मनिर्भर बनने के लिये पैसा बनाने या रुपया कमाने की होड ही विकास माडल हो चला है । तभी तो पहली बार बदलाव के पहले संकेत उसी बदलाव के जनादेश से निकले है जिससे बनी मोदी सरकार ने रेल बजट का इंतजार नहीं किया और प्रचारक से पीएम बने मोदी जी ने यह जानते समझते हुये यात्रियो का सफरचौदह फिसदी मंहगा कर दिया कि भारत में रेलगाडी का सबसे ज्यादा उपयोग सबसे मजबूर-कमजोर तबका करता है। खत्म होते गांवों, खत्म होती खेती के दौर में शहरो की तरफ पलायन करते लोग और कुछ कमाकर होली-दिवाली -ईद में मां-बाप के पास लौटता भारत ही सबसे ज्यादा रेलगाड़ी में सफर करता है ।

दूसरे नंबर पर धार्मिक तीर्थ स्थलो के दर्शन करने वाले और तीसरे नंबर पर विवाह उत्सव में शरीक होने वाले ही रेलगाडी में सफर सबसे ज्यादा संख्या में करते है । और जो भारत रेलगाड़ी से सस्ते में सफर  के लिये बचा उस भारत को खत्म कर शहर बनाकर गाडी और पेट्रोलॉ-डीजल पर निर्भर बनाने की कवायद भूमि सुधार के जरीये करने पर शहरी विकास मंत्रालय पहले दिन से ही लग चुका है । यानी महंगाई पर रोक कैसे लगे इसकी जगह हर सुविधा देने और लेने की सोच विकसित होते भारत की अनकही कहानी हो चली है । जिसके लिये हर घेरे में सत्तादारी बनने की ललक का नाम भारत है । तो गंगा साफ कैसे होगी जब सिस्टम मैला होगा। और सत्ता पाने के खातिर गरीबो के लिये जीयेंगे-मरेंगे का नारा लगाना ही आजाद भारत की फितरत होगी।

इराक में गहराती घटाएं

इराक में पिछले कुछ महीनों से हलचल है। कुछ महीनों क्या कुछ साल से इराक और सीरिया की सीमा पर जबर्दस्त जद्दो-जेहद चल रही है। इस खूंरेजी में अमेरिका, इस्रायल, सऊदी अरब, तुर्की और इराक के साथ ईरान की भूमिका भी है। इसके अलावा अल-कायदा या उसके जैसी कट्टरपंथी ताकतों के उभरने का खतरा हो, जो अफ्रीका में बोको हराम या ऐसे ही कुछ दूसरे संगठनों की शक्ल में सामने आ रही है। इस पूरी समस्या के कई आयाम हैं। हमने इसकी ओर अभी तक ध्यान नहीं दिया तो इसकी वजह सिर्फ इतनी थी कि इसमें हम सीध् नहीं लिपटे थे। पर अब बड़ी संख्या में भारतीयों के वहाँ फँस जाने के कारण हम उधर निगाहें फेर रहे हैं। गौर से देखें तो हमारे लिए यह समस्या केवल अपने लोगों के फँसे होने की नहीं है।


इराक के संकट के जो खास पहलू हैं उनमें सबसे बड़ा यह है कि क्या यह इस्लामी जगत के भीतर का संग्राम है या पश्चिम एशिया में अमेरिकी हस्तक्षेप का दुष्परिणाम? दूर से हमें यह शिया-सुन्नी संग्राम लगता है। वहीं यह भी समझ में आता है कि राजनीतिक इस्लाम का वहाबी स्वरूप अँगड़ाई ले रहा है। यह भी कि मध्य युग के इस्लामी राज्य खुरासान को पुनर्स्थापित करने की यह कोशिश है। इसका असर केवल इराक तक ही नहीं अफगानिस्तान और ताजिकिस्तान तथा उज्बेकिस्तान जैसे पश्चिम एशियाई इलाकों तक पड़ेगा। ऐसा भी लगता है कि इस इलाके में तेल सम्पदा को लेकर स्वार्थों की टकराहट है। इसका एक पहलू अरब देशों में लोकतांत्रिक बयार से जुड़ा है, हालांकि इस समाज में लोकतांत्रिक परम्पराएं, खासतौर से पश्चिम जैसी लोकतांत्रिक संस्थाएं पहले से मौजूद नहीं है।
कई सवाल एक साथ हैं। अमेरिकी सेना अगले इस साल अफगानिस्तान से हटने जा रही है। अब इराक के हालात देखते हुए यह समझना होगा कि आने वाले समय के हालात क्या होंगे। वास्तव में अमेरिका अब सीरिया और इराक में अपने पैर फँसाकर हाराकीरी नहीं करना चाहेगा। पर वह इस इलाके से भाग भी नहीं सकता। इसीलिए उसने अपने एक नौसैनिक बेड़े को खाड़ी की ओर रवाना कर दिया है। यों भी इस इलाके में अमेरिका अपनी फौजी उपस्थिति बनाकर रखता है। इराक चाहता है कि अमेरिकी वायुसेना आगे बढ़ रहे बागियों पर हमले करे, पर अमेरिका फूंककर कदम रख रहा है। उसने अपने तीन सौ के आसपास सैनिक सलाहकार इराक भेजे हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि वह इस कार्रवाई में ईरान के साथ समन्वय के लिए तैयार है। हालांकि यह जोखिम भरा काम है। वह ईरान की खातिर सऊदी अरब के साथ रिश्ते भी खराब नहीं करना चाहेगा।

पिछले साल जब सीरिया में रासायनिक हथियारों को लेकर दबाव बनाया जा रहा था, तब लगता था कि अमेरिका शिया और सुन्नियों के बीच झगड़ा बढ़ाकर अपनी रोटी सेकना चाहता है। ऐसा भी लगता था कि उसने ईरान पर दबाव बनाने के लिए सलाफी इस्लाम के समर्थकों से हाथ मिला लिया हैजिनका गढ़ पाकिस्तान है और जिसे सऊदी अरब से पैसा मिलता है। सीरिया में रूस की भूमिका भी है। और हाल में अमेरिका और रूस के बीच यूक्रेन को लेकर सीधा टकराव है।

इराक से अमेरिका की सेना सन 2011 में हट गई थी। इराक में कई प्रकार की आबादी है। इनमें शिया और सुन्नी दोनों समुदाय हैं। प्रधानमंत्री नूरी अल मलिकी शिया समुदाय से आते हैं। जाने या अनजाने वे सुन्नियों के साथ अच्छा रिश्ता कायम नहीं कर पाए। या यह कहें कि सीरिया में बशर अल असद के खिलाफ लड़ रहे समूहों ने अपनी ताकत बढ़ा ली। इनमें सबसे महत्वपूर्ण समूह है अल-दावला-अल-इस्लामिया फिल इराक वा अल-शाम (इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड सीरिया या आईसआईएस)। इस इलाके से अमेरिकी सेना के हटते वक्त इधर अल-कायदा की गतिविधियाँ कम हो गईं थीं। हाँ इराक के नए निजाम का सुन्नियों के साथ तकराव शुरू हो गया। सन 2013 में इस इलाके में हुई हिंसा में तकरीबन आठ हजार नागरिक मरे थे। इराक और तुर्की की सीमा पर कुर्द भी स्वायत्त क्षेत्र के लिए लम्बे अरसे से संघर्ष कर रहे हैं। वे आईसआईएस के साथ नहीं हैं, पर अपने अधिकारों को लेकर इराक की सरकार के खिलाफ हैं।

सन 2003 में इराक पर हमला करते वक्त अमेरिका ने दावा किया था कि इराक के पास रासायनिक हथियार हैं। उसने यह भी कहा कि सद्दाम हुसेन का अल-कायदा के साथ गठबंधन है। दोनों बातें गलत साबित हुईं। सद्दाम हुसेन की बाथ पार्टी इस इलाके में सेक्युलर संगठन था। वह कई प्रकार के समूहों को साथ लेकर चलता था। अमेरिका ने बाथ पार्टी को बुरी तरह तोड़ दिया। साथ ही सद्दाम के नेतृत्व वाली इराकी सेना को भी खत्म कर दिया। बाथ पार्टी और पुरानी इराकी सेना से जुड़े लोग अब नाराज गुटों के साथ मिल गए हैं।

इस इलाके में सऊदी अरब की दिलचस्पी भी बढ़ी है। पिछले साल सीरिया के बशर अल-असद का तख्ता पलट करने में सऊदी अरब की भारी दिलचस्पी थी। सऊदी शाहजादे बंदर बिन सुल्तान अल-सऊद ने यूरोप और अमेरिका में जन-सम्पर्क कर दुनिया को यह समझाने की कोशिश की कि सीरिया में बशर अल-असद के ईरान समर्थित शासन का खात्मा करना अमेरिका के लिए बेहद जरूरी हो गया है। सऊदी अरब की यह मुहिम केवल सीरिया तक सीमित नहीं थी। वह इस इलाके में अपना प्रभाव बढ़ाना चाहता है। मिस्र में मुस्लिम ब्रदरहुड को कुचलने और वहाँ की सेना का समर्थन करने में भी सऊदी अरब की भूमिका थी। इराक की इस बगावत में सक्रिय ताकतों के पीछे सऊदी अरब का भी हाथ है, इसका अंदोज इस बात से लगता है कि यहाँ फँसे भारतीय नागरिकों को निकालने में भारत सरकार सऊदी अरब की मदद ले रही है। 

भारत से बड़ी संख्या में लोग पश्चिम एशिया काम के लिए जाते हैं। सन 2011 में लीबिया के गृहयुद्ध के दौरान भारत सरकार ने अपने 17000 नागरिकों को वहाँ से निकाला था। हमारे लिए फिलहाल अपने नागरिकों को निकालना पहला काम है। पर यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि इराक में लड़ रहे लोग कल अफगानिस्तान तक आएंगे। पाकिस्तान में बैठे जेहादी बयानों पर यकीन किया जाए तो वे इस युद्ध को कश्मीर तक लाना चाहते हैं। इसलिए सावधान रहें और इराक के घटनाक्रम को ध्यान से देखें।

हरिभूमि में प्रकाशित

काँग्रेस करे तो “बुरा” फ़ैसला और भाजपा करे तो “बड़ा” फ़ैसला?

काँग्रेस के “बुरे” फ़ैसले और भाजपा के “कड़े” फ़ैसले में क्या फ़र्क़ है?

अभिरंजन कुमार
काँग्रेस करे तो “बुरा” फ़ैसला और भाजपा करे तो “बड़ा” फ़ैसला? काँग्रेस करे तो “कूड़ा” फ़ैसला और भाजपा करे तो “कड़ा” फ़ैसला? नई सरकार को वक़्त दिया जाना चाहिए, इस बात पर न किसी को एतराज हो सकता है, न मुझे है। मेरा एतराज तो भाजपा के दोमुँहेपन से है। इस दोमुँहेपन का चरित्र आम आदमी पार्टी के दोमुँहेपन से ज़्यादा अलग नहीं है।
जिस तरह से दूसरों को पानी पी-पीकर चोर, भ्रष्ट, बेईमान कहने वाले केजरीवाल को अपने मंत्री सोमनाथ भारती में कोई ऐब नहीं दिखाई देता था, ठीक उसी तरह एक साल में संसद को दागियों से मुक्त करने का वादा करने वाले प्रधानमंत्री मोदी अपने मंत्री निहालचंद को रेप मामले की जाँच पूरी होने तक हटाने की नैतिकता नहीं दिखा पा रहे हैं।
जिस तरह से केजरीवाल ने अपनी व्यक्तिगत पसंद-नापसंद की बुनियाद पर राखी बिड़लान जैसी अपरिपक्वों को अपना मंत्री बना लिया, ठीक उसी तरह प्रधानमंत्री मोदी ने स्मृति इरानी को पार्टी में ढेर सारे योग्य लोगों के रहते हुए भी सीधा मानव संसाधन विकास मंत्रालय का कैबिनेट मंत्री बना दिया।
जिस तरह केजरीवाल ने काँग्रेस की सरकार को पानी पी-पीकर कोसा और उसी के समर्थन से सरकार बना ली, ठीक उसी तरह से काँग्रेस की सरकार के जिन फ़ैसलों और नीतियों के लिए भाजपा ने उसकी नाक में दम कर रखा था, अब देशहित और अर्थव्यवस्था की ज़रूरत की दुहाई देकर उसी को अपनाती हुई दिखाई दे रही है।
मोदी जी ने चुनाव-पूर्व अपने तमाम साक्षात्कारों में कहा था कि वह पीछे की बात नहीं करेंगेआगे की बात करेंगे,लेकिन अब वे और उनके लोग बार-बार पिछली सरकार से मिली विरासत का रोना रो रहे हैं। यह बात कुछ दिन और महीने तक लोग सहानुभूतिपूर्वक सुनेंगे भी, लेकिन उसके बाद जब सुनेंगे, तो अपना सिर धुनेंगे।
क्या मोदी सरकार यह समझ पाएगी कि मनमोहन वाली “नई आर्थिक नीति” अब पुरानी हो चुकी है और देश को अब “समग्र आर्थिक नीति” की ज़रूरत है? ऐसी आर्थिक नीति की, जिसमें हाशिये पर पड़े आदमी और पर्यावरण की चिंता प्रथम हो। कोई आदमी भूखा न रहे, कोई बीमार इलाज न मिल पाने से न मरे, कोई किसान क़र्ज़ से दबकर आत्महत्या न करे।
मोदी सरकार अगर ग़रीबों और मध्यवर्गीय लोगों को दी जाने वाली मामूली सब्सिडी ख़त्म करना चाहती है तो करे, लेकिन इंसाफ़ और तर्क के तक़ाज़े से क्या इससे पहले वह बड़े-बड़े कॉरपोरेट्स को दी जाने वाली भारी टैक्स छूट और सब्सिडी ख़त्म कर पाएगी? क्या उनकी टैक्स चोरी और कर्ज़ हड़प कर जाने पर रोक लगा पाएगी?
अगर हाँ, तो हम उसके साथ हैं। अगर नहीं, तो “सबका साथसबका विकास” का उसका नारा झूठा है। वह काँग्रेस सरकार की क्लोन है। काँग्रेस सरकार की कार्बन कॉपी है। काँग्रेस सरकार की एक्सटेंशन है। पूँजीपतियों की पादुका-पूजक और ग़रीबों-शोषितों-वंचितों-मज़दूरों-किसानों-मध्यवर्गीय लोगों की जेबकतरी है। हम नहीं हैं भ्रम में!

About The Author

अभिरंजन कुमार, लेखक वरिष्ठ टीवी पत्रकार हैं, आर्यन टीवी में कार्यकारी संपादक रहे हैं।

हथियार माफिया, राजनीति और सेना


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रक्षा मंत्री अरुण जेटली ने यह साफ़ कर दिया है कि लेफ्टिनेंट जनरल दलबीर सिंह सुहाग देश के अगले थलसेना अध्यक्ष होंगे. लेफ्टिनेंट जनरल सुहाग को बधाई. साथ में यूपीए के उन मास्टर माइंड रणनीतिकारों को भी बधाई, जो चुनाव हार जाने के बाद भी मोदी सरकार द्वारा अपने ़फैसले को लागू करवाने में सफल रहे हैं. अरुण जेटली को कौन समझाए कि लेफ्टिनेंट जनरल दलबीर सिंह सुहाग के ख़िलाफ़ आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर्स एक्ट के घोर उल्लंघन का आरोप है. आरोप यह है कि उनकी नाक के नीचे दीमापुर की इंटेलिजेंस यूनिट ने कई शर्मनाक कारनामों को अंजाम दिया. इस यूनिट का नेतृत्व कर्नल श्रीकुमार के पास है, जो सीधे लेफ्टिनेंट जनरल सुहाग को रिपोर्ट करते हैं. आरोप यह है कि सेनाध्यक्षों का लाइन ऑफ सक्सेशन यानी उत्तराधिकारियों का अनुक्रम एक साज़िश का हिस्सा है. आरोप यह है कि इसी वजह से जनरल वी के सिंह की जन्म तिथि का मुद्दा उठाया गया और उन्हें एक साल पहले ही रिटायर करने की साज़िश हुई. आरोप यह है कि देश में हथियार माफिया की धाक इतनी है कि सरकार बदल जाए, प्रधानमंत्री बदल जाए, रक्षा मंत्री बदल जाए, लेकिन उनके ख़िलाफ़ कोई कुछ नहीं कर सकता. सेना को राजनीति से दूर रखने के तर्क से सच पर पर्दा नहीं डाला जा सकता है. सच्चाई यह है कि रक्षा मंत्रालय में सब कुछ ठीक नहीं है. आइए, समझते हैं कि सेनाध्यक्ष की नियुक्ति के पीछे की असली कहानी क्या है? बीस दिसंबर, 2011 की रात कुछ लोग एक घर के अंदर जबरदस्ती घुस जाते हैं. यह घर पूना गोगोई का है. वह जोरहाट के निवासी हैं. वह आर्मी के लिए ठेके का काम करते हैं. उस रात वह अपने घर में नहीं थे. वह गुवाहाटी में थे. ये लोग पूना गोगोई के घर के पिछले दरवाजे को तोड़कर अंदर दाख़िल हुए थे. घर में उनकी पत्नी रेणु और तीन बच्चे थे. दो बेटे और एक बेटी. रात का समय था, घर में सब सो रहे थे. अचानक इन लोगों को घर के अंदर देखकर वे सब डर गए, रोने लगे. इन लोगों ने सभी को बिस्तर से खींचकर बाहर निकाला और उनके हाथ बांधकर उन्हें टीवी वाले कमरे में बंद कर दिया. ये लोग पूना गोगोई को ढूंढ रहे थे, लेकिन वह घर के अंदर नहीं मिले. इन लोगों ने बड़े बेटे को धमकी दी कि अगर उसने पूना गोगोई का ठिकाना नहीं बताया, तो सभी को जान से मार दिया जाएगा. इन लोगों के चेहरे ढंके हुए थे. किसी का चेहरा नहीं दिख रहा था. लेकिन, घर वालों ने एक का चेहरा देखा था. वह एक महिला थी, जिसने बातचीत के दौरान अपने चेहरे का मास्क हटाया था. वही सबको निर्देश दे रही थी. उस महिला के ही कहने पर इन लोगों ने घर की चाबियां लेकर सभी आलमारियों की तलाशी ली. ये लोग पूना गोगोई के घर से एक लाइसेंसी पिस्टल, साढ़े छह लाख रुपये के जेवर और क़रीब डेढ़ लाख रुपये नकद उठा ले गए. साथ में ये एक लैपटॉप और चार मोबाइल फोन भी ले गए. अगले दिन सवेरे पूना गोगोई जब वापस आए, तो घर का नजारा देखकर सन्न रह गए. घर के सारे लोग डरे- सहमे थे. वह सीधे पुलिस स्टेशन पहुंचे और शिकायत दर्ज कराई, घर से लूटे गए सभी सामानों का ब्यौरा दिया. लेकिन, थाने में उन्हें एक ऐसी जानकारी मिली, जिससे उनका दिमाग हिल गया. थाने की पीसीआर वैन ने जानकारी दी कि कल रात दो बजे के क़रीब उनकी मुलाकात आर्मी की एक टीम से हुई. दरअसल, जब ये लोग पूना गोगोई के घर से निकले, तो रास्ते में पुलिस मिल गई. जब पुलिस वालों ने रोका और पूछताछ की, तो इन लोगों ने बताया कि वे आर्मी से हैं और इस इला़के में विजय चाइनीज नामक उल्फा आतंकी की तलाश में आए थे. अब ये आर्मी वाले डकैती कर सकते हैं, इस पर तो कोई विश्‍वास ही नहीं कर सकता है. अगर आर्मी वालों ने यह काम किया भी है, तो इसका कोई सुबूत नहीं है. पुलिस को भी लगा कि हो सकता है, डकैती करने वाला कोई और गैंग हो और वारदात को अंजाम देकर निकल गया हो. पुलिस ने मामला दर्ज कर लिया. पुलिस और गोगोई परिवार के पास केवल एक ही सुराग बचा था. वह यह कि डकैती करने वाले गैंग का नेतृत्व एक महिला कर रही थी और अगर वह सामने आ जाए, तो उसे परिवार वाले पहचान सकते हैं. इस घटना के एक सप्ताह बाद एक हैरतअंगेज मोड़ आया. पूना गोगोई के बड़े बेटे के जिस फोन को डकैत उठा ले गए थे, उससे किसी ने कॉल किया. यह फोन कहां से किया गया, यह तो पता नहीं चला, लेकिन जिसे किया गया, वह सामने आ गया. यह कॉल हरियाणा के किसी नंबर पर की गई थी. इसके बाद एक पुलिस टीम हरियाणा रवाना होती है, तहक़ीक़ात करती है और जोरहाट की एसपी संयुक्ता पाराशर को बताया जाता है कि यह फोन कॉल आर्मी के एक हवलदार संदीप थापा ने अपनी पत्नी और मां को की थी. पता चलता है कि संदीप थापा दीमापुर के रंगापहाड़ में स्थित 3 कॉर्प्स इंटेलिजेंस एंड सर्विलांस यूनिट का सदस्य है. इस यूनिट का अधिकार क्षेत्र असम, नगालैंड और मणिपुर है और यह सीधे तौर पर लेफ्टिनेंट जनरल दलबीर सिंह सुहाग के कमांड के अंदर आता है. एसपी संयुक्ता पाराशर ने सुहाग से सीधे बात करने की कोशिश की, लेकिन उन्होंने पुलिस को सहयोग करने से मना कर दिया. इस बीच संदीप थापा पुलिस की पकड़ में आ जाता है. पुलिस ने उसे गिरफ्तार नहीं किया, स़िर्फ पूछताछ की. इस पूछताछ में हवलदार संदीप थापा ने सब कुछ उगल दिया. पुलिस और सेना में यह ख़बर आग की तरह फैल गई. सबको पता चल गया कि पूना गोगोई के घर में जिन लोगों ने इस वारदात को अंजाम दिया, वे सेना के लोग थे. इस घटना में इंटेलिजेंस कोर्प्स के पंद्रह लोग शामिल थे, जो पूना गोगोई के घर दो निजी वाहनों से पहुंचे थे. जो महिला इस टीम का नेतृत्व कर रही थी, वह कोई और नहीं, बल्कि कैप्टन रुबीना कौर कीर है. सबकी नज़र इस 3 कॉर्प्स इंटेलिजेंस यूनिट के कमांडर कर्नल गोविंदन श्रीकुमार पर जा टिकी. हालांकि श्रीकुमार इस रेडिंग टीम का हिस्सा नहीं थे, लेकिन जब पुलिस ने उनकी फोन डिटेल्स निकालीं, तो पता चला कि इस घटना से पहले और बाद में वह कैप्टन रुबीना कौर से लगातार बातचीत कर रहे थे. इस यूनिट से दो चूक हुई. एक तो इसने बिना किसी लड़ाकू दस्ते और पुलिस को बिना जानकारी दिए किसी नागरिक के घर रेड किया. दूसरी ग़लती यह कि आतंकी को पकड़ने के नाम पर घर के लोगों को प्रताड़ित किया और डकैती की. और तो और, इस पूरे मामले को छिपाने की कोशिश की गई. जब सेना की साख पर दाग़ लगने लगा और दबाव बढ़ने लगा, तो इस मामले को शांत करने की कोशिश भी की गई. पूना गोगोई को उनकी पिस्टल सहित घर से उठाए गए कई सामान वापस कर दिए गए, लेकिन कारतूस और जेवर गायब थे. वे कहां गए, यह किसी को पता नहीं. पुलिस को लेफ्टिनेंट जनरल सुहाग ने बताया कि अब यह मामला सेना देखेगी, क्योंकि यह पुलिस के अधिकार क्षेत्र के बाहर है. कर्नल श्रीकुमार भी कमाल के व्यक्तित्व हैं. बहुत पहुंचे हुए अधिकारी हैं. नॉर्थ-ईस्ट आने से पहले वह थलसेना अध्यक्ष जे जे सिंह के ओएसडी यानी ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी यानी थलसेना अध्यक्ष के सबसे निकटतम एवं विश्‍वासी अधिकारी थे. जनरल जे जे सिंह जब अरुणाचल प्रदेश के गवर्नर बने, तो श्रीकुमार भी 3 कोर्प्स के कमांडिंग ऑफिसर बनकर दीमापुर आ गए. बताया जाता है कि श्रीकुमार सीधे जनरल बिक्रम सिंह, जो उस वक्त ईस्टर्न कमांड के हेड थे और लेफ्टिनेंट जनरल सुहाग को रिपोर्ट करते हैं. यह भी ख़बर आई कि जब जनरल वी के सिंह की जन्म तिथि का विवाद शुरू हुआ, तो श्रीकुमार दिल्ली आकर मीडिया में ख़बरें लीक करने का काम करते थे. जोरहाट की घटना कोई अपवाद नहीं है. वैसे यह मामला अदालत में चल रहा है. ऊपर दिए गए विवऱण शिकायत के हिस्से हैं. एक और मामला है, जो इससे ज़्यादा शर्मनाक है. यह मामला मणिपुर हाईकोर्ट में चल रहा है. यह मामला मणिपुर के तीन नौजवानों के अपहरण और उनकी हत्या का है. इसमें भी आरोप के घेरे में 3 कॉर्प्स है. इस मामले में लेफ्टिनेंट जनरल सुहाग और कर्नल गोविंदन श्रीकुमार का नाम है. यह घटना 10 मार्च, 2010 की है. दीमापुर के चारमील इलाके से तीन युवकों का अपहरण होता है. फीजम नौबी, आर के रौशन और थौनौजम प्रेम नामक इन युवकों के बारे में पुलिस को ख़बर मिलती है कि उनका अपहरण हो गया है. 17 मार्च, 2010 को पुलिस को तीन शव मिलते हैं. तीनों के शरीर गोलियों से छलनी थे. उनकी पहचान होती है, तो पता चलता है कि ये वही तीनों हैं, जिनका 10 मार्च को अपहरण हुआ था. पुलिस अपनी एफआईआर में 3 कॉर्प्स इंटेलिजेंस यूनिट का नाम डाल देती है. इस बीच 3 कॉर्प्स के सेकेंड-इन-कमांड यानी कर्नल श्रीकुमार के ठीक नीचे के अधिकारी मेजर टी रवि किरण ने 12 मार्च, 2010 को आर्मी चीफ और ईस्टर्न कमांड के चीफ को एक पत्र लिखा. इस पत्र में उन्होंने लिखा कि 10 मार्च की रात तीन मणिपुरी नौजवानों को लाया गया, उन्हें टॉर्चर किया गया और फिर मेस के पीछे उन्हें गोली मार दी गई. इस चिट्ठी पर कोई कार्रवाई नहीं हुई. मेजर टी रवि किरण ने 25 जनवरी, 2012 को एक बार फिर सभी वरिष्ठ अधिकारियों को चिट्ठी लिखी, लेकिन उस वक्त जनरल वी के सिंह सेनाध्यक्ष थे. उन्होंने ईस्टर्न कमांड को जांच के निर्देश दिए. ईस्टर्न कमांड ने 3 कॉर्प्स को जांच के निर्देश दे दिए. जांच के दौरान मेजर टी रवि किरण ने बताया कि इस हत्याकांड के पीछे कर्नल गोविंदन श्रीकुमार की यूनिट थी. जोरहाट की घटना के बाद असम के चीफ मिनिस्टर तरुण गोगोई ने थलसेना अध्यक्ष जनरल वी के सिंह से बात की और इस घटना में शामिल सैनिकों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की मांग की. जनरल वी के सिंह के दबाव के चलते बिक्रम सिंह ने इस पर कोर्ट ऑफ इंक्वायरी बैठाई, जिसका नेतृत्व ब्रिगेडियर ए भुइया को सौंपा गया. एक ब्रिगेडियर रैंक के अधिकारी से जांच इसलिए कराई गई, ताकि इस मामले की आंच लेफ्टिनेंट जनरल सुहाग तक न पहुंचे, जबकि यह यूनिट उनके अधिकार क्षेत्र में आती है, तो सबसे पहली ज़िम्मेदारी उनकी ही बनती है. यहां तो मामला ही उल्टा हो गया. जिसकी ज़िम्मेदारी बनती है, उसे तो दूर रखा ही गया, लेकिन जिन लोगों ने इस ग़ैर क़ानूनी और अनैतिक घटना को अंजाम दिया, उन्हें भी छोड़ दिया गया. इस बीच पूना गोगोई ने गुवाहाटी हाईकोर्ट में गुहार लगा दी. उन्हें सेना की कोर्ट ऑफ इंक्वायरी के सामने गवाह बनाकर पेश किया गया. पूना गोगोई का कहना है कि कैप्टन रुबीना कौर कीर ने बाद में यह धमकी भी दी कि अगर कोई सुबूत दिया, तो वह उन्हें किसी दूसरे केस में फंसा देगी, जबकि यह बयान प्रीसाइडिंग ऑफिसर के सामने दिया गया, लेकिन इस पर कोई एक्शन नहीं हुआ. जैसे कि धमकी देना देश में क़ानूनन कोई जुर्म नहीं है. इस ख़बर को इंडिया लाइव टीवी पर भी डिटेल में दिखाया गया था. बताया जाता है कि इन लोगों की योजना पूना गोगोई का अपहरण करके उन्हें किसी आतंकी संगठन के हवाले करना था और यह सारा काम सेना में काम करने वाले पूना गोगोई के प्रतिद्वंद्वी ठेकेदार निर्मल गोगोई के इशारे पर किया गया. मामला टलता गया और सुनवाई होती रही. गुनहगारों को बचाने के लिए सारे प्रयत्न किए गए. आरोप यह है कि लेफ्टि. जनरल सुहाग ने कर्नल श्रीकुमार को बचाने के लिए सेना द्वारा किए गए इस ग़ैर क़ानूनी और अनैतिक ऑपरेशन पर पर्दा डालने की कोशिश की. इन सबको केवल इंतज़ार था जनरल वी के सिंह की सेवानिवृत्ति का, जो जन्म तिथि विवाद की वजह से एक साल पहले हो गई. बिक्रम सिंह सेनाध्यक्ष बन गए, लेफ्टि. जनरल सुहाग उप-सेनाध्यक्ष. और, अब वह सेनाध्यक्ष बनने वाले हैं. अगर इन सवालों को उठाना सेनाध्यक्ष की नियुक्ति का राजनीतिकरण है, तो अरुण जेटली साहब को ही बताना चाहिए कि अगर मोदी सरकार के रहते हुए सेना इस तरह का काम करेगी, तो क्या उसमें शामिल अधिकारियों को इसी तरह ईनाम दिया जाएगा, क्योंकि सेना की कोर्ट ऑफ इंक्वायरी ने जो ़फैसला दिया, वह किसी ईनाम से कम नहीं है. वैसे देश के क़ानून के मुताबिक़ डकैती की सज़ा 5 साल होती है, लेकिन इन लोगों का गुनाह तो स़िर्फ डकैती ही नहीं था. इन्होंने डकैती के साथ-साथ सेना की इज्ज़त और साख भी तार-तार कर दी. ऐसी घटनाओं की वजह से ही नॉर्थ-ईस्ट का इलाक़ा और वहां के लोग भारत से विमुख होते जा रहे हैं. इस घटना को तो देश तोड़ने की साज़िश के रूप में देखना चाहिए. ऐसी ही घटनाओं की वजह से आर्मड फोर्स स्पेशल पावर्स एक्ट पर सवालिया निशान लगता रहा है. लेकिन, जब दिसंबर 2013 में कोर्ट ऑफ इंक्वायरी का ़फैसला आया, तो स़िर्फ हवलदार संदीप थापा पर कार्रवाई हुई. उसे सेना से निष्कासित कर दिया गया. उस टीम का नेतृत्व करने वाली कैप्टन रुबीना के साथ-साथ उसमें शामिल लोगों को फटकार लगाई गई और कर्नल श्रीकुमार के प्रति असंतोष व्यक्त किया गया. वैसे यह बात सही है कि सेना को राजनीति से दूर रखना चाहिए. भारत कोई पाकिस्तान नहीं है. भारत में वैसे भी सेना का दख़ल न के बराबर है. समस्या तो यह है कि रक्षा सौदों पर दलालों का कब्जा है. दलालों से कौन लड़ेगा? राजनीति न करने का मतलब यह नहीं है कि सच्चाई पर पर्दा डाल दिया जाए, आंखें बंद कर ली जाएं. जब जनरल बिक्रम सिंह को सेनाध्यक्ष नियुक्त किया गया था, तब उनके ख़िलाफ़ दो मामले विचाराधीन थे. एक मामला जम्मू-कश्मीर में फर्जी एनकाउंटर का था, जो हाईकोर्ट में चल रहा था. दूसरा मामला उनके नेतृत्व वाली शांति सेना द्वारा कांगों में महिलाओं के यौन शोषण का था. दोनों के ़फैसले आने बाकी थे, लेकिन फिर भी मनमोहन सिंह ने उन्हें सेनाध्यक्ष नियुक्त कर दिया. समस्या तो यह है कि रक्षा सौदों पर दलालों का क़ब्ज़ा है. दलालों से कौन लड़ेगा? राजनीति न करने का मतलब यह नहीं है कि सच्चाई पर पर्दा डाल दिया जाए, आंखें बंद कर ली जाएं. जब जनरल बिक्रम सिंह को सेनाध्यक्ष नियुक्त किया गया था, तब उनके ख़िलाफ़ दो मामले विचाराधीन थे. एक मामला जम्मू-कश्मीर में फ़र्ज़ी एनकाउंटर का था, जो हाईकोर्ट में चल रहा था. दूसरा मामला उनके नेतृत्व वाली शांति सेना द्वारा कांगों में महिलाओं के यौन शोषण का था. दोनों के ़फैसले आने बाकी थे, लेकिन फिर भी मनमोहन सिंह ने उन्हें सेनाध्यक्ष नियुक्त कर दिया. अब मनमोहन सिंह जाते-जाते लेफ्टि. जनरल सुहाग को सेनाध्यक्ष नियुक्त कर गए. सुहाग पर भी आरोप हैं और संगीन आरोप हैं. ये मामले अदालत में विचाराधीन हैं. समझने वाली बात यह है कि विवाद जनरल वी के सिंह के ट्वीट से नहीं शुरू हुआ और न ही रक्षा मंत्रालय के हलफ़नामे से. यह पूरा मामला इसलिए विवाद में आया, क्योंकि लेफ्टिनेंट जनरल सुहाग के ख़िलाफ़ लेफ्टिनेंट जनरल दस्ताने ने मुक़दमा किया है, जिसमें सुहाग को सेनाध्यक्ष बनाए जाने को फेवरिटिज्म कहा गया है. जनरल वी के सिंह ने एक ट्वीट क्या कर दिया, राजनीतिज्ञों का एक वर्ग उनका इस्तीफ़ा मांगने के लिए मैदान में कूद पड़ा. देश के महान टीवी पत्रकारों ने भी हुआ-हुआ करना शुरू कर दिया, इस्ती़फे की मांग करने लगे. उन्होंने यह भी नहीं सोचा कि जनरल वी के सिंह का इतिहास क्या है? उनका इतिहास यही है कि वह देश में रक्षा क्षेत्र में बैठे हथियार दलालों और माफिया के ख़िलाफ़ लड़ते आए हैं. आज तक किसी सेनाध्यक्ष ने हथियार माफिया से लड़ने या उनका पर्दाफ़ाश करने का काम नहीं किया. यह स़िर्फ और स़िर्फ जनरल वी के सिंह थे, जिन्होंने हथियार माफिया को सेना से भगाया, उन्हें एक्सपोज किया. नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस पार्टी ने जनरल वी के सिंह की जन्म तिथि को विवाद बनाकर एक साल पहले ही उन्हें पद से हटा दिया. रक्षा मंत्रालय में सब कुछ ठीक नहीं है, यह भ्रष्टाचार का अड्डा बन चुका है. जनरल वी के सिंह जब सेनाध्यक्ष थे, तब उन्होंने कई घोटालों का पर्दाफ़ाश किया, हथियार माफिया को रोका और कई जांचों में मदद की, जिसकी वजह से सुखना लैंड स्कैम, टाट्रा ट्रक और आदर्श सोसायटी घोटाले का पर्दाफाश संभव हो सका. मोदी सरकार को रक्षा मंत्रालय की साफ़-सफ़ाई करने की ज़रूरत है. रक्षा मंत्री, सेनाध्यक्ष और अन्य वरिष्ठ पदों पर ऐसे लोगों को बैठाने की ज़रूरत है, जो भ्रष्टाचार से लड़ सकें. नई सरकार कहती है कि अगले सेनाध्यक्ष वही होंगे, जिन्हें कांग्रेस सरकार ने चुना है, लेकिन उनके ख़िलाफ़ कुछ मामले कोर्ट में चल रहे हैं. अब जब सारा मामला कोर्ट में है, तो सुप्रीम कोर्ट सर्वशक्तिमान है, न्याय का आख़िरी मंदिर है. सच और झूठ, सही और ग़लत पर आख़िरी मुहर यहीं लगती है. यहां जो ़फैसला होगा, वह तो सर्वमान्य होगा. जैसा कि आदर्श सोसायटी घोटाले में हुआ, जैसा कि जनरल वी के सिंह की जन्म तिथि के मुद्दे पर हुआ. कोर्ट का ़फैसला तो मानना ही पड़ता है. इस मामले में भी वही माना जाएगा, जो अदालत तय करेगी. लेकिन, यह कहानी उन लोगों के लिए है, जो नैतिकता की दुहाई देकर सेनाध्यक्ष की नियुक्ति को राजनीति से दूर रखने की बात करते हैं. जिन्हें यह नहीं पता कि देश में एक जीवंत हथियार माफिया है, यह एक शक्तिशाली लॉबी है, जो हर रक्षा सौदे में अपना दख़ल रखती है. जो उसके ख़िलाफ़ एक शब्द भी बोलता है, उसे मीडिया एवं नेताओं का विरोध झेलना पड़ता है. जैसा कि जनरल वी के सिंह की जन्म तिथि के मुद्दे पर हुआ था. मोदी सरकार से उम्मीद थी कि वह हथियार माफिया के ख़िलाफ़ एक्शन लेगी, हथियारों की सौदेबाजी में पारदर्शिता लाएगी, लेकिन पहले ही मामले में मोदी सरकार ने जिस तरह पलटी मारी है, उससे यही लगता है कि हथियार माफिया पहले से ज़्यादा मजबूत हो गया है. नरेंद्र मोदी जी, देश की जनता ने आपको इसलिए वोट नहीं दिया कि आप कांग्रेस के फैसलों को देश में लागू करें. - See more at: http://www.chauthiduniya.com/2014/06/hathiyar-mafia-rajneeti-or-sena.html#sthash.JX6galsT.dpuf

संसद की मंशा को नज़रंदाज़ करती नौकरशाही

शेष नारायण सिंह
सोलहवीं लोकसभा के गठन के साथ देश में नई सरकार बन गयी है। यह सरकार कई मायनों में ऐतिहासिक है। पहली बार केंद्र में ऐसी सरकार बनी है जिसका प्रधानमंत्री सच्चे अर्थों में गैर कांग्रेसी है और उसकी पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला है। इसके पहले अटल बिहारी वाजपेयी इकलौते गैरकांग्रेसी प्रधानमंत्री थे लेकिन उनकी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला था। इस सरकार और संसद के सदस्यों को आगाह रहना चाहिए कि अगर ज़रा सा भी ग़ाफिल पड़े तो नौकरशाही आम जनता के स्पष्ट जनादेश से चुनकर आयी सरकार की मंशा को भोथरा करने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी। संसद द्वारा एक्ट पास करने के बाद इस एक्ट के आधार पर नियमावली बनाने की प्रक्रिया में आने वाली अडचनों से सांसदों और प्रधानमंत्री को सचेत रहना होगा।
संसद भारत की सर्वोच्च संस्था है। देश की सरकार और अन्य सभी संस्थाएं संसद के प्रति ही जवाबदेह हैं। देश का राजकाज संसद के नियम कानून से ही चलता हैं। भारतीय सविधान में ऐसी व्यवस्था है कि देश की सभी संस्थाओं को अपना कार्य नियमानुसार करना पड़ता है। संसद का यह भी ज़िम्मा है कि वन यह सुनिश्चित करे कि संसद की तरफ से बनाये गए कानून का पालन होता रहे। संसद द्वारा पारित किसी भी एक्ट के हिसाब से नियम क़ानून बनाने का काम संसद ने सरकार को दे रखा है। सरकार का ज़िम्मा है कि वह संसद की तरफ से पास हुए सभी कानूनों को लागू करने के लिए नियम बनाए क्योंकि संसद का कोई भी एक्ट एक अमूर्त अवधारणा है। उसको लागू करने के लिए ज़रूरी नियम होने चाहिए। यही काम सरकार को अपने मंत्रालयों के ज़रिये करवाना होता है। लेकिन देखा यह गया है कि कई बार तो संसद के दोनों सदनों से पास होकर एक्ट दस से भी ज़्यादा साल तक पड़े रहते हैं। सम्बंधित मंत्रालय नियम नहीं बनाता। सरकारें आती जाती रहती हैं लेकिन संसद की गरिमा की अनदेखी होती रहती है। संसद में पारित एक्ट के हिसाब से जो नियम बनते हैं उनको अधीनस्थ विधान कहते हैं। हर मंत्रालय का ज़िम्मा है कि अगर उसके सम्बंधित विभागों के बारे में कोई विधेयक पास होता है तो वह अधीनस्थ विधान बनाए और उसको लेकर संसद के सामने पेश हो। उस विधान को भी संसद की मंजूरी मिलती है। जब अधीनस्थ विधान संसद में पेश किया जाता है तो माना जाता है कि संसद ने उसको देख लिया है और वह नियम संसद की तरफ से मंजूरशुदा मान लिया जाता है। लेकिन साल भर में जो सैकड़ों एक्ट पास होते हैं, उनके आधार पर बने हुए कानून को पूरी तरह से जांच करने की संसद में ऐसी व्यवस्था नहीं है कि हर नियम का बारीकी से अध्ययन किया जाए और अगर उसमें कोई खामी पाई जाए तो सरकार को संसद की तरफ से हुक्म दिया जाए कि अधीनस्थ विधान में ज़रूरी बदलाव करके उसको संसद में पारित हुए एक्ट के हिसाब से बनाकर लाया जाए। इसके लिए संसद के दोनों सदनों में अधीनस्थ विधान संबंधी एक कमेटी होती है जिसकी ड्यूटी होती है कि वह यह देखे कि जो कानून बन कर आया है, वह एक्ट के हिसाब से है कि नहीं। आम तौर पर पंद्रह सदस्यों की इस कमेटी के पास इतना समय नहीं होता कि वह सभी नियमों को देखे। इसलिए रैंडम तरीके से कुछ नियमवालियां ले ली जाती हैं, या अगर किसी सूत्र से पता चल जाता है कि मंत्रालय के अधिकारी गड़बड़ कर रहे हैं तो अधीनस्थ विधान की कमेटी संज्ञान लेती है और जांच के बाद संबन्धित मंत्रालय को आदेश देती है कि अधीनस्थ विधान को संसद के विधेयक के हिसाब से बनाकर लाओ। लेकिन ऐसा हो बहुत कम पाता है। नतीजा यह होता है कि नब्बे प्रतिशत मामलों में ऐसे कानून बन जाते हैं जो संसद में पारित एक्ट के अनुसार नहीं होते।
इस सारी प्रक्रिया की जानकारी रखने वाले संसद के अन्दर के जानकारों ने बताया है कि अक्सर देखा गया है कि संसद कोई भी एक्ट पास कर ले मंत्रालय के अधिकारी लोग ऐसा नियम बना देते हैं जो एक्ट के हिसाब से बिलकुल नहीं होता। कई बार तो यह नियम वास्तव में एक्ट के खिलाफ होते हैं।
यह कोई नई बात नहीं है। यह करीब पचास साल से चल रहा है। राज्य सभा में 24 मार्च 1971 के दिन पेश की गयी अपनी नौवीं रिपोर्ट में राज्यसभा की अधीनस्थ विधान की कमेटी ने लिखा था कि संसद से एक्ट पास होने के बाद जल्द से जल्द नियमावली बन जानी चाहिए लेकिन किसी भी हाल में यह समय सीमा छः महीने से ज़्यादा नहीं होनी चाहिए। अपनी दसवीं रिपोर्ट में कमेटी ने कहा कि अगर ऐसी हालात पैदा हो जाएँ कि छः महीने में नियम नहीं बन पा रहे हैं तो मंत्रालय के सेक्रेटरी को चाहिए कि वह संसद को अवगत करा दे और स्पष्ट तौर पर देरी के कारणों की जानकारी दे। लेकिन सरकार के मंत्रियों और सचिवों के रवैय्ये के कारण अधीनस्थ विधान बनाने में देरी की बातों को कम नहीं किया जा सका। 1981, 2001 और 2011 में दी गयी रिपोर्टों से भी साफ़ जाहिर है कि सरकारें संसद की गरिमा को वह महत्व नहीं देतीं जो उनको देना चाहिए। सवाल यह उठता है कि अगर संसद में पारित हुए कानून के हिसाब से देश का राजकाज इस लिए नहीं चल पा रहा है कि मंत्री या उनके विभाग के सेक्रेटरी अपनी ड्यूटी सही तरीके से नहीं कर रहे हों तो यह बहुत ही दुर्भाग्य की बात है।
राज्यसभा की ताज़ा रिपोर्ट से भी इस तरह की बहुत सारी घटनाओं की जानकारी मिलती है कई मामलों में तो विलम्ब दस साल से भी ज्यादा का है। राजग सरकार के वक़्त 2001 में एक एक्ट पास हुआ था। प्रोटेक्शन ऑफ फ़ार्म वराईटीज़ एंड फार्मर्स राइट्स एक्ट 2001। रिपोर्ट लिखे जाने तक नियमावली नहीं बनी थी। कृषि मंत्रालय की तरफ से सात बार समय बढ़ाने की प्रार्थना की गयी लेकिन 2012 में जब मंत्रालय का अफसर तलब किया गया तो उन्होंने बताया कि ज्यादातर नियम बन चुके हैं, कुछ नहीं बने हैं क्योंकि यह बहुत ही विशेष जानकारी पर आधारित एक्ट है इसलिए समय लग रहा है। कमेटी ने रिपोर्ट में लिखा है कि इसके बावजूद भी एक दशक का समय बहुत ज़्यादा है। यानी सरकार के कृषि मंत्रालय के गैरजिम्मेदार रुख के कारण इतना ज़रूरी एक्ट पास हो जाने के बार भी ठन्डे बस्ते में पड़ा रहा। इस दौर में अजित सिंह, राजनाथ सिंह और शरद पवार कृषि मंत्री रहे लेकिन संसद के इस एक्ट की परवाह किसी को नहीं थी। यह तो कुछ नहीं है। अधीनस्थ विधान की कमेटी ने अपनी 99वीं रिपोर्ट में पर्यावरण और वन मंत्रालय से पूछा था कि खतरनाक केमिकल्स की पैकेजिंग के बारे में जो 1989 में नियम बनाए गए थे, उनके बारे में कमेटी की रपोर्ट में सुझाए गए आदेशों को क्यों नहीं ठीक किया गया।  यानी बीस बीस साल तक सरकार के मंत्रालय कुछ करते ही नहीं। यह विभाग संविधान में संशोधन करके केंद्र सरकार के पास विशेष अधिकार लेकर बनाया गया था। इसका मकसद देश के पर्यावरण की रक्षा के साथ-साथ आम आदमी की ज़िंदगी को भी बेहतर बनाना था। चौथी पंचवर्षीय योजना में पर्यावरण के मुद्दों को ध्यान में रखकर समग्र विकास की बात की गयी थी। 1976 में संविधान में संशोधन करके अनुच्छेद 48 ए जोड़ा गया। संविधान में लिखा है कि “सरकार का प्रयास होगा कि पर्यावरण की रक्षा करे और उसमें सुधार करे तथा देश के पर्यावरण और वन्यजीवन की रक्षा करे” इसी के तहत वन्यजीवन और वन विभाग को केंद्र सरकार के अधीन संविधान की कान्करेंट लिस्ट में लिया गया और राज्यों के कार्यक्षेत्र के ऊपर अधिकार दिए गए। उसके बाद 1980 में पर्यावरण और वन मंत्रालय बना। तब से अब तक की सभी सरकारों ने पर्यावरण को बहुत महत्व दिया। सभी पर्यावरण मंत्री पूरी दुनिया में घूमते रहे। पर्यावरण दुरुस्त करने की बहसों में शामिल होते रहे लेकिन अपनी संसद की इच्छा को सम्मान देने की जहां बात आयी वहां ज़रूरी नियम कानून तक नहीं बना सके।
संसद की लाइब्रेरी में ऐसी बहुत सारी रिपोर्टें रखी हैं जिनमें संसद की भावना का सम्मान न करने की बहुत सारी जानकारियाँ हैं। मौजूदा सरकार अगर अपने मंत्रालय के अधिकारियों से यही काम करवा सके तो बड़ी बात होगी।
About शेषनारायण सिंह
शेष नारायण सिंह, लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक हैं। वह इतिहास के वैज्ञानिक विश्लेषण के एक्सपर्ट हैं। नये पत्रकार उन्हें पढ़ते हुये बहुत कुछ सीख सकते हैं। शेषजी हस्तक्षेप.कॉम के संरक्षक व देशबंधु के राजनीतिक संपादक हैं।