राजनीति को क्या ‘परिवारों’ से मुक्ति मिलेगी?
खुदा न खास्ता 16 मई के बाद दिल्ली में मोदी सरकार बन जाए तो क्या होगा? हिन्दुत्व से ओत-प्रोत सरकारी फैसले होने लगेंगे? मुसलमानों का जीना मुश्किल हो जाएगा? निरंकुश और अहंकारी व्यवस्था कायम हो जाएगी? ये काल्पनिक सवाल हैं. पहले हमें देखना होगा कि परिणाम क्या होते हैं. पर ऐसा हुआ भी तो याद करें कि सन 1998 और फिर 1999 में बनी भाजपा-नीत दो सरकारों का अनुभव हिंसक, उग्र और बर्बर नहीं था. पर तब प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी थे, नरेंद्र मोदी नहीं. गुजरात में सन 2002 के तीन या चार दिनों को छोड़ दें तो मोदी सरकार के काम-काज में निरंकुशता और बर्बरता का वह रूप नजर नहीं आया, जिसकी चेतावनी दी जा रही है. फिर भी कहा जा सकता है कि केंद्रीय सत्ता पर ‘संघ परिवार’ का कब्जा होगा.
यदि परिणाम भाजपा के पक्ष में नहीं रहे, तब क्या होगा? शायद यूपीए-3 की सरकार बने या कांग्रेस के समर्थन से तीसरे मोर्चे की सत्ता आए. इस स्थिति में और हो या न हो, पर इतना तय है कि तब केंद्रीय सत्ता पर ‘नेहरू-गांधी परिवार’ का कब्जा होगा. इस साल जनवरी में ‘मैं नहीं हम’ के जिस नारे के साथ कांग्रेस ने अपने प्रचार की शुरूआत की थी, संयोग से फरवरी 2011 में गुजरात के मेहसाणा में भाजपा के चिंतन शिविर में नरेंद्र मोदी ने हूबहू इसी नारे के साथ अपने अभियान की शुरूआत की थी. केवल नारों और आर्थिक कार्यक्रमों पर जाएं तो दोनों पार्टियों में खास अंतर नजर नहीं आता. हाँ भाजपा का ‘हिन्दू राष्ट्रवाद’ कांग्रेस के ‘उदार बहुरंगी समाज’ के मुकाबले संकीर्ण और कट्टरपंथी है. कांग्रेस की अवधारणाएं आजादी से पहले की हैं, पर तब मुस्लिम लीग उसे कट्टरपंथी हिन्दू पार्टी के रूप में देखती थी. जबकि आजादी के बाद कांग्रेस पर मुस्लिम तुष्टीकरण का आरोप लगा. कांग्रेस के शासन में मुसमानों का हित हुआ या नहीं, विचार का एक अलग विषय है.
सत्ता की राजनीति में राजनीतिक शक्तियों के अंतर्विरोधी स्वरूप को देखने की जरूरत भी होती है. आज की स्थिति में हम खुद को मोदी या कांग्रेस के या तो नितांत विरोधी या कट्टर समर्थक के रूप में देखने के आदी हो गए हैं. दोनों में से किसी एक की सरकार बनने की स्थिति में हम खुद को पराजित या विजेता महसूस करते हैं. सच यह है कि सरकार जिसकी भी बने उसे एक विशाल-विविधता भरे भारत को सम्हालना होगा. इसके लिए उसे नजरिया व्यापक बनाने की जरूरत होगी. मोदी की तुलना में हमें अटल बिहारी वाजपेयी अपेक्षाकृत उदार लगते हैं. यह दृष्टिकोण उनकी सरकार के छह साल के अनुभव के आधार पर हमें ऐसा लगता है. कहना मुश्किल है कि मोदी का नजरिया क्या होगा, पर अनुभव कहता है कि मोदी को भी अटल बिहारी की राह पर चलना होगा.
सन 2002 के बाद से नरेंद्र मोदी ने भी कुछ सबक हासिल किए हैं. खासतौर से उन्होंने अपनी कट्टर हिन्दू की छवि से बचने की कोशिश की है. इस कोशिश में ‘संघ परिवार’ से उन्होंने टकराव भी मोल लिया. नवम्बर 2008 में मोदी सरकार ने गुजरात के तकरीबन 90 मंदिरों को गिराया तो विश्व हिन्दू परिषद ने उनके खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया था. नरेंद्र मोदी को बाबर और औरंगजेब की उपाधि भी मिली. अंततः मोदी को वह अभियान बंद करना पड़ा, पर इतना नजर आया कि मोदी अपनी कट्टर छवि से भाग रहे हैं. कहना मुश्किल है कि मोदी सरकार दिल्ली में आई तो वह कट्टरता को प्रश्रय देगी या नहीं. कहा जा सकता है कि वह परोक्ष रूप में ‘संघ परिवार’ के ‘हिडन एजेंडा’ को लागू करेगी. पर सच यह है कि भाजपा को ‘संघ परिवार’ के नजरिए से चलेगी तो वह देश पर राज नहीं कर सकेगी. एक दौर में लालकृष्ण आडवाणी की छवि कट्टरपंथी नेता की थी. पर 4 जून 2009 को कराची की उमस भरी, तपती, चिपचिपाती गर्मी की दोपहर में आडवाणी जी ने पाकिस्तान में जिन्ना की मजार पर जो भाव व्यक्त किए, उससे भारत में ‘संघ परिवार’का पारा चढ़ गया और अंततः आडवाणी जी को पार्टी अध्यक्ष का पद छोड़ना पड़ा. संघ परिवार और भाजपा हमेशा सुर में सुर मिलाकर नहीं चल सकते.
सन 2009 के आम चुनाव के पहले इतिहासविद् रामचंद्र गुहा ने एक जगह लिखा था कि भारत को ‘संघ-विहीन भाजपा’ और ‘खानदान-विहीन कांग्रेस’ की जरूरत है. यानी एक ओर दक्षिणंथी और दूसरी ओर वामपंथी झुकाव वाली पार्टी की जरूरत है. आज के हालात में ऐसा सम्भव नहीं लगता. वामपंथी दलों को छोड़ दें तो यों भी पूरे देश की राजनीति किसी न किसी परिवार के शिकंजे में रहना पसंद करती है. हम इन्हें व्यक्तियों या परिवारों के नाम से जानते हैं. मायावती के बगैर बसपा क्या है? ममता बनर्जी, मुलायम सिंह, चन्द्रबाबू नायडू, शरद पवार, उद्धव ठाकरे, ओम प्रकाश चौटाला, अजित सिंह, प्रकाश सिंह बादल, एचडी देवेगौडा, जगनमोहन रेड्डी, फारूक अब्दुल्ला, महबूबा मुफ्ती, लालू यादव, राम विलास पासवान, मौलाना बद्रुद्दीन अजमल, नवीन पटनायकऔर कुलदीप बिश्नोई पार्टी के समानार्थी हैं. एकदम पुराने सामंतों की तरह. बात सिर्फ इतनी नहीं है कि पिता के व्यवसाय की तरह बेटा भी उसी काम को अपनाए. इन क्षत्रपों के खिलाफ सामंती दौर जैसी बगावतें भी होती हैं और वे कुचली भी जाती हैं. जैसे हाल में नवीन पटनायक ने एक बगावत को कुचला. दिक्कत यह है कि जैसे ही राजनीति ‘लोकतांत्रिक मोड’ में आती है वह अतिशय लोकतंत्र की शिकार हो जाती है. मिसाल है ‘जनता परिवार.’
भारतीय राष्ट्र-राज्य ‘धर्म-निरपेक्ष आधुनिक लोकतंत्र’ का महत्वपूर्ण ध्वजवाहक है. पर हमारा समाज अभी अनेक मध्य-युगीन अवधारणाओं से चिपका है. धर्म, जाति और क्षेत्र की पहचान आसानी से मिटाई नहीं जा सकती. उसका आधुनिकता से अंतर्विरोध है. राज-व्यवस्था के संचालक के रूप में पार्टी को देश की संवैधानिक सीमाओं के भीतर रहकर काम करना होगा, भले ही उसका दृष्टिकोण सामंती हो, जैसे भाजपा. इसके विपरीत कांग्रेस भले ही कितने आधुनिक मूल्यों का हवाला दे, वह एक खानदान के सहारे है. सन 1991 में पीवी नरसिंहराव की सरकार बनते वक्त लगा था कि कांग्रेस ने इस बैरियर को पार कर लिया है. पर घूम-फिरकर कहानी वहीं वापस आ गई. एक सम्पूर्ण राज-व्यवस्था के रूप में हम आधुनिक हैं, पर इसके भीतर तमाम अनसुलझी पहेलियाँ हैं. इन पहेलियों को शिक्षित, सजग और जागरूक नागरिक ही सुलझाएंगे.
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