मनमोहन सिंह अंग्रेजी में बोलते थे और नरेंद्र मोदी हिदी में बोलते हैं। मनमोहन सिंह की विद्वत्ता को लेकर संदेह नहीं, पर जनता को अपनी भाषा में बात समझ में आती है। गृह मंत्रालय के एक अनौपचारिक निर्देश को लेकर जो बात का बतंगड़ बनाया जा रहा है उसके पीछे वह साहबी मनोदशा है, जो अंग्रेजी के सिंहासन को डोलता हुआ नहीं देख सकती। हाल में बीबीसी हिंदी की वैबसाइट पर एक आलेख में कहा गया था, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के शपथ ग्रहण समारोह के समय की एक तस्वीर में प्रधानमंत्री के साथ राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी, अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति हामिद करज़ई,पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ और भूटान के राजा जिग्मे खेसर नामग्याल वांगचुक एक साथ एक गोल मेज़ के इर्द-गिर्द बैठे हैं।
आलेख में लेखक ने पूछा है, वे आपस में किस भाषा में बात कर रहे थे? अंग्रेज़ी में नहीं बल्कि हिंदी में। अगर मोदी की जगह मनमोहन सिंह होते तो ये लोग किस भाषा में बातें कर रहे होते?किसी और भाषा में नहीं, बल्कि अंग्रेज़ी में। मोदी अब तक प्रधानमंत्री की हैसियत से विदेशी नेताओं से जितनी बार मिले हैं उन्होंने हिंदी भाषा का इस्तेमाल किया है।
जन-भाषा सोशल मीडिया की भाषा
भाषा को लेकर हमारे विचार करने की घड़ी अब आ रही है। इसमें दो राय नहीं कि अंग्रेजी ज्ञान और विज्ञान की भाषा है। बैर उससे नहीं साहबियत से है। हमें अंग्रेजी पढ़नी ही चाहिए। हिंदी का देश की किसी क्षेत्रीय भाषा से बैर नहीं है, बल्कि भारतीय भाषाएं एक-दूसरे की बहनें हैं। राष्ट्रीय महत्व के सवालों पर जनता की भाषा में बात होगी तो व्यवस्था पारदर्शी बनेगी। गृह मंत्रालय ने अपने अधिकारियों निर्देश दिया था कि वे फ़ेसबुक, ट्विटर, ब्लॉग, गूगल और यू ट्यूब जैसी सोशल मीडिया साइटों पर हिंदी को प्राथमिकता दें।
सवाल है कि वे जनता से जुड़ने के लिए किस भाषा में संवाद करें? यह संवाद केवल अंग्रेजी में नहीं हो सकता। वह तमिल, तेलगु, कन्नड़, मलयालम, बांग्ला, मराठी, गुजराती, असमिया और ओडिया सहित किसी भी भारतीय भाषा में होगा तो जनता को बेहतर समझ में आएगा। अभी देश में बड़ी संख्या में ऐसे गैर-हिंदी भाषी हैं जो अंग्रेजी नहीं समझते, हिंदी समझ लेते हैं। गृह राज्यमंत्री किरण रिजूजू इसके अच्छे उदाहरण हैं, जो खुद अरुणाचल से ताल्लुक रखते हैं।
तमिलनाडु का विरोध क्यों?
बहरहाल सोशल मीडिया पर हिंदी के इस्तेमाल की खबर को लेकर तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे जयललिता और द्रमुक सुप्रीमो एम करुणानिधि ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखकर अपना विरोध दर्ज कराया है। पत्र में जयललिता ने लिखा है कि 1968 में हुए संशोधन के तहत अस्तित्व में आए आधिकारिक भाषा एक्ट 1963के अनुच्छेद 3(1) में कहा गया है कि केंद्र और ग़ैर हिंदीभाषी राज्यों के बीच संवाद के उद्देश्य से अंग्रेज़ी भाषा का उपयोग किया जाएगा। पर सरकारी निर्देश में ऐसी कोई बात तो है नहीं कि तमिलनाडु से केंद्र अंग्रेजी के बजाय केवल हिंदी में पत्राचार करेगा।
जयललिता यह भी चाहती हैं कि सोशल मीडिया पर होने वाले संवाद की भाषा अंग्रेज़ी बनाए रखी जाए। इसका क्या मतलब है? कया वे केवल अंग्रेजी का इस्तेमाल चाहती हैं? ऐसा है तो गलत है। सरकार अंग्रेजी में भी संवाद करे, इसमें किसी को आपत्ति नहीं। पर हिंदी में न करे, इसपर हमें आपत्ति है। हिंदी देश की राजभाषा है और काफी बड़े इलाके के लोगों की समझ में आने वाली भाषा है। बेशक तमिल समेत आठवीं अनुसूची में शामिल सभी भाषाएं महत्वपूर्ण हैं। उनके इस्तेमाल पर भी किसी को आपत्ति नहीं। पर हिंदी का इस्तेमाल हिंदी थोपना कैसे माना जा सकता है?
एचएमटी के अच्छे दिन
हाल में एक अंग्रेजी अखबार ने लिखा कि भारत में हिंदी मीडियम टाइप (एचएमटी) लोगों के अच्छे दिन आ रहे हैं। यानी हिंदी मीडियम पढ़ाई करने वालों की इज्जत बढ़ने वाली है। इसमें गलत क्या है? यह वह नया युवा वर्ग है जो गाँवों और कस्बों से बाहर आ रहा है। उसके मन में उम्मीदें और सपने हैं। नरेंद्र मोदी उसके सपनों को ही तो जगाकर जीते हैं। वे उससे उसकी भाषा में बात करना क्यों बंद कर दें। खासतौर से तब जबकि वे बराक ओबामा से लेकर नवाज शरीफ तक से हिंदी में बात कर रहे हैं।
भाषा वास्तव में किसी पर थोपी नहीं जा सकती। यह बात तमिलनाडु में ही नजर आ रही है। हाल में तमिलनाडु हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की गई है जिसमें माँग की गई है कि स्कूली स्तर पर तमिल के अलावा दूसरी भाषाओं को भी पढ़ाया जाए। कर्नाटक में भी यह सवाल उठा है। यों भी अब केवल एक या दो भाषाओं का समय नहीं है। यूरोप में भी केवल एक भाषा से कम नहीं चलता। अंग्रेजी बेशक दुनिया भर में प्रचलित भाषा है, पर अब केवल अंग्रेजी में भी काम नहीं चलेगा। भाषा के सवाल पर संकीर्णता का त्याग किया जाना चाहिए। हमें कम से कम तीन भाषाओं को पढ़ने के लिए तैयार रहना चाहिए। उत्तर भारत के लोगों को हिंदी और अंग्रेजी के साथ एक भारतीय भाषा को और पढ़ना चाहिए। इससे संवाद का स्तर बढ़ेगा।
राजस्थान पत्रिका में प्रकाशित
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