शुक्रवार, 27 जून 2014

मोदी सरकार के अर्द्ध सत्य

30 दिन में जनता का हुलिया बिगाड़ने वालों को 60 साल मिले तो क्या हाल होगा
सुन्दर लोहिया
         मोदी की सरकार को जुम्मा जुम्मा एक महीना भी नहीं हुआ कि इसके अर्द्धसत्य प्याज़़ के छिलके की तरह पर्त दर पर्त खुलने शुरू हो गये हैं। वास्तव में पार्टी ने मोदी के समक्ष पूर्ण समर्पण करके जो हैसीयत पाई है उसमें उसका अपना राजनीतिक कद छोटा होता जा रहा है। पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह मोदी मन्त्रीमण्डल में नम्बर दो पर आने के लिए गुहार लगानी पड़ी तब लोकसभा में उनका स्थान प्रधानमन्त्री के बाद निर्धारित किया गया लेकिन अभी तक उपप्रधानमन्त्री की जगह किसी नेता का नाम नहीं आया है। यह फैसला भी मोदी को ही करना है क्योंकि सरकार उसकी है पार्टी को वोट सिर्फ मिले हैं। अब यही फार्मूला हरियाणा में कुलदीप बिशनोई चलाना चाहते थे इसलिए उन्होंने पार्टी की नई परिपाटी के अनुसार नारा दिया ‘अबकी बार कुलदीप सरकार’ तो पार्टी को आपत्तिजनक लगा और इसे तत्काल खारिज कर दिया। मतलब कि विशेषाधिकार पार्टी ने सिर्फ मोदी को दिया है।
अब एक नज़र नरेन्द्र मोदी की कार्य प्रणाली पर डालते हैं। मनमोहन सरकार के देरी से फैसले लेने की आलोचना अमेरिकी मीडिया और भाजपा के प्रघानमन्त्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी बराबर करते रहे हैं। इसके दरुस्तीकरण की प्रक्रिया में जो प्रणाली अपनाई गई इस पर नज़र डालिए:- नरेन्द्र मोदी फाइल पढ़ते नहीं सुनते हैं। फाइल में उनके मुताबिक अनावश्यक विस्तार होता है इसलिए वे सचिव से फाइल की विषयवस्तु का सारसंक्षेप सुन कर तत्काल अपना निर्णय दर्ज करवा देते हैं। इससे फाइलों के निपटारे में तो तेज़ी अवश्य आई है लेकिन फैसला लिखित जानकारियों में से केवल उन जानकारियों तक सीमित हो गया जो सुनाते समय सचिव को याद आई या जिसे सचिव ने बताना ज़रुरी समझा। इस प्रकार से सरकारी फैसले अब मन्त्री के बजाये सचिव के विवेक और स्मृति पर निर्भर हो गये।
लोकतान्त्रिक प्रणाली में मन्त्रिमण्डल को सामूहिक फैसले लेने की जिम्मेवारी सौम्पी जाती है और प्रधानमन्त्री कोफर्स्ट अमंग द इक्वल माना जाता है। लेकिन मोदी की कार्य प्रणाली इसके उल्ट है। यहां प्रधानमन्त्री सर्वेसर्वा है जैसे इराक में फंसे भारतीयों की रिहाई के मामले को विदेशमन्त्री सुषमा स्वराज के बजाय प्रधानमन्त्री खुद निपटायेंगे। वैसे इस मसले में नरेद्र मोदी जब ‘ मैं हूं न’ की शैली में आकर कहें कि अब मैं इस मामले को खुद देखूंगा तो उसका मतलब यह भी निकलता है कि यह सुषमा के बूते की बात नहीं है। किसी भी मन्त्री के लिए ऐसी स्थिति गौरव की बात नहीं हो सकती।
मोदी मन्त्रीमण्डल के मन्त्रियों की अवमानना का एक और मोदी फार्मूला है जिसके अनुसार किसी भी मन्त्रालय की कार्ययोजना पीएमओ की स्वीकृति के बिना लागू नहीं हो सकती। इसलिए हर फाइल पीएमओ की नज़रसानी के बाद जब वापिस जायेगी तो उसे मन्त्री को दिखाने यानि उसकी सहमति लेने की ज़रूरत नहीं रखी है। इसके समर्थन में तर्क दिया गया है कि इससे क्रियान्वयन में देरी नहीं होगी। लेकिन यह तब सम्भव है जब मन्त्री और प्रधानमन्त्री की इस पर बातचीत हो चुकी हो। अन्यथा मतभेद किसी भी स्तर पर पैदा हो सकते हैं। मोदी यह छुपाना चाहते हैं कि उनके यहां मतभेद की गुंजाइश नहीं है। लेकिन यह  व्यावहारिक नहीं है। इससे निर्णय केवल पीएमओ तक सीमित हो गये यानि जो इस दफतर से जायेगा उसे कोई रोक नहीं सकता। रोकना ज़रूरी नहीं होता लेकिन आदेश को समझना उसकी अनुपालना के लिए आवश्यक होता है और इस प्रक्रिया में सम्बन्धित मन्त्री को उसके सचिव से ही पता चल सकता है कि प्रधानमन्त्री की उसके प्रस्ताव पर किस प्रकार की प्रतिक्रिया व्यक्त की है। वह मन्त्री की सोच के मुताबिक है या नहीं इससे अब फर्क नहीं पड़ सकता फाइल कारवाई के लिए सम्बन्धित अधिकारियों के पास पंहुचाई जा चुकी होती हैं।
भाजपा विपक्ष में हो चाहे सत्ता में वह अपनी गलतियों को मानने के बजाय कांग्रेस को यह कह कर कोसती रही है कि कांग्रेस ने भी ऐसा किया था। मसलन अगर कहें कि भाजपा में भ्रष्ट नेता शामिल हैं तो उसका जबाब होगा कांग्रेस में पूरा कुनबा ही भ्रष्ट है। इसका अर्थ यह ध्वनित होता है कि भ्रष्टाचार तो होता रहेगा चाहे कांग्रेस हो चाहे भाजपा। इस तरह चुनाव अभियान का एक बड़ा मुद्दा यानि भ्रष्टाचार तो मोदी सरकार के एजेण्डे से निकल गया। दूसरा बड़ा मुद्दा था मंहगाई, जिसे रेल भाड़ा बढ़ाने के प्रस्ताव से दरकिनार किया जा रहा है। वित्त मन्त्री का बयान आता है कि रेलवे सफेद हाथी हो गया है उसे सुधारने के लिए किराया बढ़ाने की ज़रूरत पड़ गई है। गैस और पैट्रोल की कीमतें भी जैसे तैसे बढाई जायेंगी क्योंकि पार्टी को चंदा देने वाली कम्पनियों की भरपाई तो करनी ही पड़ेगी। रिलांयस को लेकर कांग्रेस सरकार ने ईमानदार मन्त्री जयपाल रैड्डी को हटाकर मोइली स्थापित किया जिसने रेड्डी की फाईल जिसमें कम्पनी पर अनुबन्ध के मताबिक काम न करने के ऐबज़ में करोड़ों रूपये वसूल करने की सिफारिश की थी उसे ठण्डे बस्ते में डाल दिया। जनता को मोदी से उम्मीद है कि वह भ्रष्टाचार मिटाने के अपने संकल्प को पूरा करने के लिए ऐसी कम्पनियों को सज़ा देने के लिए सर्वोच्च न्यायालय में लम्बित मामलों को जनहित के दृष्टि से त्वरित अदालतों का गठन करवाते तो महंगाई और भ्रष्टाचार पर काबू पाया जा सकता है। क्योंकि मोदी कम्पनियों को नाराज़ नहीं कर सकते और जनता इस समय बिखरी हुई है इसलिए मह्रंगाई डायन अब जो भी बाकी बचा है उसे खा जायेगी। अभी साठ दिनों में ही जनता का हुलिया इस कदर बिगाड़ने वाली सरकार साठ साल मिलने पर क्या करेगी इसे सोच कर होश उड़ जाते हैं।
योगगुरु की साधनावस्था में जो ज्ञानचक्षु खुला तो उसने देखा कि जो सपना वह कई सालों से लोगों में बांटता आ रहा था वह पूरा हो गया। उसका सपना है कि विदेशों में जो कालाधन भारतीयों ने जमा करवा रखा है वह मोदी सरकार के प्रयत्नों से वापिस आ रहा है मानों मोदीजी ने योगगुरु की आंतरिक अभिलाषा को पूरा कर दिया है इसलिए उनके श्रीमुख से उच्चरित हुआ मोदी सरकार की पहली जीत है। अब बाबा को कौन बताये कि इस जीत में कांग्रेस सराकर की2011 की संधि का योगदान है जिसके तहत स्विस सरकार उन भारतीय  खाताधारकों की सूची सौम्पेगी जिन्होंने2011 के बाद वहां पैसा जमा करवाया है। सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश के अनुसार गठित एसआईटी को संदिग्ध लोगों की सूची देनी होगी तब बैंक उन्हें आगे की कारवाई के विकल्प देगा। इसमें नरेन्द्र मोदी की सरकार का इतना सा काम है कि यह कारवाई उनके कार्यकाल में सम्पन्न हो सकती है।
मोदी ने अपने बयानों में उन शब्दों का इस्स्तेमाल करना शुरु कर दिया है जिन्हें मनमोहन सिंह प्रायः दोहराया करते थे उनका तकिया कलाम ही बन गया था कि जनता को कड़े फैसलों के लिए तैयार रहना चाहिये। लेकिन हमारा इन दोनों से एक ही सवाल है कि देश की आर्थिक स्थिति सुधारने के लिए जो कड़े फैसले लिए जाते हैं वे जनता के हिस्से में ही क्यों डाले जाते हैं ? कुछ तो नेताओं अफसरों और कारपोरेट के सीइओ को भी बांटिये न। मसलन और कुछ नहीं तो सादा जीवन और उच्च विचार पर आचरण करने वाले स्वयंसेवक नरेन्द्र मोदी सांसदों और विधायकों को ऐशोआराम देनेवाली सुविधाओं जैसे मुफ्त रेलयात्रा टेलीफोन गैस बिजली पानी आदि को आधी भी हटा दें करोड़ों रूपये बचाये जा सकते हैं। लोगों को मालूम होना चाहिए कि उनके चुने हुए प्रतिनिधियों पर उनके टैक्स में से लगभग एक करोड़ रूपये प्रति सांसद प्रतिमाह खर्च किये जाते हैं। इन जन सेवकों को जनसेवा का पाठ पढ़ायेंगे तो आप मज़बूत प्रधानमन्त्री कहलाने के सच्चे हकदार भी सिद्ध हो सकते हैं।
About The Author
सुन्दर लोहिया, लेखक वरिष्ठ साहित्यकार व स्तंभकार हैं। आपने वर्ष 2013 में अपने जीवन के 80 वर्ष पूर्ण किए हैं। इनका न केवल साहित्य और संस्कृति के उत्थान में महत्वपूर्ण योगदान रहा है बल्कि वे सामाजिक जीवन में भी इस उम्र में सक्रिय रहते हुए समाज सेवा के साथ-साथ शिक्षा के क्षेत्र में भी काम कर रहे हैं। अपने जीवन के 80 वर्ष पार करने के उपरान्त भी साहित्य और संस्कृति के साथ सार्वजनिक जीवन में सक्रिय भूमिकाएं निभा रहे हैं। हस्तक्षेप.कॉम के सम्मानित स्तंभकार हैं।

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