-अरविंद कुमार सिंह||
पूर्वोत्तर भारत में खास तौर पर असम में 27 के 27 जिले बाढ़ की चपेट में आ गए हैं औऱ हालात बहुत ही खराब हो चुकी है। बीस लाख से ज्यादा लोग बाढ़ से विस्थापन की चपेट में हैं। असम
की बराक घाटी, त्रिपुरा, मिजोरम और मणिपुर का संपर्क देश के अन्य हिस्सों से पूरी तरह से कट गया है। वहां संचार सेवाएं भी डगमगा गयी हैं। रेलवे तंत्र को भी बाढ़ से काफी नुकसान पहुंचा है और रेल सेवाएं भी काफी इलाकों में ठप हो गयी हैं। सेना और वायुसेना के साथ स्थानीय प्रशासन बाढ़ राहत के कामों में लगा है। रस्म अदायगी के तौर पर बीते दौरों की तरह ही यूपीए अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी औऱ प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने असम का दौरा भी कर लिया और कुछ बैठकें भी कीं।लेकिन असली सवाल यह है कि तमाम दावों के बावजूद बाढ़ें विकराल क्यों होती जा रही हैं।
असम ही नहीं बिहार में भी कुछ हिस्से बाढ़ की चपेट में हैं और पड़ोसी पाकिस्तान, अफगानिस्तान, नेपाल औऱ बंगलादेश में भी कई हिस्सों में बाढ़ का प्रकोप दिख रहा है। अभी असली बाढ़ का संकट मानसून में आने वाला है जब करोड़ों ग्रामीणों को मुसीबतों का सामना करना पड़ सकता है। खास तौर पर यूपी,बिहार, बंगाल तथा असम में अधिक दिक्कतें आती हैं और फसलों के साथ तमाम आधारभूत ढांचा भी बुरी तरह प्रभावित होता है। जब समस्या गहराती है तो प्रदेश सरकारें भारत सरकार की ओर बाल फेंकती हैं और केंद्रीय सहायता की मांग करती हैं, जबकि केंद्र सरकार बाढ़ नियंत्रण को राज्यों का विषय बता कर कई बार कुछ सहायता दे भी देता है। लेकिन बाढ़ के साथ कमोवेश हर साल राहत के लिए मारामारी और लूट-पाट का नजारा दिख जाता है।
दरअसल देश के कई हिस्सों में बाढ़ और राहत दोनों ही स्थायी आयोजन हो गया है और इसमें आम आदमी भले ही डूबे या उतराए लेकिन अफसरों और नेताओं के लिए तो इसमें राहत लूट के बहाने बहुत कुछ कमाने का मौका मिल जाता है। बाढ़ का सबसे ज्यादा कहर दक्षिणी पश्चिमी मानसून ( 1 जून से 30 सिंतबर) के दौरान बरपता है।
भारत में 400 लाख हैक्टेयर का भारी भरकम क्षेत्र बाढ की आशंकाओं वाला माना जाता है। सिंचाई तथा बाढ़ नियंत्रण विशेषज्ञों का मानना है कि इसमें से 320 लाख हैक्टेयर क्षेत्र यानि करीब
80 फीसदी क्षेत्र को सुरक्षित बनाया जा सकता है। लेकिन राज्य सरकारों और केंद्र ने बाढ़ की समस्या के स्थायी नियंत्रण की दिशा में कोई भी ठोस पहल नहीं की। राज्य सरकारें संसाधनों की कमी का बहाना बनाते हुए बाढ़ के दौरान केवल राहत पर जोर देती है।
भारत में हर साल औसतन बाढ़ से 80 लाख हैक्टेयर इलाका बाढ़ से प्रभावित होती ही होता है और 37 लाख हैक्टेयर में खड़ी फसलों की भारी तबाही है। ऐसी हालत में उन किसानों की दशा का सहज आकलन किया जा सकता है जो बाढ़ से अपना घर-बार भी गंवा बैठते हैं। लेकिन बाढ़ में सबसे चिंता की बात यह है कि इससे सालाना 6 अरब टन खेती लायक जमीन भी बह जाती है। ऐसी जमीन की ऊपरी 7 इंच काफी महत्व की होती है। इस जमीन का नष्ट होना सालाना 60 लाख एकड़ कृषि भूमि का नष्ट होना माना जाता है।
देश के अधिकांश बाढ़ प्रवण क्षेत्र गंगा तथा ब्रहमपुत्र के बेसिन, महानदी, कृष्णा और गोदावरी के निचले खंडों में आते हैं। नर्मदा
और तापी भी बाढ़ प्रवण है। लेकिन असली संकट गंगा और ब्रहमपुत्र के बेसिन का है जिससे जुड़े राज्यों में बाढ़ हर साल आती है। इसी तरह उत्तर भारत के नगरीय इलाकों में भी मामूली बारिस के बाद तस्वीर भयावह बन जाती है।
राष्ट्रीय बाढ़ आयोग का एक पुराना आकलन है कि बाढ़ से सालाना क्षति एक खरब से ज्यादा की होती है। अब तस्वीर काफी बदल गयी है और क्षति भी बढ़ती जा रही है। 1952 -53 तक बाढ़ से कम क्षति होती थी पर 70 के दशक के बाद हालत बहुत खराब होते जा रहे हैं। असम, बिहार औऱ उत्तर प्रदेश के कई इलाकों में तो हालत सबसे ज्यादा खराब हो जाती है। 2004-05 की बाढ़ विभीषिका के बाद प्रधानमंत्री डा. मनमोहन सिंह ने केंद्रीय जल आयोग के अध्यक्ष की अध्यक्षता में 21 सदस्यीय विशेषज्ञों का कार्यबल बनाया जिसने बाढ़ तथा कटाव के निपटने के लिए कई उपायों को सुझाया। लेकिन जमीनी स्तर पर इस दिशा में कुछ ठोस काम होता नहीं नजर आया। इसके पूर्व तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने 1972 में गंगा बाढ़ नियंत्रण आयोग गठित किया था। गंगा बेसिन की सभी 23 नदियों की प्रणाली का व्यापक अध्ययन कर नियंत्रण प्रणालियों के लिए मास्टर योजनाएं भी बनायी गयीं। श्रीमती गांधी ने ही ब्रहमपुत्र, बराक और उसकी सहायक नदियो के लिए ऐसी ही मास्टर योजनाए तैयार करने के लिए 1980 में ब्रहमपुत्र बोर्ड का गठन किया। ब्रहमपुत्र बोर्ड ने असम में धौला, हाथीघुली, माजुली दीप में गंभीर कटाव रोधी स्कीमें तथा पगलादिया बांध परियोजना शुरू की। 1998 में भी यूपी-बिहार की बाढ़ के बाद एक विशेषज्ञ समिति बनी थी। इन समितियों ने तमाम योजनाएं बना कर क्रियान्वयन के लिए राज्यों के पास भेजा।
सरकारों का दावा है कि बाढ़ से क्षति रोकने के लिए उपयुक्त सीमा तक संरक्षण प्रदान करने के लिए विभिन्न संरचनात्मक और गैर संरचनात्मक उपाय किए गए हैं। इसमें भंडारण रिजर्वोयर, बाढ़ तटबंध, ड्रेनेज चैनल, शहरी संरक्षण निर्माण कार्य, बाढ़ पूर्वानुमान तथा बंद पड़ी नालियों और पुलों को खोलना प्रमुख है। लेकिन नदी जोड़ो परियोजना को यूपीए सरकार ने ठंडे बस्ते में डाल दिया है। 5 लाख 60 हजार करोड़ लागत की इस भारी भरकम परियोजना के अपने खतरे तो हैं लेकिन यह बाढ़ निय़ंत्रण में हद तक कारगर हो सकती थी। इस परियोजना में 27 बड़े बांध तथा 56 जल भंडारण केंद्र बनने थे। इसके क्रियान्वयन से 35 से 40 हजार मेगावाट बिजली उत्पादित होती और 173 खरब घनमीटर पानी का प्रवाह भी बदलता, साथ ही परियोजना करीब 3.5 करोड़ हेक्टेयर अतिरिक्त सिंचाई क्षमता भी पैदा करती।
भारत सरकार भी राज्यों की ही तर्ज पर बाढ़ से निपटने या स्थायी निदान के बजाय राहत पर ही जोर देती नजर आ रही है। राज्यों की ओर से काफी दबाव देखते हुए कृषि मंत्रालय ने 1993 में 804 करोड़ रू की एक वार्षिक निधि के साथ आपदा राहत कोष स्थापित किया था। अटल बिहारी वाजपेयी जब प्रधानमंत्री बने तो इस आपदा राहत के काम को कृषि मंत्रालय से लेकर गृह मंत्रालय के अधीन कर दिया गया। केंद्रीय जल आयोग ने देश के विभिन्न इलाकों में बाढ़ पूर्वानुमान जारी करने के केंद्र भी खोले हैं लेकिन गरीब और देहाती लोगों को शायद ही इन सबका कोई फायदा होता हो।
लेकिन इसकी तह में जायें तो पता चलता है कि बाढ़ लाने में खुद आदमी किस हद तक जिम्मेदार है। आदमी की हरकतों से ही नदियां लगातार खौफनाक बनती जा रही हैं। गावों में ताल -पोखरे आदि जल निकासी के प्राकृतिक स्रोतों को नष्ट करके उन पर मकान बनते जा रहे हैं। नदियों की गहरायी भी शहरों का कचरा ढोते-ढोते कम होती जा रही है। जिन नदियों में बरसात में क्षमता से सात गुना ज्यादा पानी पहुंचेगा तो उनका प्रलयंकारी स्वरूप ही दिखेगा।
बीते कुछ दशक हमारी वन संपदा का भी बहुत तेजी से नाश हो रहा है। वनस्पतियुक्त धरती पानी को सोखती है। लेकिन जंगलों के घटने और कंक्रीट के जंगलों के विस्तार की हालत में पानी कहां जाएगा ? नदियों की तलहटी में जमा मिट्टी भी जलप्रवाह की गति रोक रही है। जंगलों की कटाई का असर यह हुआ है कि बरसात में पानी का बहाव सौ गुना बढ़ जा रहा है। हिमालय के दक्षिणी ढ़लानो तक काफी पेड़ काटे गए है। इससे हिमालय से निकलने वाली और असम ,बिहार, यूपी तथा हरियाणा होकर बहने वाली नदियां बेलगाम हो गयी है। इन तथ्यों के आलोक में स्थायी निदान तंत्र की दिशा में केंद्र और राज्य सरकारों से साझा प्रयास की जरूरत है।
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