मंगलवार, 17 जून 2014

सीमांध्र का सच, बिहार-झारखंड का सवा सच

जिस तरह केन्द्र सरकार तेलंगाना का वादा करके उससे भाग रही थी, लगभग उसी तरीके से बिहार-झारखंड को विशेष राज्य का दर्जा देने से वह कन्नी काट रही है. राजनीतिक शोर में अक्सर महत्वपूर्ण सवाल पीछे रह जाते हैं. सीमांध्र को पाँच साल तक विशेष आर्थिक पैकेज देने की बात केंद्र सरकार ने तकरीबन स्वीकार कर ली है. केंद्र को सिर्फ सीमांध्र की फिक्र क्यों है? इन्हीं कारणों से बिहार और झारखंड को विशेष दर्जा देकर उनका आर्थिक विकास सुनिश्चित करने की माँग उठती रही है. वह उनकी अनदेखी क्यों कर रही है? क्या वजह है कि क्षेत्रीय असंतुलन का महत्वपूर्ण काम चुनावी शोर में दबता चला गया है, बावजूद इसके कि विशेषज्ञों ने लगातार इस ओर ध्यान दिलाया है?
सन 2000 में जब बिहार का विभाजन हुआ था तब राज्य के लिए तकरीबन पौने दो लाख करोड़ रु के विशेष पैकेज की मांग की गई थी. उसके पीछे वही तर्क था, जो आज सीमांध्र के तर्क हैं, पर तब उन्हें माना नहीं गया. केवल इसलिए कि विरोध के तीखे स्वर नहीं थे, जैसे आज आंध्र में हैं. विकास के रास्तों को राजनीति रोकेगी तो यह संघीय प्रणाली के लिए खतरनाक बात होगी. क्षेत्रीय महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने और पूरे देश के समन्वित-समावेशी विकास के रास्ते में अभी तमाम-अड़ंगे हैं. केन्द्र की राजनीतिक सत्ता आज भी सबसे महत्वपूर्ण है. क्षेत्रीय आवाजें इसीलिए प्रभावशाली नहीं हो पातीं और विकास से जुड़े मामले राजनीति के शिकार हो जाता हैं. यह बात राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठकों में बार-बार देखी गई है.

भारत में संघीय व्यवस्था तीन सतह पर काम करती है। केन्द्रराज्य और केन्द्र शासित क्षेत्र। सन 1992 में 73 वें और 74 वें संविधान संशोधन के बाद पंचायती राज भी इस व्यवस्था में शामिल हो गया है. संविधान के अनुच्छेद 268 से 281 तक राज्यों और केन्द्र के बीच राजस्व संग्रहण और वितरण की व्यवस्था परिभाषित की गई है. देश की अर्थव्यवस्था पंचवर्षीय योजनाओं और वार्षिक बजटों के आधार पर चलतीं हैं. योजना आयोग इस योजना-व्यवस्था का नियामक है. आर्थिक संसाधनों के संग्रहण और वितरण की व्यवस्था जटिल है. इसके साथ तमाम राजनीतिकक्षेत्रीय और सांस्कृतिक भावनात्मक मसले भी जुड़ते हैं। इसलिए यह स्थिर नहीं है. इसमें निरंतर बदलाव चल रहे हैं.

चौथी पंचवर्षीय योजना के पहले हमारे यहाँ साधनों के वितरण की पारदर्शी व्यवस्था नहीं थी. 1969 में प्रसिद्ध समाजशास्त्री डीआर गाडगिल ने एक फॉर्मूला बनाया जिसके तहत राज्यों को दी जाने वाली 60 प्रतिशत राशि जनसंख्या के आधार पर 10 प्रतिशत प्रति व्यक्ति आय पर10 प्रतिशत टैक्स वसूली के प्रयत्नों पर10 प्रतिशत सिंचाई और बिजली परियोजनाओं पर और 10 प्रतिशत विशिष्ट समस्याओं के आधार पर तय की गई. विशेष राज्यों की अवधारणा भी तभी बनी. 1980 में इस फॉर्मूले में संशोधन हुआ. इसके अंतर्गत 60 प्रतिशत राशि जनसंख्या पर25 प्रतिशत प्रति व्यक्ति आय पर7.5 प्रतिशत प्रदर्शन पर और 7.5 प्रतिशत विशिष्ट समस्याओं पर तय किया गया. पांचवें वित्त आयोग ने तीन राज्यों को विशेष राज्य का दर्जा दिया- असमनगालैंड और जम्मू-कश्मीर. तब से विशेष राज्य की अवधारणा ने जन्म लिया है. क्षेत्रीय असंतुलन को लेकर पिछले तीन दशक से निरंतर बहस ने इस समझ को विकसित किया है. रघुराम राजन कमेटी ने इसके कुछ नए पैरामीटर दिए हैं. हमें वास्तव में इस सदी में तेज विकास होते देखना है तो अलग-अलग इलाकों की कमियों और ताकतों को समझने की जरूरत होगी.

संविधान के अनुच्छेद 280 के तहत भारत के राष्ट्रपति वित्त आयोग का गठन करते हैं. इसका उद्देश्य राज्यों और केन्द्र के बीच राजस्व वितरण की व्यवस्था पर विचार करना है. इस समय 13 वां वित्त आयोग काम कर रहा है. इसका प्रभावी कार्यकाल 2010-2015 है। सन 2012 में यागा वेणुगोपालन रेड्डी की अध्यक्षता में 14वें वित्त आयोग की स्थापना की गई है, जिसका प्रभावी कार्यकाल 2015-2020 है. इस संरचनात्मक योजना में दो-तीन बातें परेशानियां पैदा करती हैं. वित्त आयोग के अलावा हमारे यहाँ योजना आयोग है, जो व्यावहारिक रूप से प्रभावशाली है. संघीय रिश्तों की बागडोर केन्द्र के हाथ में है. उसके तमाम फैसलों पर राजनीति हावी रहती है. यह बात तेलंगाना के गठन में साफ दिखाई पड़ी.

क्षेत्रीय असंतुलन दुनिया के ज्यादातर देशों में मिलता है, खासकर उन देशों में जिनका आकार बड़ा है. अक्सर भौगोलिक और सांस्कृतिक कारण भी जिम्मेदार होते हैं. चीन जैसे विशाल देश में दक्षिण और पूर्व के मुकाबले पश्चिमी प्रांतों में गरीबी बहुत ज्यादा है और उसी अनुपात में राजनीतिक असंतोष भी है. यह संयोग नहीं है भारत में नक्सली आंदोलन और आर्थिक विकास का अंतर्सम्बन्ध है. विकास से जुड़े दूसरे सवाल भी हैं. केवल संसाधनों का उपलब्धता बढ़ाने मात्र से विकास नहीं होता. संसाधनों को जज्ब करने वाली मशीनरी और इलाके की कार्य-संस्कृति भी माने रखती है. इसलिए शिक्षा और संस्कृति भी महत्वपूर्ण कारक होता है. यह बात जनता की जागरूकता से जुड़ी है. बिहार और झारखंड में अपने इलाके की कामना ज़ोर पकड़ रही है, तो वह इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि साम्प्रदायिक और जातीय प्रश्नों पर विकास से जुड़े सवाल प्रभावी होने लगे हैं.  

पहली बात साफ तौर पर नजर आ रही है कि देश के कुछ राज्य विकास के मानकों पर राष्ट्रीय औसत से पीछे हैं. यह सब इसी तरह चला तो अंतर घटने के बजाय बढ़ेगा. इसका मतलब है कि संरचनात्मक सुधार होना चाहिए. जरूरी नहीं कि हमारा परम्परागत सोच सही हो. पिछले कुछ समय से बिहार और झारखंड से विशेष राज्य का दर्जा देने की जो माँग उठी उसके कारण केन्द्र सरकार ने भी इस दिशा में विचार शुरू किया और पिछले साल के बजट भाषण में वित्तमंत्री पी चिदम्बरम ने कहा कि इन प्रश्नों पर फिर से विचार करने की जरूरत है. इसके बाद रघुराम राजन समिति का गठन हुआ. समिति ने कुछ पैरामीटर तैयार किए हैं  जिनके आधार पर उसने पिछड़े राज्यों की पहचान भी की है.

रिपोर्ट के अनुसार ओडिशाबिहारझारखंडमध्य प्रदेशछत्तीसगढ़अरुणाचल प्रदेशअसममेघालयउत्तर प्रदेश और राजस्थान देश में कम से कम विकसित राज्य हैं. पर लगता है कि केन्द्र सरकार ने कमेटी की रपट को गम्भीरता से नहीं लिया और ना-नुकुर शुरू कर दी. कमेटी को 15 अगस्त से पहले अपनी रिपोर्ट देनी थी. इस बीच इसके अध्यक्ष रघुराम राजन को रिजर्व बैंक का गवर्नर नियुक्त करने की घोषणा हो गई. बहरहाल उन्होंने 4 सितंबर को नया पद भार ग्रहण करने के पहले 2 सितंबर को अपनी रिपोर्ट वित्तमंत्री को सौंप दीजिसे 26 सितंबर को जारी करते वक्त प्रधानमंत्री डॉ मनमोहन सिंह ने इस दिशा में आगे की कार्यवाही सुनिश्चित करने का आश्वासन भी दिया. पर केन्द्र ने अपने कदम खींच लिए और अब वह सरकार इससे भाग रही है. संसद के अंतिम सत्र में वित्तमंत्री ने कहा कि रिपोर्ट में किसी विशेष राज्य को दर्जा देने की सिफारिश नहीं है. पर समिति ने जो पैरामीटर बताए हैं, वे अपनी कहानी खुद कहते हैं. और सरकार सीमांध्र के लिए जिस आधार पर विशेष पैकेज देने की बात कह रही है, वह बिहार-झारखंड में स्वयंसिद्ध है, सीमांध्र से पहले. यहाँ की जनता को वंचित करना तो अन्याय होगा.

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