सुबह उठा, तो देखा कबूतर अकेला था। प्रेम चोपड़ा के डर से कबूतरी नहीं आई। आज नामदेव जी की वापसी थी, वापसी की टिकिट हम दोनों की साथ ही थी पर मुझे तो अभी और घुमना था। सुबह कार्यक्रम बना कि साबरमती आश्रम चला जाए फ़िर वहीं से नामदेव जी को भोजन करवा कर ट्रेनारुढ कर दिया जाए। बचपन में गीत सूना था "साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल, दे दी हमें आजादी बिना खडग बिना ढाल।" तब से साबरमती का नाम बस सुना था देखा नहीं था। अहमदाबाद पहुंच कर साबरमती के पार पहुंच कर आश्रम भी देखना था। नाश्ता करके हमने नामदेव जी का बैग गाड़ी में लाद लिया और साबरमती आश्रम पहुंच गए। आश्रम में बच्चों की पेंटिग प्रतियोगिता चल रही थी। भीड़ भाड़ ठीक ही थी। साबरमती का किनारे प्रवेश द्वार के बाद प्रदर्शनी है। जहाँ गाधीं जी से संबंधित सामान रखे हैं। पुस्तकालय के साथ ही पुस्तक विक्रय केन्द्र भी है।
हमें प्रदर्शनी देखने में ही एक घंटा लग गया। काफ़ी बड़ी जगह है। कुछ चित्र लिए प्रदर्शनी में। पुस्तक विक्रय केन्द्र से कुछ पुस्तके भी खरीदी। उसके बाद साबरमती के किनारे पर जाकर चित्र लिए। साबरमती अब बदल गयी है। गांधी जी के समय में एवं वर्तमान में काफ़ी अंतर आ गया है। चारों तरफ़ आश्रम को मकानों ने घेर रखा है। नदी भी प्रदूषित हो रही है। नदी के साथ ही एक कारीडोर भी बन रहा है। आगे चल कर हम गांधी जी के आवास तक पहुंचते हैं। वहाँ गाधी जी का चरखा रखा है। भीतर प्रवेश करने पर कस्तुरबा का कमरा दिखाई दिया। वहां चूना पोताई हो रही थी। गांधी जी के जीवन परिचय एक बोर्ड लिखा हुआ है। उनके जीवन की समस्त घटनाएं तिथिवार सूचना फ़लक पर दर्ज हैं। उनके घर में रखे चरखे को हमने भी चलाया। कुछ महीनों पहले अमिताभ बच्चन ने भी चलाया था। हम क्यों कसर छोड़े, जब साबरमती पहुंच ही गए तो चरखा भी चलाया। पहले तकली से स्कूलों में रुई काती जाती थी। जिसकी कताई महीन होती थी उसे ईनाम भी मिलता था।
चरखा देख कर फ़्लेशबैक में चला गया। वर्तमान में मूल्य आधारित शिक्षा पद्धति गायब होती जा रही है। गुरुजी जब से सर हुए हैं तब से शिष्य भी सरसरा कर निकल जाते हैं। हमारे कालेज के समय के एक गुरुजी हमें यदा-कदा मिलते रहते हैं। कॉलेज के बाद उनसे मेरी मुलाकात लगभग 27 साल बाद हुई होगी। दोहरे चरित्र का वह व्यक्ति मुझे पसंद ही नहीं था और आज भी पसंद नहीं है, गुरु तो वह होता है जो शिष्य प्रतिभा को मांज कर उसे किसी काबिल बनाता है। वर्तमान में सिर्फ़ कलदार ही चाहिए। चाहे शिष्य चोरी करके लाए या डकैती डाल कर। कुछ तथाकथित लोगों का एक मात्र उद्देश्य बड़ी कुर्सी की चापलुसी करना और छोटी कुर्सी को दबाना एवं प्रताड़ित करना। मूल्य सब गायब हो गए।
आज से 40 साल पहले जो शिक्षा गुरुजी देते थे वह अभी तक मानस पटल पर स्थाई है। जो हमने उस समय पढा वो अभी तक याद है। जब भी बड़े गुरुजी मिलते थे तो श्रद्धा से सिर चरणों में झुक जाता था। लेकिन आज मूल्य बदल चुके हैं। एक हाथ दे और एक हाथ ले। ऐसी स्थिति में श्रद्धा का जन्म लेना मुश्किल है। मैं भी कहाँ इस जमाने मे मूल्य ढूंढ रहा हूँ बेवकूफ़ी की हद हैं, शायद साबरमती आश्रम जी धरती पर आकर मुझे अनायास ही सोचने पर मजबूर होना पड़ा। न चाहते हुए भी फ़्लेशबैक में चला गया। अब आगे बढा जाए, नामदेव जी की ट्रेन का समय भी हो रहा है, उन्हे भोजन करवा कर ट्रेनारुढ करना है। हम खानपुर में दोपहर का भोजन विनोद भाई के साथ करके नामदेव जी को स्टेशन छोड़ने पहुंच जाते हैं। अहमदाबाद के टैफ़िक में गाड़ी चलाना बहुत मुश्किल है। फ़िर भी हम आधे घंटे में स्टेशन पहुंचते है तो नामदेव जी की ट्रेन प्लेट फ़ार्म पर आ चुकी थी। उन्हे ट्रेन में बैठाकर हम वापस खानपुर पहुंचते हैं। और शाम को अपने गेस्ट हाऊस में।
आज अकेला हूं गेस्ट हाऊस में, नामदेव जी घर की ओर चल पड़े हैं। टीवी देखना का मन नहीं। जिस दिन से अहमदाबाद आया हूँ उस दिन से ही इसके ट्रैफ़िक के चक्कर में फ़ंसा हुआ हूँ। मै तो सोचता था कि हमारे रायपुर के लोगों को ही टैफ़िक की सेंस नहीं है। लेकिन यहाँ आकर मेरी धारणा बदल गई। अहमदाबाद से तो लाख दर्जे अच्छा रायपुर का ट्रैफ़िक है। लोग लाल बत्ती और हरी बत्ती का मतलब समझते हैं। साईड लेना और साईड देना जानते हैं। हमारे ट्रैफ़िक पुलिस चालान बुक लेकर चौराहे पर मुस्तैद रहती है। भले ही वह फ़ालतु चालान काट दे कोई बात नहीं। अहमदाबाद में इस मामले में राम राज्य है। कोई किधर से भी आए, कहीं से भी जाए। लाल बत्ती हो या हरी, इससे कोई मतलब नहीं। चौक में चारों तरफ़ से घुस जाते हैं। सभी को जल्दी है जाने की। लेकिन जल्दी कोई नहीं पहुंच पाता। चौक में चारों तरफ़ से घुस के जाम लगा देते हैं। सिपाही खैनी चबाते देखते रहता है। जैसे भी चलो तुम्हारी मर्जी, सब छूट है।
मैट्रो की तर्ज पर यहाँ स्पीड बस सेवा चलती है। जिसकी अलग लाईन सड़क बीचों बीच बना रखी है। सिर्फ़ इसके निकलने के लिए चौराहों पर ट्रैफ़िक पुलिस तैनात है। जब यह बस चौराहे को पार करने वाली होती है, तभी चारों तरफ़ का ट्रैफ़िक बंद कर दिया जाता है। अगर कोई बीच में घुसेगा तो नमस्ते हो जाएगा। इससे दुर्घटना भी कई बार होती हैं, लोगों की जान भी जाती हैं। रायपुर से जाकर कोई अहमदाबाद में गाड़ी चलाना चाहे तो दिन भर में पचासों बार भिड़ जाएगा। अगर कोई भिड़ भी जाता है तो एक, बे, त्रोण से आगे नहीं जाता। मामला वहीं शांत हो जाता है। दोनो आगे बढ लेते हैं। मैने इस ट्रैफ़िक में गाड़ी चलाने की सोची भी नहीं। फ़िर कभी आऊंगा तो देखेगें अहमदाबाद के भी ट्रैफ़िक में गाड़ी चला कर। तभी महाराज का फ़ोन आता है मेहसाणा से-"काली आजा महाराज, दबा दे गाड़ी इही डहर"- कहता हूँ अगर समय रहा तो जरुर आऊंगा। दाल-भात खाने। रात घनी हो चुकी, कबुतर अपने ठिकाने पर बैठा है, बोलती बंद हैं। हम भी सुबह मिलते हैं लोथल में, ............ जारी है………आगे पढें
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