अहमदाबाद का सुबह का नजारा |
सुबह साढे 5 बजे आँख खुली तो खिड़की से अंधेरा नजर आ रहा था। तब समझ आया कि यहाँ हमारे छत्तीसगढ की अपेक्षा दिन देर से निकलता है। खिड़की से नीचे झांक कर देखा तो स्ट्रीट लाईट जल रही थी। सुनसान सड़क शंहशाह की सवारी गुजरने का अहसास करा रही थी। अंधेरी रातों में सुनसान राहों पर................। खिड़की से झांक कर हमने फ़िर बिस्तर पकड़ लिया। 7 बजे उठे तो थोड़ा प्रकाश देखने मिला। हम भी खुश हुए कि सुबह हो गयी। केयर टेकर को चाय की घंटी मारी। नामदेव जी भी उठ गए, उन्हे ड्यूटी पर लगाया जिससे वे जल्दी स्नान ध्यान कर लें उसके बाद हम कर लेगें। हमें तो कहीं जाना नहीं था, आज दिन भर आराम का ही मुड था। थोड़ी देर में चाय आ गयी।
कबूतर और कबूतरी (दुर्लभ चित्र) |
हम बिस्तर छोड कर सोफ़े पे डट गए, जैसे ही खिड़की की तरफ़ देखा तो कल वाला कबूतर एक कबूतरी पटा लाया था। चोंच लड़ा कर प्रात: कालीन फ़ेसबुकिया गुड मार्निंग कर रहा था। हमें थोड़ी ईर्ष्या हुई, काश! हम भी कबूतर होते तो लाला जी मुंडेर पर ही बैठे रहते। बने रहते लोटन कबूतर, लाला जी की दूकान भी चलते रहती और कबूतरी भी गुटरगूँ करते रहती। कौउनु फ़रक नहीं पड़ने वाला था। तभी प्रेम चोपड़ा की एन्ट्री हो जाती है, उसे देखते ही कबूतरी फ़ुर्रर्र हो गयी, कबूतर बैठा रहा वहीं छज्जे पर। कितना खौफ़ है न प्रेम चोपड़ा का? यह किरदार चराचर जगत के सभी प्राणियों में पाया जाता है। जैसे ललाईन के छज्जे के सामने बनवारी काका। दिन हो रात खिड़की खोले खांसता ही रहता है मुआ। चलो छोड़ो सुबह सुबह क्या झमेला ले बैठे। कबूतर जाने और कबूतरी जाने, हमे क्या लेना? हूँ ...........तो।
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