रविवार, 16 नवंबर 2014

आप अपनी पॉलिटिक्‍स ठीक करिए, हम अपनी भाषा ठीक करते हैं

अभिषेक श्रीवास्तव

पिछले कई बरस से जनसत्‍ता में बिला नागा छप रहे ‘कभी-कभार’ में अशोक वाजपेयी का आज पहला स्‍तम्भ है ‘अनुपस्थित श्रोता’। वे चिन्तित हैं कि इस वर्ष SamanvaY: IHC Indian Languages’ Festival में हिंदी के श्रोता गायब रहे। वे लिखते हैं, ”सबसे अधिक दुख लगा बस्‍तर की बोलियों पर एक सत्र में बहुत कम उपस्थिति देखकर।” उनका दुख जायज़ है, हम सब ‘हिंदीवाले’ इस संकट से रोज़ दो-चार होते हैं, लेकिन जहाँ पर खड़े होकर वे अपने ‘दुख’ की वजहों का विश्‍लेषण कर रहे हैं, गड़बड़ी वहाँ है। इसी कारण उनके स्‍तम्भ में ”अंग्रेज़ी के नकली स्‍वर्ग और खाती-पीती-उड़ाती दुनिया के विश्‍व नागरिकों” का हिकारत भरा जि़क्र आता है और हिंदीवालों की अनुपस्थिति का ‘दुख’ अंग्रेज़ी वालों के सिर मढ़कर वे संतुष्‍ट हो जाते हैं। नतीजतन, अंग्रेज़ी की नागरिकता को वे हिंदी की नागरिकता के खिलाफ खड़ा कर देते हैं।

अशोकजी ज़रा सा सावधान रहते तो अपने स्‍तम्भ में ही अपने सवाल का जवाब खोज लेते। आइए देखें, यह गड़बड़ी कहा है। बस्‍तर के बारे में वे लिखते हैं, ”उसका इस समय नक्‍सली हिंसा का लगातार कुछ दशकों से ग्रस्‍त होना उसकी अपार सांस्‍कृतिक संपदा और भाषिक विपुलता को भी क्षति पहुँचा रहा है।’‘

वाक्‍य-संरचना की गड़बड़ी (संभवत: संपादन) और ‘कुछ दशकों’ की तथ्यात्‍मक ग़लती को छोड़ दें, तो अशोकजी की राजनीतिक लोकेशन इस वाक्‍य से आपको समझ आ सकती है। उनके कहने का मतलब यह है कि बस्‍तर की ‘नक्‍सली हिंसा‘ हवा में है। वे उन कम्पनियों का जि़क्र नहीं करते जो वहाँ के जल, जंगल और ज़मीन को निगल चुकी हैं। उन्‍हें उस राज्‍यतंत्र का ख़याल नहीं जिसने सलवा जुड़ुम के नाम पर भाई से भाई को लड़वाया। हिंसा मनुष्‍य का शौक़ नहीं है और नक्‍सली मंगल ग्रह से नहीं आए हैं। राज्‍य और कम्पनियों की मिलीभगत से बस्‍तर में मुसलसल चल रही प्राकृतिक संसाधनों की लूट के खिलाफ वहाँ का आदिवासी नाराज़ है। लिहाज़ा बस्‍तर आज एक युद्धक्षेत्र बन चुका है, जहाँ कई ताकतें काम कर रही हैं। इन अंतर्विरोधों की उपेक्षा कर के किसी एक के सिर पर भाषा-संस्‍कृति के नाश का दोष मढ़ देना आखिर आपको किसके पाले में खड़ा करता है?

प्रसंगवश, जिस दिन ‘समन्‍वय’ का उद्घाटन था, उसी शाम राजेंद्र भवन में अरुण फरेरा से उनके जेल संस्‍मरणों पर अशोक भौमिक, संजय काक और शुद्धब्रत सेनगुप्‍ता का संवाद था। हिंदी के कई लेखक-पाठक समेत पंजाब, हरियाणा, दक्षिण भारत के करीब 200 श्रोता वहाँ मौजूद थे। आखिर क्‍यों? इसलिए क्‍योंकि भाषा-संस्‍कृति की बुनियाद राजनीति ही है। जनवादी राजनीति को अगर हिंदी के करीब आने की ज़रूरत है, तो हिंदी की चिंता करने वालों को भी अपनी राजनीतिक लोकेशन दुरुस्‍त करनी होगी। आप अपनी पॉलिटिक्‍स ठीक करिए, हम अपनी भाषा ठीक करते हैं। फिर देखिए, श्रोताओं का टोटा नहीं होगा। आप राजनीति के सवाल को अंग्रेज़ी बनाम हिंदी में उलझाएंगे और राज्‍य व कॉरपोरेट की ओर से आंखें मूंद कर बस्‍तर के नाम पर आह भी भरेंगे, तो इससे किसी का भला नहीं होगा अशोकजी।

About The Author
अभिषेक श्रीवास्तव, 
जनसरोकार से वास्ता रखने वाले खाँटी पत्रकार हैं। 
हस्तक्षेप के सहयोगी हैं।

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