बापू हम शर्मिंदा हैं , तेरे कातिल जिन्दा हैं
बाबा विजयेंद्र
संघ के सपूत और स्वयंसेवकों के आदर्श नाथूराम गोडसे को आज ही के दिन फांसी दी गयी थी। इस कथित शहीद को सार्वजनिक तौर पर भले ही श्रद्धांजलि देने की हिम्मत संघ को न हो पर फांसी के खिलाफ भीतर-भीतर गुस्से का इजहार तो कर ही रहे होंगें।
मैं भी भूतपूर्व स्वयंसेवक रहा हूँ। हम भी गोडसे की याद में बौद्धिक पेला करते थे। गाँधी को घृणा का विषय बनाते थे। संघ के प्रचारकों के भीतर गोडसे की आत्मा विराजमान होती थी। प्रचारक तपोनिष्ठ थे, देश के लिए नहीं बल्कि अपने मनुवादी मूल्यों के प्रचार के लिए। ब्राह्मणवाद को बचाए रखने के लिए महाराष्ट्र से प्रचारकों की असंख्य टोलियाँ निकली। महाराष्ट्र के यही लोग वंचितों को सताने में आगे थे।
किसी प्रचारक से गाँधी की बड़ाई मैं नहीं सुन पाया। इसी मूल्य के लिए मैं भी अपने को तबाह किया।
मेरा प्रायश्चित जारी है क्योंकि मैं भी अपने संघ-जीवन में गाँधी को लगातार मारता ही रहा।
गोडसे को फांसी देने के बाद एक किताब आई-गाँधी वध और मैं और मी नाथूराम बोल्तय । ‘ वध ‘ शब्द का प्रयोग केवल कंस और रावण के लिए जाता रहा है। संघियों ने गाँधी को कंस और रावण के समतुल्य खड़ा किया। गाँधी के लिए किलिंग और मर्डर जैसे शब्दों का इश्तेमाल भी किया जा सकता था। गाँधी के प्रति संघ की घृणा कितनी थी वह आप बध जैसे शब्द से अंदाजा लगा सकते हैं।
विभाजन और मुस्लिम तुष्टीकरण का कोई सम्बन्ध गाँधी से है ही नहीं। संघ जिस क्लास- पॉलिटिक्स का प्रवक्ता था उसका धनी मुसलमानों से गहरा रिश्ता था। इस क्लास ने अपने अपने हिस्से के हिंदुस्तान को लूट लिया जिसका देश की आजादी से कोई वास्ता ही नहीं था। वाजपेयी जेल जाने से बचने के लिए अंग्रेजों के सामने माफीनामा दिया और ककुआ जैसे मित्रों को सजा दिलबा दी। अनुशीलन समिति के सदस्य हेडगेवार थे कि नहीं इसकी चर्चा संघ साहित्य के अलावा और कही नहीं मिलता।
गाँधी ने कभी भी आडवाणी की तरह किसी मज़ार पर माथा नहीं टेका। कभी नमाज अदा नहीं किया। कभी इफ्तार पार्टी में शामिल नहीं हुये। गाँधी ने जीते जी मस्जिद की सीढ़ी पर पाँव तक नहीं रखा। गाँधी की प्रार्थना में राम, राज्य के रूप में राम और मरने के वक्त राम ! गाँधी के जीवन में राम ही राम था। तब राम नाम जपने वाले संघ को गाँधी से गुस्सा ही क्यों था ?
गाँधी जब अंतिम व्यक्ति के साथ खड़े हो रहे थे तो प्रथम पंक्ति के लोगों का नाराज होना स्वाभाविक ही था। दूसरी बात ब्रह्म सत्य के बदले सत्य को ईश्वर घोषित करना था। यह हिन्दू दर्शन के खिलाफ था। संघ समरसता की बात करता था। उसे समता में विश्वास ही नहीं था। गाँधी हमेशा यथास्थितिवाद के खिलाफ थे। बाबा साहेब के सन्दर्भ में गाँधी को घेरा जा सकता है। पर संघ तो कही टिक ही नहीं पाता है।
गोडसे को और मारा जाना जरूरी है। गोडसे जिन्दा है। साबरमती के संत के कमाल को गुजरात के गए-गुजरे मोदी और अमित जैसे विदूषक समाप्त करने पर तुले हैं।
गाँधी कहा करते थे कि उनका जीवन ही सन्देश है। यह पंक्ति अब अमित शाह अपने लिए यूज करने लग गए हैं। गाँधी का गाँव, गंगा और गीता भुला दिए गए हैं। दांडी में पांच सितारा होटल, गाँव के बदले स्मार्ट शहर ? स्वदेशी और स्वावलंबन से अब संघ का क्या लेना देना ? भारत माता अब भारत सरकार हो गयी। संघ को अपना अभीष्ट मिल गया है।
गोडसे गाँधी को पूरा नहीं मार पाया। अब बचे गाँधी को निपटा देने की जिम्मेवारी मोदी और अमित ने अपने जिम्मे ले ली है। कल हेडगेवार केंद्र थे और आज भागवत केंद्र बने हुये हैं।
मैंने गाँधी को नहीं मारा। झूठ ! बिल्कुल झूठ। अगर मान भी लें कि संघ ने गाँधी को नहीं मारा तो क्यों नहीं जिन्दा और मुर्दा गोडसे के खिलाफ संघ खड़ा होता है ? गोडसे से संघ का सम्बन्ध सिद्ध होना उतना मूल्यवान नहीं है जितना गाँधी से सम्बन्ध का है। मैं नाथूराम बोलता हूँ’ देश न केवल उनकी बात सुनने को मजबूर है वल्कि मोहित भी है। संघ न सही पर आज भी हमारा समाज साबरमती के संत के साथ खड़ा है। आओ हम भी गोडसे पर थूकें।
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बाबा विजयेंद्र,
लेखक स्वराज्य खबर के संपादक हैं।
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