रविवार, 16 नवंबर 2014

सिख दंगा पीड़ितों को मुआवजा या भद्दा मजाक

-जाहिद खान

उन्नीस सौ चौरासी के सिख दंगा पीड़ितों को मुआवजा मामले में चुनाव आयोग ने गृह मंत्रालय के खिलाफ हाल ही में जो कड़ा रुख अपनाया है, उसका स्वागत किया जाना चाहिए। आयोग, गृह मंत्रालय से इस कदर नाराज था कि उसने सरकार को फटकार लगाते हुए कहा कि ऐसा आश्वासन दिया जाना चाहिए कि भविष्य में ऐसी घटनाएं दोहरायी नहीं जाएंगी। चुनाव आयोग, गृह मंत्रालय की इस बात से खफा था कि दिल्ली में चुनाव आचार संहिता लागू होने के बावजूद उसने सिख दंगा पीड़ितों को पांच-पांच लाख रुपये का मुआवजा देने का ऐलान किया। यही नहीं आयोग ने जब नोटिस जारी कर सरकार से इस खबर पर स्पष्टीकरण देने को कहा, तब भी सरकार ने उसे गुमराह करने की कोशिश की। सरकार ने नोटिस के जवाब में गलतबयानी करते हुए कहा, मुआवजे के बारे में कोई निर्णय नहीं किया गया था। मुआवजे की बात, सिर्फ विचार के स्तर पर थी। इस संबंध में कोई आदेश जारी नहीं किया गया था। लिहाजा ये आचार संहिता का उल्लंघन नहीं है। यानी सरकार बड़े ही बेशर्मी से अपने ऐलान से साफ-साफ मुकर गई। उसे इस बात का जरा सा भी अफसोस नहीं हुआ कि वह जो झूठ बोल रही है, उससे दंगा पीड़ितों के जज्बात को कितना ठेस पहुंचेगी।

मोदी सरकार की नीयत पर सवाल इसलिए भी उठ रहे हैं कि एक तरफ वह यह कह रही है कि मुआवजे के बारे में कोई निर्णय नहीं किया गया था, दूसरी ओर इस आशय की खबरें व्यापक रूप से समाचार पत्रों में प्रकाशित हुईं। न केवल प्रिंट मीडिया बल्कि इलेक्ट्रानिक मीडिया में भी इस तरह की खबरें लगातार छाई रहीं। टेलिविजन पर समाचार चैनल इस विषय पर परिचर्चाएं आयोजित करते रहे। इन परिचर्चाओं में बीजेपी प्रवक्ताओं ने अपनी सरकार की ‘दरियादिली’ का जमकर गुणगान किया। इसके अलावा दिल्ली की कई सड़कों और चौराहों पर इस तरह के होर्डिंग नजर आए, जिसमें दंगा पीडि़तों को मुआवजा दिए जाने के केन्द्र की बीजेपी सरकार के निर्णय की सराहना की गई थी। यह सब होता रहा और केंद्र सरकार ने न तो इन सब बातों का खंडन किया और न ही कोई स्पष्टीकरण दिया कि ये कोई ऐलान नहीं बल्कि महज एक प्रस्ताव है। जब इस मामले को विपक्ष, चुनाव आयोग के पास ले गया, तब जाकर सरकार अपने बचाव के लिए यह झूठा स्पष्टीकरण दे रही है। यदि चुनाव आयोग सख्त नहीं होता, तो वह उपचुनाव तक यह भ्रम बनाए रखती और दिल्ली के सिख मतदाता उसके झांसे में आ जाते। हालांकिदिल्ली विधानसभा भंग होने के चलते अब यह उपचुनाव रद्द कर दिए गए हैं, लेकिन फिर भी बीजेपी की इस हरकत को सही नहीं ठहराया जा सकता। इस मामले में उसका रवैया बेहद शर्मनाक है। जिसकी जितनी भी निंदा की जाए, कम है।

उन्नीस सौ चौरासी के सिख विरोधी दंगे, भारतीय लोकतंत्र के माथे पर एक ऐसा दाग है, जो शायद ही कभी मिटे। इन वहशी दंगों में न सिर्फ सैंकड़ों सिखों ने देश में अपनी जान गंवाई, बल्कि हजारों सिखों के रोजगार और आशियाने उजड़ गए। दंगे का सबसे वीभत्स रूप राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में देखने को मिला। जहां अनेक सिखों को जिंदा जला दिया गया। उनकी दुकानें और प्रतिष्ठान लूट लिए गए। तीस साल का लंबा वक्फा हो गया, लेकिन दंगा पीडि़तों को आज तलक इंसाफ नहीं मिला है। इंसाफ के लिए आज भी वे दर-दर भटक रहे हैं। यदि बीजेपी सरकार के दिल में दंगा पीडि़तों के लिए जरा सा भी दर्द था, तो केन्द्र की सत्ता संभालते ही उसे दंगा पीडि़तों से सबसे पहले यह वादा करना चाहिए था कि वह उन्हें हर हाल में इंसाफ दिलवाएगी। लेकिन इस तरह का कोई ठोस वादा न करके, उसने दंगा पीडि़तों को मुआवजे का झूठा आश्वासन दिया। मुआवजे के नाम पर उनके साथ भद्दा मजाक किया। साम्प्रदायिक दंगों जैसे संवेदनशील और गंभीर मामले में भी वह राजनीति करने से नहीं चूकी।

सिख दंगा पीडि़तों के प्रति बीजेपी वास्तव में कितना संजीदा रही है, यह बात उन्नीस सौ चौरासी के भीषण दंगों के समय उसकी भूमिका को देखने से मालूम चलती है। नानाजी देशमुख जो आरएसएस के एक प्रमुख चिंतक, विचारक और नीति निर्देशक माने जाते हैं, उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के कुछ दिन बाद, देश के प्रमुख राजनेताओं के बीच एक दस्तावेज बांटा था। यह दस्तावेज जार्ज फर्नांडीस द्वारा सम्पादित हिंदी साप्ताहिक ‘प्रतिपक्ष’ के 25 नवम्बर 1984 के अंक में प्रकाशित हुआ था। इस दस्तावेज के अध्ययन से यह बात मालूम चलती है कि आरएसएस और बीजेपी, सिखों की कितनी बड़ी खैरख्वाह है। दस्तावेज के मुताबिक सिखों का जनसंहार किसी ग्रुप या समाजविरोधी तत्वों का काम नहीं था, बल्कि वह क्रोध एवं रोष की सच्ची भावना का परिणाम था। सिखों ने स्वयं इन हमलों का न्यौता दिया। यही नहीं नानाजी देशमुख ने अपने इस दस्तावेज में ‘ऑपरेशन ब्लू स्टार’ को महिमामंडित किया और किसी तरह के उसके विरोध को राष्ट्रविरोधी बतलाया। दस्तावेज में सिखों को वे आगे यह सलाह भी देते हैं कि उन्हें अपनी आत्मरक्षा में कुछ भी नहीं करना चाहिए, बल्कि हत्यारी भीड़ के खिलाफ धैर्य एवं सहिष्णुता दिखानी चाहिए।

सबसे हैरानी की बात यह है कि इस दस्तावेज में केन्द्र की तत्कालीन कांग्रेसी सरकार से सिख समुदाय के खिलाफ हिंसा को नियंत्रित करने के उपायों की मांग करते हुए एक भी वाक्य नहीं लिखा गया है। यह बात भी बतलानी लाजिमी होगी कि नानाजी देशमुख ने यह दस्तावेज 8 नवम्बर 1984 को प्रसारित किया। और यह वह भयानक दौर था, जब 31 अक्टूबर से 8 नवम्बर के बीच सिखों की अधिकतम हत्याएं हुईं। नानाजी देशमुख के दस्तावेज में न तो बेकसूर सिखों की हत्याओं के प्रति चिंता दिखाई देती है और न ही उन्हें बचाने के लिए कोई प्रयास। जबकि आरएसएस अपने आप को एक बड़ा सामाजिक संगठन बताते नहीं थकता। दस्तावेज में संघ कार्यकर्ताओं द्वारा सिखों को बचाने का कहीं कोई जिक्र नहीं मिलता। कुल मिलाकर इस पूरे दस्तावेज में नानाजी देशमुख ने बड़ी ही धूर्तता से सिख समुदाय के जनसंहार को उचित ठहराया है। जाहिर है जो लोग आरएसएस और बीजेपी की सियासत को अच्छी तरह से जानते हैं, उन्हें मालूम है कि अल्पसंख्यकों के प्रति उनका क्या रवैया है ? वह लाख अपने आप को हिंदू-सिख एकता का पैरवीकार बतलाएं, लेकिन उनका असली चेहरा कुछ और है ? दंगा पीडि़त मुआवजा मामले में बीजेपी सरकार के हालिया रुख ने एक बार फिर इस बात की तस्दीक की है कि वह दंगा पीडि़तों के दुःख-दर्द के प्रति कतई संजीदा नहीं। सिख दंगा पीडि़तों के खैरख्वाह बनने की उसकी कोशिश, सिर्फ एक छलावा भर है। छलावा के सिवाय कुछ नहीं।

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जाहिद खान, 
लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं।

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