गूगल ने फिर मेरा एक एकाउंट डीएक्टीवेट कर दिया है।
मैंने रिइंस्टाल करने का आवेदन किया तो जवाब आया कि चूंकि आपने शर्तों का उल्लंघन किया है और हम ऐसी स्थिति में कभी भी किसी भी एकाउंट को खत्म कर सकते हैं, इस खाते को फिर खोला नहीं जा सकता।
मैंने फिर आवेदन किया कि अगर हमने शर्तों का उल्लंघन किया है तो कृपया आप हमें चेतावनी देते जैसा कानूनन किया जाता है। तब हम नहीं मानते तो आप बाशौक बंद कर देते हमारा खाता। हमारा सरोकार प्रकृति पर्यावरण और मनुष्यता से है। हम पेशेवर पत्रकार हैं कोई स्पैमर हैं नहीं। हम शुरु से गुगल के यूजर हैं और गूगल की महिमा से ही विश्वव्यापी मेरा नेटवर्क है। और निवेदन किया कि फिर मेरा खाता चालू कर दिया जाये। इसका कोई जवाब नहीं आया।
मजबूरन मुझे कल रात एक और नया खाता खोलना पड़ा है।
ऐसा नहीं है कि हम नहीं जानते कि ऐसा क्यों हो रहा है।
फेसबुक या ट्विटर पर फर्जी एकाउंट के मार्फते जो जबर्दस्त धर्मोन्माद, कारपोरेट ईटेलिंग, पोर्नोग्राफी और नस्ली दुश्मनी फैलायी जा रहीं है, कानून उस पर कोई अंकुश नहीं लगाता। उसे बल्कि प्रोमोट किया जाता है रसीले अंदाज में। वीडियो बेरोकटोक।
डिजिटल देश के फ्री सेनस्कसी मुक्त बाजार में सार्वजनिक स्थानों पर प्रेम, चुंबन और सहवास के अधिकार, रोटी, कपड़ा, रोजगार, सिंचाई, खाद्य सूचना, स्त्री मुक्ति, बचपन बचाओ, प्रकृति पर्यावरण बचाओ, जल जंगल बचाओ मुद्दों के बजाय खास मुद्दे हैं और मीडिया में उन्हीं की धमक गरज है।
हो न हो, गूगल एक प्लेटफार्म ऐसा है जहाँ विविध भाषाओं में विमर्श का, मुद्दों को संबोधित करने का और सारी दुनिया से संवाद का सबसे बेहतरीन इंतजाम है।
बाकी भारतीय सर्वरों में तो संवाद का कोई इंतजाम है ही नहीं। याहू में तो अब मेलिंग भी असंभव है।
इसलिए हम गूगल के भरोसे हैं लेकिन उसे चुनिंदे खाते क्लोज करने के जो राजकीय आदेश भारत में कारोबार चलाने के लिए मानने होते हैं, उसके पीछे धर्मांध कारपोरेट वर्चस्ववाद है जो अभिव्यक्ति की आजादी देता नहीं है, छीनने का चाक चौबंद इतंजाम करता है। यही न्यूनतम राजकाज है।
पोर्नोग्राफी मीडिया पेज का राजस्व है ईटेलिंग है और जो तेजी से जनांदोलन भी बनती जा रही है,मुक्तबाजारी संस्कृति तो वह है ही। अनंत बाजार है और सर्वशक्तिमान बाजार। बाकी सबकुछ नमित्तमात्र है। देश निमित्त है तो सरकारे, राजनीति भी निमित्तमात्र। निमित्तमात्र।
सिर्फ विचारों पर पहरा है।
कोई विचार वाइरल बनकर कारपोरेट राज की सेहत खराब न करें, इसकी फिक्र में सूचना प्रसारण और मानवसंसाधन मंत्रालय हैं, भारत की सरकार है और अमेरिका की सरकार भी है।
सपनों पर पहरा है कि कोई सपना न देखें। सपनों की हत्या सबसे जरूरी है क्योंकि आखिरकार सपनों से भी जनमती है बदलाव की आग। पाश बहुत पहले लिख गये हैं, सबसे खतरनाक है सपनों का मर जाना।
हमारे न विचार हैं और न हमारे सपने हैं और न हमारी कोई स्मृति है और न हमारी कोई मातृभाषा है। हर हाथ में विकास कामसूत्र और हर कोई डिजिटल बायोमेट्रिक रोबोट नियंत्रित नागरिक।
पाठ से शायद हम ज्यादा दिनों तक शब्दों को जिंदा करने का खेल रच नहीं सकते। अब छपे हुए शब्दों से हम पूरी तरह बेदखल हो गये हैं और इलेक्ट्रानिक दुनिया तो बाजार के निमित्त, बाजार के लिॆए, बाजार द्वारा सर्वशक्तिमान सबसे बड़ा मुक्तबाजार है। बाकी जो इंटरनेट है, जो माइक्रोसाप्ट फ्री भी कर रहा है, जनता के पक्ष में उसके इस्तेमाल की इजाजत है नहीं। यही है हमारा डिजिटल देश महान केसरिया।
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