रविवार, 16 नवंबर 2014

लापता पिता की खोज में एक कैमरा तोपची का करिश्मा

पलाश विश्वास
मैंने लिखा है कि दस साल पहले एक दिन अचानक हमारे मित्र  कमल जोशी के कोटद्वार के घर से उनके पिता गायब हो गये। फिर वे लौटकर घर आये नहीं। हिमालय के उत्तुंग शिखरों और ग्लेशियरों में कही हमेशा के लिए खो गये विस्मृति के शिकार पिता और कमल की एक अनंत यात्रा जारी है उस खोये हुए पिता की तलाश में जो दरअसल उसकी फोटोग्राफी है।
कमल हो सकता है कि ऐसा न सोचता हो, लेकिन मेरा मानना यही है। उसकी यायावर जीवन यात्रा को मैं इसी तरह देखता हूँ जिसमें उनके पिता, मेरे पिता और सुंदरलाल बहुगुणा एकाकार हो गये हैं। इसमें एकाकर हैं इसे देश के सारे जनपद और हर वह आदमी और औरत जिसकी धड़कनें प्रकृति और पर्यावरण में रची बसी हों।
नई पीढ़ी के लोग जिनके लिए पिता एक अमूर्त पहेली हो, उनके लिए यह वक्तव्य समझ में भले न आये, लेकिन हमारी पीढ़ी के लिए समझना उतना मुश्किल भी नहीं, अगर पिता की कोई तस्वीर उनकी आंखों में बसती हो जो मुक्त बाजार में बेदखल हैं जैसी हमारी नई पीढ़ियाँ और हमारे पुरखों की सारी विरासत और यह सारी कायनात।
मुझे फोटोग्राफी आती नहीं है और बेहद खूबसूरत अंतरंग पलों को हमेशा के लिए खो देने का अपराधी भी मैं हूँ। जैसे इस बार सुंदरलाल बहुगुणा जी की कोई तस्वीर मैं न निकाल सका और न उनसे हुई बातचीत रिकॉर्ड कर सका। यह जो आलाप प्रलाप का सिलसिला है, वह दरअसल उन खोये हुए पलो को जीने का अभ्यास ही है।
कमल की तस्वीरें देखते हुए मैं खूबसूरती और फोकस के सौंदर्यबोध से मंत्रमुग्ध होता हूँ लेकिन बारीकियाँ समझ नहीं पाता। जैसे चित्रकला के बारे में या संगीत के बारे में मैं निरा गधा हूँ।
वैसे भाषा, विधाओं, माध्यमों, साहित्य,  संस्कृति के संदर्भ में जिनमें मेरी रुचि ज्यादा है, जिन्हें साधने में मैंने पूरी की पूरी एक जिंदगी बिना मोल खर्च कर दी है, मेरा गधापन कितना कम बेशी है, उसका भी मुझे कोई अंदाजा नहीं है।
कमल के हर फ्रेम में मुझे एक तड़प महसूस होती हैजो सत्यजीत रे के कैमरे में महसूस नहीं करता,लेकिन ऋत्विक घटक की हर फिल्म के फ्रेम दर फ्रेम महसूस करता हूँ।
फ्रेम दर फ्रेम जिंदगी से लबालब यह कला है, जिसे मैं विश्लेषित तो कर नहीं सकता, लेकिन महसूस कर सकता हूँ। जैस कत्थक का तोड़।
जैसे संगीत को कोई पाथर यकीनन नहीं समझ सकता, लेकिन सारी कायनात संगीतबद्ध है और सुर ताल लय में छंदबद्ध है मसलन जैसे दिन रात, धूप छांव, पहाड़ समुंदर अरण्य और रेगिस्तान, रण,  तमाम नदियाँ और जलस्रोत तमाम, जलवायु, मौसम, सूर्योदय सूर्यास्त, वगैरह वगैरह। संगीत प्रेमी होने के लिए सुर ताल लय की विशेषज्ञता लता मंगेशकर, गिरिजा देवी, कुमार गंधर्व या भीमसेन जोशी की तरह हो, ऐसा भी नहीं है।
कमल की खींची तस्वीरें और उसकी अथक यायावरी को देखकर मुझे पता नहीं हर वक्त क्यों लगता है लगता है कि प्यासी लेंस एक पिता की खोज में है और उस खोज में इस पृथ्वी और पर्यावरण की भारी चिंता है। सरोकार भी है। दृष्टि तो है ही।
उसकी यायावरी से तो कभी कभी उसके चेहरे पर मेरे पिता का चेहरा भी चस्पां हो जाता है, लेकिन मेरे पिता कमल की तरह इतने खूबसूरत कभी न थे। लेकिन मेरे पिता और उसके लापता पिता हर बिंदु पर जब एकाकार हो जाते हैं।
इसलिए इस महाविध्वंस के मध्य अब भी मुझे लगता है कि इस कायनात में नवनाजी महाविनाश के कारपोरेट उपक्रमों के बावजूद अभी मनुष्यता बची रहनी है जब तक कि हमारे रगों में खून बहना है और दिलों में धड़कनों का होना है
मैं कमल के कैमरे को गिरदा के मशहूर हुड़के से जोड़कर देखता हूँ तो सारे हिमालय का भूगोल हमारे सामने होता है, जहाँ से कमल और हमारी दोनों की यात्रा शुरु होती है और खत्म भी वहीं होनी चाहिए। जिसके कितने आसार हैं, हैं भी नहीं, कह नहीं सकते।
 खासकर तब जब महानगर कोलकाता में बैठकर भी मैं उसी तरह भूस्खलन के मध्य हूँ जैसे हम पहाड़ों में होते हैं। पहाड़ जैसे खिसकते हैं, टूटते बगते गायब होते हैं, वैसे ही सारे महानगर, नगर और जनपद गायब होने को हैं। अनंत भूस्खलन है अनंत भूमिगत आग की तरह अनवरत, अविराम और हमें अहसास तलक नहीं।
जैसे सुंदर लाल बहुगुणा बार-बार कहते हैं कि कृषि केंद्रित भूमि इस्तेमाल के बदले कारपोरेट भूमि उपयोग उपाय मनुष्यता के सर्वनाश का चाक चौबंद इंतजाम है। यह विकास के नाम पर चप्पे चप्पे पर अंधाधुंध निर्माण विनर्माण, यह सर्वग्रासी हीरक चतुर्भुज मनुष्यता, सभ्यता, प्रकृति पर्यावरण मौसम और जलवायु के विरुद्ध है।
रोज इस महानगर कोलकाता के अंतःस्थल से तमाम जलस्रोतों के अपहरण और अनंत माफिया बिल्डर सिंडिकेट राज के तहत जमीन नीचे खिसक रही है।  जलस्तर सूख रहा है। रोज-रोज। पल-छिन पल-छिन। उत्सवों महोत्सवों कार्निवाल के मध्य।
रोज महानगर के सीने में राजमार्ग में जमील धंसने से सारा महामनगर स्तब्ध सा हो रहा है, लेकिन होश किसी को नहीं है।
सियालदह तक फैला मैंग्रोव फारेस्ट अब अभयारण्य में भी कब तक बचा रहेगा, कहना मुश्किल है क्योंकि कोलकाता और उपनगरों की क्या कहें नगरों, गांवो, कस्बों तक में विकास के नाम पर प्रोमोटरी की ऐसी गवर्नेंस है, जहाँ खेती सिरे से खत्म है और जमीन में पेयजल के अलावा किसी को किसी जलाशय, नदी, झील, पोखर की सेहत की कोई फिक्र ही नहीं है। न सेहत की परवाह है, न मनुष्यता की, न प्रकृति और पर्यावरण की।
यह फिक्र भी नहीं कि खरीदे जाने वाला मिनरल वाटर और शीतल पेय भी आखिर किसी न किसी जलस्रोत से निकलना है।
पहाड़ों में तो इंच दर इंच जमीन बेदखल है और कृषि कहीं है ही नहीं।
कारपोरेट कारोबार है।
कारपोरेट धर्म है।
कारपोरेट राजनीति है।
नतीजा फिर वही केदार जलप्रलय है।
नतीजा फिर वहीं भूंकप, बाढ़ और भूस्खलन है।
नतीजा फिर वही ग्लेशियरों का मरुस्थल बन जाना है।
खतरे की बात तो यह है कि ऐसा सिर्फ हिमालय में नहीं हो रहा है।
समुंदरों और बादलों में भी, पाताल में भी घनघोर जलसंकट के आसार है इस कारपोरेट केसरिया दुस्समय में जहाँ धर्म के नाम पर अधर्म ही राष्ट्रीयता का जनविरोधी,  प्रकृति विरोधी, पर्यावरण विरोधीआफसा है, सलवाजुड़ुम है, गृहयुद्ध है, आतंक के खिलाफ अमेरिका और इजरायल के साथ ग्लोबल हिंदुत्व का महायुद्ध है। जनविरुद्धे कुरुक्षेत्र है।
इसीलिए कमल जोशी जैसे कैमरातोपचियों की जरूरत है। ऐसे माध्यमों की जरुरत है जिनके जरिये हम विचारों, सपनों और विमर्श संवाद का सिलिसिला जारी रख सकें।
यही कमल जोशी होने का मतलब भी है।
हमारे जानेजिगर खासमखास दोस्त कमल जोशी का कैमरा कमाल पेश करते हुए भाई शिरीष अनुनाद ने क्या खूब लिखा हैः
तस्वीर खींचना तकनीकी कुशलता से ज़्यादा एक कलाकार मन का काम है – वह मन अपने जन पहचानता है,  अपनी प्रकृति जानता है,  उसे मालूम है कि दृश्य किस पल में सबसे ज़्यादा अर्थवान होगा – कब उसके आशय चमकेंगे।  मेरे लिए कोई भी कला अपने जन-सरोकारों में निवास करती है,  वही उसका उजाला होते हैं। फोटोग्राफी में बरसों से यह उजाला हमारे आसपास Kamal Joshi के रूप में मौजूद है – जब हम बच्चे थे तब से अब प्रौढ़ेपन की कगार पर खड़े होने तक कमल दा उसी ऊर्जा से हमारे साथ बने हुए हैं – हमें हमारा संसार दिखाते।  2008 मैं मैंने ख़ुद देखा है हिंदी के ज़िद भरे मद भरे अदबी चेहरों के बीच हाथ में कैमरा संभाले एक मनुष्य इस तरह हड़बड़ाता हुआ गुज़रता है कि उस बज़्म में उस क्षण मनुष्यता के नाम पर वही भर दिपता है।
वो जो दुनिया की हर कमीनगी को शर्मिन्दा करता अच्छाई और भोलेपन का महान आख्यान हैं आज भी – दिल उनके लिए सलामो-आदाब से हमेशा भरा है।

About The Author

पलाश विश्वास । लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। “अमेरिका से सावधान “उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना। पलाश जी हस्तक्षेप के सम्मानित स्तंभकार हैं।

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