प्रमोद जोशी
वरिष्ठ पत्रकार
हिंदी से जुड़े मसले, पत्रकारिता से जुड़े सवाल और हिंदी पत्रकारिता की चुनौतियां किसी एक मोड़ पर जाकर मिलती हैं। कई प्रकार के अंतर्विरोधों ने हमें घेरा है। सबसे बड़ी बात यह है कि यह कारोबार जिस लिहाज से बढ़ा है उस कदर पत्रकारिता की गुणवत्ता नहीं सुधरी। मीडिया संस्थान कारोबारी हितों को लेकर बेहद संवेदनशील हैं, पर पाठकों के प्रति अपनी जिम्मेदारी को निभा नहीं पाते हैं। इस बिजनेस में परम्परागत मीडिया हाउसों के मुकाबले चिटफंड कंपनियां, बिल्डर, शिक्षा के तिज़ारती और योग-आश्रमों तथा मठों से जुड़े लोग शामिल होने को उतावले हैं, जिनका उद्देश्य जल्दी पैसा कमाने के अलावा राजनीति और प्रशासन के बीच रसूख कायम करना है। हिंदी का मीडिया स्थानीय स्तर पर छुटभैया राजनीति के साथ तालमेल करता हुआ विकसित हुआ है।
हाल के वर्षों में अखबारों पर राजनीतिक झुकाव, जातीय-साम्प्रदायिक संकीर्णता और मसाला-मस्ती बेचने का आरोप है। उन्होंने गम्भीर विमर्श को त्याग कर सनसनी फैलाना शुरू कर दिया है। उनके संवाद संकलन में खोज-पड़ताल, विश्लेषण और सामाजिक प्रश्नों की कमी होती जा रही है। निष्पक्ष और स्वतंत्र टिप्पणियों का अभाव है, बल्कि अक्सर वह महत्वपूर्ण प्रश्नों पर अपनी राय नहीं देता। जीवन, समाज, राजनीति और प्रशासन पर उसका प्रभाव यानी साख कम हो रही है। मेधावी नौजवानों को हम इस व्यवसाय से जोड़ने में विफल हैं।
हिंदी का पहला अखबार 1826 में निकला और एक साल बाद ही बन्द हो गया। कानपुर से कलकत्ता गए पंडित जुगल किशोर शुक्ल के मन में इस बात को लेकर तड़प थी कि बांग्ला और फारसी में अखबार है। हिंदी वालों के हित के हेत में कुछ होना चाहिए। इस बात को 188 साल हो गए। हम ‘उदंत मार्तंड’ के प्रकाशन का हर साल समारोह मनाते हुए यह भूल जाते हैं कि वह अखबार बंद इसलिए हुआ क्योंकि उसे चलाने लायक समर्थन नहीं मिला। पं जुगल किशोर शुक्ल ने बड़ी कड़वाहट के साथ अपने पाठकों और संरक्षकों को कोसते हुए उसे बंद करने की घोषणा की थी। आज इस कारोबार में पैसे की कमी नहीं है। पर पाठक से कनेक्ट कम हो रहा है।
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