मंगलवार, 3 जून 2014

हम एक गडकरी टाइप का कूलर ले आए हैं

हमरे मामा कहा करते हैं कि‍ जब भी बजार में मजूर लाने जाओ, कभी मोटा मजूर न चुनना। बैइठ के ससुरे बीड़ी फूंकते रहते हैं और चार मंजि‍ल चढ़ने पर हांफा छूट जाता है। यह लि‍ए ठोंक बजा के देख लेना, हड्डी से टन की आवाज आए तो समझ लेना कि‍ आदमी काम का है। 

और अब हम ये दावा खुद अपने आप पर ठोंकना चाहते हैं, हलांकि‍ जबसे मकान शि‍फ्ट कि‍ए हैं, हथौड़ी का जनी कहां हेरा गई है और दरवाजे पर टांगने वाला परदा रोज हमारे खटि‍या खाली करने के बाद खंचही खटि‍या की टूटी ओरदावन ढंकने के काम आ रहा है। इतने में हम बस यही सोचके संतोख कि‍ए हुए हैं कि‍ चलो... दरवाजा न सही, ओरदावन तो ढंकने के काम आ रहा है। बहरहाल, हमारा दावा अभी भी हमारे ऊपर ठुंका हुआ है कि हम बहुत मेनहती पुरुस हैं। और हमारी बात मान लीजि‍ए कि‍ रोज झाड़ू लगाना, खाना पकाना अउर बरतन धोना को न कभी भारतीय समाज मि‍नहत माना है ना मानेगा, तो ऊ तो हम रोज करते हैं पर हमको गि‍नवाने की दरकार नहीं है। ऊ कौनो मि‍नहत है जी... सब कर लेते हैं। असली मि‍नहत वाला काम तो अभी आगे आने वाला है।

हां तो पावती मि‍ले कि‍ परसों ही हम एक गडकरी टाइप का कूलर ले आए हैं। जैसा उसका साइज वैसा ही उसका भ्रष्‍टाचार। मने पूरा कमरा कि‍तनो गरम हो, आग से भकाभक जल रहा हो, मजाल है कि‍ पांच मि‍नट बाद चादर न ओढ़ा दे। अइसा तो हरहरा के चलता है कि‍ आखि‍री टाइम कब हम महायानी मुद्रा में लेटे थे, कब फि‍री होकर सोए, यादे नै आ रहा है। हमको अगर रच्‍चौ बि‍स्‍सास होता कि‍ हमारा पराकि‍रति‍क स्‍वरूप ई हमसे सोख लेगा, फूंक मारके सबकुछ उड़ा देगा, तो हम इसको लाते... मने सपनो में लाने की न सोचते, भले हमरे सपने की बैसाखी बार बार टूट जाती और भले ही करीना उसे फेवीकोल लगाके जोड़ देती। जादा सोचे नहीं, इसलि‍ए कूलर ले आए। सोचते तो पंखा भी न लेकर आते।

सुबइहैं हमारी नई कामवाली पूरी दरभंगा मेल बनी हुई आई औ झाड़ू खोदके उठाई कि‍ जल्‍दी से कूलर का कुछ करि‍ए, उसमें पानी एकदम दि‍खा ही नहीं रहा है। औ टेंट भी ढीली करि‍ए, हमको दू सौ रुपि‍या चाहि‍ए और दूध का पइसा अलग से दीजि‍ए। हम उठे तो देखे कि‍ कूलर एकदमे सूखा पड़ा है औ फि‍रि‍ज में रखा दूध भी पता नहीं कैसे दही की शकल का हो गया है। दूध का दही कैसे बना, इस बारे में सेपरेटली बात करेंगे, लेकि‍न पहले जो बात बता रहे हैं, उसे सुनि‍ए, ज्‍यादा इधर उधर लबर सबर करेंगे तो मेन बात तो रहि‍ये जाएगी ना। सबकुछ देख दाख के हम वापि‍स बि‍स्‍तर पर आए और कूलर में जो रेगि‍स्‍तान बन गया था, सोचने लगे कि‍ उसको अपने आजकल के मन की तरह हरि‍यर बाग बगीचा में कइसे बदलें। कइसे हमको जो पि‍राकि‍रति‍क होने का मौका मि‍ला है, उसे मानव निर्मित सामान अप्‍लाई करके अपि‍राकि‍रति‍क कर दें। अब आखि‍र हमेसा हमेसा परकि‍रती का रक्षा करके मसीन थोड़े बचा पाएंगे। टेंट से हजारन रुपि‍या बहि‍रि‍याए थे, तब तो दि‍माग में कौनो बत्‍ती चि‍राग न जला न दि‍ल में कौनो कमल दल खि‍ल रहा था। तब तो बस दि‍माग में बस एक्‍कै चीज था कि कइसे इस अगलगी गरमी को दूर करें।

बहरहाल, हम उठे, बि‍गेर कुछ तय कि‍ए उठे, लेकि‍न फि‍र भी चूंकि‍ हमें उठना ही था, इसलि‍ए उठे। ऊ का है कि झाड़ू लगाने के बास्‍ते हमारी दरभंगा मेल हमको बार बार बोल रही थी, त उठना ही पड़ा। अब जब उठ ही गए, हलांकि‍ हमारा कौनो खास मन नहीं था उठने का तो हम कमरे से बाहर नि‍कल आए। कमरे से बाहर नि‍कले तो देखे कि हम तो आंगन में खड़े हैं। खैर, हमने अपने आंगन से पूरे 47 मि‍नट तक बात की और अपनी मकान मलकि‍न को बता दि‍या कि‍ देखि‍ए, ई बातचीत में से सिर्फ इतना ही लीक होना चाहि‍ए कि‍ हम बहुत नाराज हुए। का नाराज हुए, का बोले, का सुने, ई सब बात का डि‍टेलि‍न में कि‍सी का भी, हम रि‍पीटि‍या रहे हैं, कि‍सी का भी बताने का कौनो दरकार नहीं ना है। 47 मि‍नट बाद हमको याद आया कि‍ आंगन में तो एक ठो रबर वाला पाइप रखा है। हम पाइप तुरंत उठा लाए औ उसको नल से कनेक्‍ट कर दि‍ए। अब देखे कि‍ दूसरका छोर तो पाइक के दूसरके छोर पर जाके एकदमे सूखा पड़ा है। दुसरका छोर एकदम सुरच्‍छि‍त देखे तो उसे लेजाकर कूल में ठूंस दि‍ए। फि‍र हम वापस आए। वापस आने के बाद हम गोल गोल घुमाकर नल की टोंटी खोल दि‍ए और वापस अपने बि‍स्‍तरा पर जाकर ओलर गए। पांच मि‍नट बाद हम फि‍र से चादर ओढ़ लि‍ए औ कूलर को नि‍हारते रहे।

(लोड ना लो भाई। बात इतनी सी है कि‍ सुबह कूलर में पानी खत्‍म हो गया था, उठके पानी भरे थे.... बस) 

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