सोमवार, 16 जून 2014

मृत्यु पूर्व बयान मूल शब्दों में नहीं होने पर संदेह के घेरे में


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उच्चतम न्यायालय ने आज व्यवस्था दी कि मृत्यु पूर्व दिये बयान की विश्वसनीयता संदेह के दायरे में आयेगी यदि यह पीड़ित के ‘अपने शब्दों’ में नहीं है और किसी अन्य ने लिखवाया है। न्यायमूर्ति आर एम लोढ़ा और न्यायमूर्ति शिव कीर्ति सिंह की खंडपीठ ने अपनी व्यवस्था में कहा, 
‘‘मृत्यु पूर्व दिये गये बयान से पवित्रता जुड़ी होती है क्योंकि यह मृत्यु शैया पर पड़े व्यक्ति के मुंह से आ रहा होता है।’’

न्यायाधीशों ने कहा, 

‘‘यदि मृत्यु पूर्व बयान इसे देने वाले व्यक्ति के ही शब्दों में प्रत्यक्ष रूप से रिकार्ड नहीं किया गया लेकिन किसी अन्य के द्वारा लिखाया गया तो हमारी राय में यह अपने आप में ऐसे बयान की विश्वसनीयता पर संदेह पैदा करता है और अभियोजन को अदालत की संतुष्टि के अनुरूप स्थिति स्पष्ट करनी होगी।’’

न्यायालय ने इसके साथ ही 2002 में हत्या के एक मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय का निर्णय निरस्त कर दिया। उच्च न्यायालय ने इस मामले में तीन अभियुक्तों को बरी करने का निचली अदालत का निर्णय पलट दिया था। न्यायाधीशों ने निचली अदालत के निर्णय को सही ठहराते हुये मृत्यु पूर्व बयान में ‘समय के बारे में उपरिलेखन (ओवर राइटिंग) और ‘दूसरी स्याही’ से दो नामों को शामिल करने के तथ्य पर विचार किया और कहा कि अदालत ने अभियुक्तों को संदेह का लाभ देकर सही किया था।

न्यायालय ने कहा कि बरी किये जाने के खिलाफ अपील के मामले में अभियुक्त ‘संदेह का लाभ पाने के हकदार हैं’ क्योंकि निचली अदालत ही इस निष्कर्ष पर पहुंची थी जिसके पास गवाहों और साक्ष्यों के आकलन करने का लाभ था। न्यायालय ने विभिन्न फैसलों का हवाला देते हुये कहा कि अपीली अदालतों को ऐसे निर्णय के खिलाफ अपील पर फैसला करते समय आरोपी व्यक्ति के निर्दोष माने जाने सहित कई बिन्दुओं को ध्यान में रखना चाहिए और ऐसा आकलन आरोपी के बरी होने के आदेश से अधिक मजबूत हो जाता है।

न्यायालय ने कहा कि ऐसे मामलों में अभियुक्त संदेह के उचित लाभ का अधिकारी होता है। इस मामले में कर्नाटक के माण्डया जिले में पीड़ित प्रदीप के बयान के आधार पर 17 अगस्त, 2002 को प्राथमिकी दर्ज की गयी थी। प्रदीप की बाद में मृत्यु हो गयी और उसके बयान को मृत्यु पूर्व दिया गया बयान माना गया था।

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