पुण्य प्रसून बाजपेयी
लहू-लुहान नजारों का जिक्र आया / तो शरीफ लोग उठे, दूर जा कर बैठ गये। दुष्यंत कुमार की यह दो लाइन दिल्ली की सत्ता के आंदोलन में बदलने का सच तो जरुर है। जिस तरह सत्ता के प्रतीक लुटियन्स की दिल्ली के सबसे वीवीआईपी चौराहे पर सरेराह दिल्ली का मुख्यमंत्री सत्ता को ही चुनौती देते हुये बैठा और जिस अंदाज में बौद्दिक तबका इसे अराजकता करार देने के लिये कमरों में बहस गरम करने लगा उसने पहली बार इसके संकेत तो दे ही दिये कि मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था कटघरे में है। क्योंकि जो आंदोलन या संघर्ष सत्ता पाने के लिये होता है वही आंदोलन या संघर्ष सत्ता पाने के बाद कैसे हो सकता है। यह सवाल बौद्दिकों की जमात से लेकर हर उस शरीफ को दिल्ली में परेशान किये हुये था जिसकी हथेली पर बंधी घडी ही जिन्दगी में वक्त की पहली और आखिरी जरुरत बन चुकी है। समाज की पीड़ा। असमानता का संघर्ष। सत्ता की तिकड़म। कानून या सिस्टम की दुहाई। इसी उघेड़बून में सत्ता संघर्ष और आंदोलनों से सत्ता पाने वालो को कैसे बदल देती है, यह कोई छिपा हुआ सच नहीं है। तो केजरीवाल का रास्ता सत्ता के प्रतिकूल हो या अराजकता के अनुकूल। दोनों परिस्थितियों ने एक सच तो हर किसी के सामने ला ही दिया है कि चुनी हुई सरकार का हर नया कदम उसके वोटरों की आंखो में सपने जगाता है। तो सवाल दिल्ली में हाशिये पर पड़े तबके और देश के हर कोने से दिल्ली को आस या निराश हो कर देखती आंखो में जागते सपने या घुमड़ता आक्रोश के पीछे आम आदमी पार्टी का सच सत्ता पाने के बाद आंदोलन की जमीन पर क्या है। चूंकिं लेखक ने भी दिल्ली के आंदोलन चौराहे पर 32 में से 22 घंटे गुजारे और पल पल हर परिस्थितियों से जुझते हुये दिल्ली के सीएम या कहे "आप" के सर्वेसर्वा केजरीवाल को देखा समझा तो कई सवालों ने जन्म लिया।
सीएम होकर भी आंदोलन के लिये सडक पर बैठे अरविन्द केजरीवाल ने बेहद बारीकी से सत्ता के दायरे में अपने बंधे हाथ को तो दिखाया लेकिन हाथ खुल भी जाये तो क्या सत्ता उस पटरी पर दौड़ सकती है, जिसे केजरीवाल स्वराज के जरीये "आप" की व्याख्या कर रहे हैं। तो पहले "आप" के हालात को समझें। आंदोलन के वक्त केजरीवाल का मतलब "आप" भी था और "आप" का संगठन भी। सरकार कैसे सड़क से चले और सड़क पर क्या क्या फैसले ले इसके केन्द्र में भी केजवाल ही थे। यानी गवर्नेस से लेकर रणनीति बनाने के हुनरमंद भी केजरीवाल। तो "आप" के जरीये पलते बड़े बड़े सपनों के केन्द्र में राजनीतिक दल "आप" का कद भी केजरीवाल से छोटा है। और संगठन से लेकर सरकार के भीतर कोई पहचान केजरीवाल से इतर अभी तक किसी की बनी नहीं है। चूंकि लंबी लडाई लडने के लिये "आप" का विस्तार केजरीवाल से बड़ा होना चाहिये तो वह हो नहीं पाया है तो इसका असर आंदोलन के दौरान ही नजर आया । "आप" की पहचान सिर्फ मुझे चाहिये स्वराज और मैं आम आदमी हूं के नारे लगाती सफेद टोपी से आगे दिखायी नहीं दी। टोपी ही पार्टी और टोपी ही कार्यकर्ता। टोपी ही विधायक और टोपी ही मंत्री। यह अच्छी बात लग सकती है कि कोई छोटा बड़ा नहीं है। लेकिन व्यवस्था का हिस्सा बनकर जब व्यवस्था को बदलने की बात होगी जिसे "आप" ने अपनाया है तो फिर संघर्ष सड़क से ज्यादा सिस्टम के भीतर होगा। जिससे दो दो हाथ करने में कैसे "आप" चूक रही है यह दिल्ली में "आप" के विधायकों से लेकर मंत्रियों की खामोश पहल ने आंदोलन चौराहे पर टिका दिया। केजरीवाल और मनीष सिसोदिया के इर्द-गिर्द सरकार, संगठन, आंदोलन सिमटा तो कटघरे में खड़े कैबिनेट मंत्री सोमनाथ भारती और राखी बिरला तक को समझ नहीं आया कि आंदोलन के दौरान सरकार चलाते हुये संघर्ष का एहसास आंदोलन की जमीन से कैसे दिया जाये। कंबल-दरी और रजाई की व्यवस्था कराने में दिल्ली के कैबिनेट मंत्री जुट गए। विधायकों की भूमिका मूक कार्यकर्ताओं के तौर पर सिर्फ मौजूदगी बताने-दिखाने की रही। जो छिट-पुट कार्यकर्ता थे, जिनकी तादाद तीन सौ से पाचं सौ से ज्यादा कभी हो नहीं पायी वह सिवाय ताली बजाकर नारे लगाने और चंद घंटो में थक कर बैठने के आगे कुछ कर नहीं पाये। पहचान पाये "आप" के नेताओ में योगेन्द्र यादव से लेकर आशुतोष और संजय सिह तक के पास न्यूज चैनलों के कैमरे पर बैठने के अलावे ज्यादा कोई काम नहीं था। और मीडिया की चकाचौंध में मीडिया का नजरिया ही धीरे धीरे "आप" के आंदोलन की दिशा निर्धारित करने लगा। असर इसी का हुआ कि 32 घंटे में ही जिस तरह मीडिया का रुख केजरीवाल के आंदोलन को लेकर बौद्दिक बहसों में उलझा और उच्च-मध्य वर्ग की मुश्किलो को लेकर सामने आया वैसे ही सड़क का संघर्ष अराजक हालात पैदा करने वाला होने लगा। और यह बहस शुरु हो गई कि कैसे और कितनी जल्दी आंदोलन से निकल कर दोबारा गवर्नेस का दरवाजा पकड़ा जाये। इसकी वजह आंदोलन से ज्यादा "आप" के भीतर की अराजकता पर लगाम लगाने या कोई अनुशासन ना बना पाने के हालात से पैदा हुआ।
बावजूद इन सबके "आप" के हालात से कही ज्यादा बदतर हालात चूकि मौजूदा राजनीतिक व्यवस्था के है। और इसका लाभ कच्ची मिट्टी का होने के बावजूद आम आदमी पार्टी को मिल रहा है। क्योंकि विकास की नीतियों के नाम पर देश में लूट मची है। मंत्री पद हो या विधायक सा सांसद या फिर नौकरशाही का अंदाज जिस तरीके से गवर्नेस के नाम पर देश में अराजक हालात पैदा कर रहा है, उसमें सडक पर खड़े हर आम शख्स को यह लगने लगा है कि उसकी भागेदारी जिस भी तरह हो वही सबसे बेहतर है। उसके हक में केजरीवाल सचिवालय से दस्तावेजो पर हस्ताक्षर करके काम करें या सडक पर उतर कर काम करें। वह बेहतर है। क्योंकि संघर्ष में बराबर की भागेदारी तो नजर आ रही है .बंगले में बैठ कर सिर्फ टीवी स्क्रीन पर नाता या मंत्री चिल्लम-पो तो नहीं कर रहा है। तो फिर केजरीवाल का सीएम होकर सडक पर उतरना हो या "आप" के दायरे में विधायक से लेकर मंत्री तक की कोई पहचान ना हो उसी भोलेपन को ही आम आदमी खुद से जोड़कर बदलाव के सपने देखने लगा है। ध्यान दें तो केजरीवाल या "आप" की हर अपरिपक्वता मौजूदा अराजक या लूट तंत्र के सामने बेहद मजबूत इसीलिये है क्योंकि देश में सरकारे वोट से ही बनती बिगड़ सकती है इसका एहसास हर राजनीतिक दल को है। वजह भी यही है कि लुटियन्स की दिल्ली में संसद किनारे कंबल बिछाकर सड़क पर ही केजरीवाल अगर ठंडी रात में रजाई ओढ कर रात गुजारता है तो आंदोलन को अराजक करार देने वाला बोद्दिक वर्ग भी पहली बहस इसी बात को लेकर करता है कि मानवीय परिस्तितियो को भी अराजक करार देकर धरना तुड़वाना महत्वपूर्ण है।
दरअसल, यह सारी परिस्थितियां पहली बार संसदीय राजनीतिक व्यवस्था के भीतर की उस शून्यता को उभार रही है, जिसे भरने के लिये किसी भी राजनीतिक दल से ज्यादा देश का आम आदमी बेचैन है। यह विकल्प भी हो सकता है और भरोसा तोड़ रही राजसत्ता के खिलाफ विद्रोह भी। मुश्किल सिर्फ इतनी है कि केजरीवाल का पांसा बिना पूरी तैयारी के राजनीति की ऐसी लकीर खींच रहा है, जहां आम आदमी तो हर बदलाव के लिये तैयार है लेकिन हर मोड़ पर उसके सामने "आप" विकल्प ना होकर "आप" का विक्लप भी सोचना पड रहा है। इसी का लाभ फिर वहीं कांग्रेस और बीजेपी उठाना चाह रही है, जिसे खारिज करके दिल्ली के वोटरो ने "आप" को सत्ता तक पहुंचाया। इसलिये दुष्यंत को अब पढ़े, लहू-लुहान नजारों का जिक्र आया तो / शरीफ लोग उठे , दूर जा कर बैठ गये।
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