स्त्री विरोधी धारणाओं की बुनियाद पर बने समाज की परतों को कुरेदती नोरा बेहद सिलसिलेबार ढंग से अपनी कहानी कहती है. यह कहानी शुरु होती है, लता से जो एक बेटे की चाह लिए एक अस्पताल के बिस्तर में करवटे बदलती है. अंतोगत्वा उसके एक बेटी ही होती है. लता की बड़ी बेटी बेबी और मां दोनों उस नवजात का तिरस्कार है. महज तीन साल की बेबी के मन में भाई की चाहत ठूंस ठूंस कर भर दी गई थी. लता की मां के सीने पर तो मानों सांप ही लोट गया. वह उस अबोध बच्ची को कलूटी कहकर पुकारती है. यहां से शुरु होती नोरा की संघर्ष यात्रा. पढ़ने लिखने में तेज नोरा तमाम विरोधों के बावजूद शहर में पीएचडी करने पहुंचती है. वहां उसकी मुलाकात विवेक से होती है. विवेक विवाहित है, लेकिन वह जबरन नोरा से संबंध बनाता है. अपनी नियति मानकर वह विवेक के साथ रहती है. लेकिन विवेक मात्र दैहिक सुख ही उससे चाहता है. इस दरम्यान खान साहब उसके जीवन में आते हैं. विवेक के व्यवहार से दुखी नोरा खान साहब के प्रेम को स्वीकारती है. प्रेम प्रस्ताव खान साहब की तरफ से ही रखा गया था. लेकिन बाद में वह भी शहर में सांप्रदायिक माहौल के चलते उसे टालते हैं. आखिर में वह अपने गांव के एक हीरा भाई के घर पहुंचती है. बचपन में राखी बंधवाने वाला हीरा भी उससे दैहिक सुख की कामना करता है. वह उसे ठुकरा देती है. लेकिन कहानी का अंत यहां पर नहीं होता है. उसकी जिंदगी में अजय आता है. अजय पढ़ा लिखा शालीन लड़का है. लेकिन वह भी देह सुख भोगकर उसके हाथ में अपनी शादी का कार्ड थमा देता है. उस पर अजय के दोस्त का यह कहना कि अजय अपने पौरुष को नोरा से संबंध बनाकर जांच रहा था. अजय बताता है कि बचपन में किस तरह सारे लड़के खड़े होकर पेशाब की धार को दूर तक फेंकने का खेल खेलते थे. धार सबसे ज्यादा दूर फेकने वाला विजयी होता था. लेकिन अजय की धार सबसे पीछे होती थी. तभी से उसे अपने पौरुष को लेकर चिंता रहती थी. वही जांचने के लिए उसने नोरा को चुना था. नोरा एक बार फिर पुरुष मानसिकता का शिकार होती है. पर इस प्रसंग को बताने के लिए बीच में पुरुषत्व की जांच के लिए पेशाब की धार के खेल का उदाहरण कहीं न कहीं पुरुषवादी सोच का मजाक उड़ाता है. आखिर में नोरा अकेली ही है, पर हताश नहीं. गंगा, यमुना, सरस्वती के संगम स्थल पर खड़ी नोरा गंगा को देखती है, श्वेत उज्जवल गंगा. जिसे तरह से तरह से लोग मैला करते हैं, पर वह पवित्र है. वह अपनी सहेलियों को याद करती है कामिनी जो सरस्वती की तरह लुप्त हो गई. देश छोड़ विदेश जा बसी. माया जो अनाथाश्रम के बच्चों में व्यस्त है. पर नोरा इस समाज की धारा के विपरीत बह रही है. पुरुषवादी सोच से बने इस दिखावटी समाज में वह प्रकृति से जाने अनजाने खुद को बार-बार जोड़ती है. किताब के शुरू में दर्ज यह पंक्तियां रात का घना अंधकार! रह रहकर मेघ तेज स्वरों में गरज रहे हैं. बिजली भी चमक रही है…नोरा को बिजली अपनी उन छोटी छोटी उपलब्धियों की तरह लगती है, जो बीच-बीच में उसके निराश मन को रोशनी से भर देती है. आत्महत्या का विचार त्याग वह आकाश की तरफ मुस्कराकर देखती है और कहती है, तो नहीं चाहता तू कि मैं मर जाऊं. जिंदा रखना चाहता है, पर क्यों? किसके लिए ? …झुंझलायी नोरा को अचानक ख्याल आता है कि वह कड़कती बिजली को अपने मोबाइल के कैमरे में कैद कर ले. वह फिर जुट जाती उस कड़कती बिजली को अपने मोबाइल में कैद करने में. आखिरकार बहुत मशक्कत के बाद इसे इसमें कामयाबी मिलती है. निराश नोरा उस कड़कती बिजली को देर रात तक देखती रहती है. निराशा के अंधेरे को चीरकर कड़कती बिजली उसमें उम्मीद भरती है. आखिरी अध्याय के आखिर में नोरा फिर गंगा किनारे खड़े होकर गरजते मेघों के बीच अपने आदम को याद करती है. वह मन ही मन पूछती है, अब कब आएगा! क्या उससे इस धरती पर मिलन नहीं होगा. नोरा रो रही है, मेघ बरस रहे हैं. वह प्रकृति में गुम है. प्रकृति उसकी है, वह प्रकृति की है.
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