अपने आप को धुरंधर कहलाने वाले रणनीतिकार कई बार बहुत अनपेक्षित स्थितियों में घिर जाते हैं। जमाते इस्लामी बांगलादेश के सर्वशक्तिशाली नेता रहे गुलाम आज़म, जिनकी पिछले सप्ताह बांगलादेश की जेल में 92 साल की उम्र में मौत हुई, उन्होंने शायद इस पुराने मुहावरे पर अपने अन्तिम दिनों में गौर किया होगा। अभी पिछले साल जुलाई की ही बात है जब उन्हें इन्सानियत के खिलाफ अपराधों को अंजाम देने के लिए 90 साल की कैद की सज़ा सुनायी गयी थी। यह उन दिनों की बात है जब तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान – आज का बांगलादेश- की जनता अपनी स्वाधीनता के लिए पाकिस्तानी सेना के खिलाफ उठ खड़ी हुई थी और गुलाम आज़म और जमात के उसके सहयोगियों ने पाक सेना का साथ दिया था और स्वाधीनताकामी जनता पर जुल्म ढाए थे।
जाहिर था जब उन्हें दफनाया जा रहा था तो बांगलादेश में कई स्थानों पर जोरदार प्रदर्शन हुए। यह मांग भी की गयी कि लाश का अन्तिम संस्कार बांगलादेश की धरती पर न किया जाए और उसे पाकिस्तान भेज दिया जाए। ढाका की बैतुल मुकरम राष्ट्ररीय मस्जिद जहाँ उनकी लाश को जनाजे़ की आखरी नमाज़ के लिए ले जाया जा रहा था, वहाँ मानवश्रंखला बना कर खड़े लोगों की अगुआई कर रहे जियाउल हसन, जो बांगलादेश सम्मिलितो इस्लामी जोत, जो प्रगतिशील इस्लामिक पार्टियों का गठबन्धन है, उन्होंने पत्रकारों से कहा कि ‘एक युद्ध अपराधी की जनाजे़ की नमाज़ को राष्ट्रीय मस्जिद में नहीं अता करना चाहिए। (द टेलिग्राफ, 27 अक्तूबर 2014)
यह बात अब इतिहास हो चुकी है कि तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान की जमाते इस्लामी के आमीर होने के नाते गुलाम आज़म ने किस तरह पाकिस्तानी सेना के साथ सांठगांठ करने में अहम भूमिका अदा की थी- शान्ति कमेटी, रज़ाकार, अल बदर और अल शम्स जैसे संगठनों को बना कर जनता के मुक्तियुद्ध कुचलने के लिए तरह तरह की कारगुजारियाँ की थीं। बांगलादेश आज़ाद होने के चन्द रोज पहले- दिसम्बर 71 में – अल बदर को यह जिम्मा सौंपा गया था कि वह उन तमाम बुद्धिजीवियों एवं सांस्कृतिक कर्मियों का कतलेआम करे, जिन्होंने बांगलादेश की स्वाधीनता की मांग का समर्थन किया था। उस स्याह रात को ढाका विश्वविद्यालय से लेकर अन्य स्थानों से- पहले से चिन्हित किए मुल्क की तमाम अग्रणी बुद्धिजीवी शख्सियतों को मौत के घाट उतारा गया था।
बांगलादेश के उदय से जुड़े इस रक्तिम अध्याय से जुड़े तथ्यों को बार बार उदधत किया जाता रहा है। बांगलादेश की सरकार का कहना रहा है कि इस मुक्तियुद्ध में तीस लाख से अधिक लोग मारे गए, जबकि बीबीसी के मुताबिक मरनेवालो की तादाद तीन से पाँच लाख तक थी। बांगलादेश में मिली शिकस्त के बाद पाकिस्तान सरकार द्वारा 71 की इस पराजय के कारणों का विश्लेषण करने के लिए बनाए गए हमीदूर रहमान कमीशन- जिसने कुछ गलतियों को स्वीकारा था- ने नागरिकों की मौत की संख्या 26,000 बतायी थी। अगर हम पाकिस्तान सरकार के आंकड़ों को ही सही मान लें तो भी साफ है कि नौ माह तक चले इस मुक्तियुद्ध में रोजाना सैकड़ों लोगों को मौत के घाटा उतारा गया था।
गुलाम आज़म के बारे में यह बात भी रेखांकित करने लायक है कि बांगलादेश की मुक्ति के बाद भी उसने उसके खिलाफ अपनी मुहिम जारी रखी थी, जब उसने पूर्वी पाकिस्तान के पुनर्जीवन की पुरजोर कोशिश की और मुस्लिम बहुल मुल्कों तथा पश्चिमी देशों में नई सरकार के विरोध में प्रचार जारी रखा। 1975 में शेख मुजीबुर रहमान एवं लगभग उनके समूचे परिवार की हत्या के बाद जब वहाँ राजनीतिक अस्थिरता का माहौल बना तब 11 अगस्त 1975 को वह पाकिस्तान के पासपोर्ट पर बांगलादेश लौट आए थे, बाद में उनकी नागरिकता भी बहाल की गयी थी और वह जमाते इस्लामी बांगलादेश के आमीर भी बनाए गए थे।
निश्चित ही यह कोई प्रतीकात्मक वापसी नहीं थी। जैसा कि ‘अलालोदुलाल ब्लाग में जहूर अहमद बताते हैं / गुलाम आज़म, एन अनइरेजेबल स्कार, 26 अक्तूबर 2014/ ‘ अतिदक्षिणपंथी इस्लामिक विचारधारा की वापसी का रास्ता उन्होंने सुगम किया, मगर इस बार अधिक तैयारी के साथ ताकि पार्टी अर्थात जमाते इस्लामी जड़े जमा सके। 1971 में हुई गलतियों एवं लापरवाहियों का समाहार करते हुए उन्होंने छात्रों के बीच पार्टी का मजबूत आधार तैयार किया और प्रतिबद्ध कार्यकर्ताओं के जरिए पार्टी ने नौकरशाही, राजनीतिक तबकों, बिजनेस और वित्तीय क्षेत्र तथा अकादमिक जगत में अपनी पैठ बनायी। इसवी 2000 के पूर्वार्द्ध में स्थिति यह बनी थी कि पार्टी को महत्वपूर्ण कैबिनेट मंत्रलय हासिल हो सके।’
वह यह भी स्पष्ट करते हैं कि ‘1971 या उसके बाद अपनी भूमिका को लेकर और उस दौरान अपने ही देशवासियों पर जुल्म ढाने को लेकर उन्हें कोई पश्चात्ताप नही था क्योंकि वह शायद किसी ‘महान लक्ष्य’ से प्रेरित थे, शरीयत की कानूनी व्यवस्था के आधार पर इस्लामिक राज्य का निर्माण करना’।
वैसे बांगलादेश सरकार द्वारा गठित अन्तरराष्टीय अपराध अभिकरण/ट्रिब्युनल के सामने पेश होने वाली विवादास्पद शख्सियतों में वह अकेले ही शामिल नहीं थे। बांगलादेश की शेख हसीना सरकार द्वारा 2010 में गठित इस ट्रिब्युनल के सामने उनके तमाम सहयोगियों को भी पेश किया गया और सज़ा सुनायी गयी।
एक विश्लेषक का बिल्कुल ठीक कहना था कि गुलाम आज़म को सज़ा सुनाया जाना उन तमाम लोगों के मुंह पर एक करारा तमाचा था जिन्होंने वीसा समाप्ति के बाद भी बांगलादेश में उनके रहने पर आपत्ति दर्ज नहीं की थी और जो स्वतंत्रता आन्दोलन में उनकी विवादास्पद भूमिका को उठाने को तैयार नहीं थे और जिन्हें उनके नेत्रत्ववाली जमाते इस्लामी के साथ सत्ता में साझेदारी करने में कोई एतराज नहीं था। वर्ष 1991 में बांगलादेश नेशनेलिस्ट पार्टी/बीएनपी/ ने जमात के सहयोग से केन्द्र में सरकार बनायी थी और वर्ष 1998 में बीएनपी और जमात ने चार पार्टियों वाली गठबन्धन सरकार बनायी और नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री खालिदा जिया के साथ एक विशाल आम सभा में गुलाम आज़म ने भी शिरकत की थी। शायद यही वजह रही होगी कि गुलाम आज़म को यह भरोसा था कि उन्हें कोई छू नहीं सकेगा। दिसम्बर 13, 2011 को युद्ध अपराधों को लेकर हुई उनकी गिरफतारी के महज 29 दिन पहले एक अख़बार को उन्होंने बताया था कि ‘अदालत को उनके खिलाफ कुछ सबूत नहीं मिलेगा जिसके लिए उन्हें राष्ट्र से माफी मांगनी पड़े।’ (रिटर्न आफ द शू, दे डेली स्टार, 27 अक्तूबर 2014) और इसके अठारह माह बाद ही 1971 में जनसंहार को अंजाम देने और मानवता के खिलाफ अपराधों के लिए उन्हें दोषी ठहराया गया। अदालत का कहना था कि उन्हें सज़ा-ए-मौत मिलनी चाहिए मगर उनके बढ़ती उम्र और खराब स्वास्थ्य के लिए उन्हें 90 साल की कैद की सज़ा सुनायी गयी। ट्रिब्युनल ने अपने फैसले में कहा: ‘प्रोफेसर गुलाम आज़म ने एक ऐसे कर्णधार की भूमिका निभायी जो इस बात को प्रमाणित करता है कि उसका मकसद पाकिस्तान बचाने के नाम पर बंगाली मुल्क को तहस नहस करना था।
गुलाम आज़म की मौत पर लिखे अपने लेख में तनवीर हैदर चैधरी – जिनके अपने पिता विख्यात अकादमिक मुफज्जल हैदर चैधरी को अल बदर के आततायियों ने 1971 में मार डाला था – ने बखूबी लिखा:
‘नैतिक तौर पर इस अनिश्चित समयों में, हम अक्सर श्वेत और शाम के बीच मौजूद भूरी छटाओं की बात करते हैं। हम अपने आप को बताते है कि हमें चरम रूप में चीजों को देखना नहीं चाहिए, सामने वाले के नज़रिये से चीज़ों को देखना चाहिए। यह तमाम बातें बिल्कुल सही हैं। मगर इससे यह हक़ीकत नहीं बदलती कि इसी दुनिया में बुरी और अच्छी चीजें. हैं और कभी कभी हम जिस चुनाव को करते हैं, उसमें कोई अस्पष्टता नहीं होती। वह इस सच्चाई को नहीं बदलता कि गुलाम आज़म शैतान का प्रतिरूप था।’
निश्चित ही बांगलादेश की न्यायप्रिय जनता के आकलन के बरअक्स जमाते इस्लामी बांगलादेश और इस उपमहाद्वीप में उसके समानधर्मा संगठनों के लिए गुलाम आज़म ‘युद्ध अपराधी’ नहीं था बल्कि प्रेरणा का स्त्रोत था और प्रशंसा के काबिल था। और देश के अलग अलग हिस्सों में उन्होंने उनके न रहने के शोक को प्रकट किया। इस मामले में पाकिस्तान की जमाते इस्लामी भी पीछे नही रही।
यह एक जानी हुई बात है कि बांगलादेश की जमाते इस्लामी ने मुक्ति युद्ध की उसके द्वारा की गयी मुखालिफत और इस संघर्ष को बाधित करने के लिए उसने निभायी आपराधिक भूमिका की जिम्मेदारी लेने से हमेशा इन्कार किया है। युद्ध अपराधों में संलिप्तता को लेकर चले मुकदमों के प्रति भी उसने हमेशा बाधित करनेवाला रूख अख्तियार किया है। जमात के नेताओं और कार्यकर्ताओं की जनद्रोही भूमिका को लेकर मौजूद दस्तावेजी और अन्य प्रमाणों के बावजूद उसने हमेशा दावा किया है कि उनके नेताओं के खिलाफ चली कार्रवाईयाँ ‘राजनीतिक विद्वेष’ के चलते की जा रही हैं और ट्रिब्युनल के जजों पर उसने आरोप लगाया है कि उन्होंने निष्पक्षता का परिचय नहीं दिया है और मांग की है कि उसके नेताओं के खिलाफ चले मुकदमों को निरस्त किया जाए। अपने विरोध को प्रगट करने के लिए उसने अंधाधुंध हिंसा का सहारा लिया है, कारें जलायी हैं, सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाया है, विरोधियों को पीटा है और इन मुकदमों का समर्थन करनेवाले कार्यकर्ताओं की हत्या की है, यहाँ तक कि भीड़ में बम फेंक कर दहशत फैलाने की कोशिश की है।
निश्चित ही उससे इस सच्चाई पर असर नहीं पड़ता है कि न्याय का चक्र जब घुमता है तो वह किस तरह आततायियों को चपेट में लेता है। बांगलादेश के जानेमाने पत्रकार और ‘दे डेली स्टार’ अख़बार के कार्यकारी सम्पादक बदरूल एहसान ने गुलाम आज़म पर हुए फैसले के बाद पिछले साल लिखा था: (द डेली स्टार, 17 जुलाई 2013)
‘न्याय का चक्र हमेशा नहीं घूमता है, मगर जब वह चलता है तो यही साफ सन्देश देता है कि प्राचीन अपराधों को अंजाम देने वालों का भी फैसला ऐतिहासिक समय में होता है। गुलाम आज़म द्वारा अंजाम दिए गए अपराधों को लेकर प्रस्तुत फैसले का सन्देश यही है कि जो लोग अपराधों को अंजाम देते हैं उन्हें कभी न कभी उसकी सज़ा भुगतनी पड़ती है।..गुलाम आज़म का नाम उन लोगों की फेहरिश्त में शुमार हुआ है जिन्होंने निरपराधों को मार डाला या उसके लिए मदद दी और इसलिए कानून और इतिहास ने उनकी भत्र्सना की।’
इन फैसलों के बाद ही बांगलादेश की सर्वोच्च अदालत का यह फैसला आया था जिसमें जमात को भविष्य में चुनाव लड़ने से वंचित किया गया था। हालाँकि उसने उसे गैरकानूनी घोषित नहीं किया था, मगर यह कहा था कि चूँकि वह बांगलादेश के संविधान पर यकीं नहीं करते हैं, वह इस कदम को उठा रहे हैंर्।
इस तरह हम देख सकते हैं कि जन अपराधों को अंजाम देने वालों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए, उनके मातृ संगठनों की हरकतों को निगरानी में लाने के लिए चार दशक से अधिक वक्त़ बीत चुका है। मगर इस विलम्ब को समझा जा सकता है।
……………… जारी
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