— क़मर वहीद नक़वी
बलात्कार के जो मामले अदालत पहुँचते हैं, उनमें 74 फ़ीसदी मामलों में आरोपी क्यों बरी हो जाते हैं? प्रसव पूर्व लिंग परीक्षण निरोधी क़ानून में पिछले पन्द्रह सालों में केवल 20 मामलों में सज़ा हुई! दहेज हत्या के भी जो मामले अदालत तक पहुँच पाते हैं, उनमें भी 64 फ़ीसदी मामलों में आरोपी छूट जाते हैं! क्यों? छेड़छाड़, कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न, बलात्कार, दहेज हत्याएँ, कन्या भ्रूण हत्याएँ, तेजाब हमले, महिलाओं की तस्करी, इन सारे मामलों में ही क़ानून के हाथ तंग क्यों हो जाते हैं? अब आप आसानी से समझ सकते हैं कि महिलाओं के प्रति अपराधों में आख़िर क्यों कोई कमी नहीं आती?
अपने देश का एक स्थायी भाव है, ढर्रा! ढर्रे के आगे क्या है? ढर्रा ही है! ढर्रे के पीछे क्या था? ढर्रा ही था! सब कुछ बदल सकता है, ढर्रा नहीं बदल सकता!
रोहतक की दो मासूम बच्चियों की आत्महत्या की ख़बर आयी और चली गयी। दिल दहला देनेवाली ख़बर! इन बच्चियों की निराशा का अन्दाज़ लगाइए। कुछ लड़के इन्हें छेड़ते थे। इन्हें कहीं कोई रास्ता नहीं दिखा होगा! न समाज, न पुलिस, न सरकार, किसी से इन्हें रत्ती भर भी मदद की उम्मीद नहीं रही होगी। ऐसी लाचारी, ऐसी हताशा! अपनी आख़िरी चिट्ठियाँ लिख वह दुनिया से चली गयीं। किसे फ़िक्र है? कौन बदलेगा? सब वैसे ही अपने ढर्रे पर चल रहा है! चलता रहेगा।
कुछ साल पहले मध्य प्रदेश में अम्बिकापुर से ऐसी ही दिल दहला देनेवाली ख़बर आयी थी। एक लड़की को छेड़ रहे कुछ लड़कों ने जीप चढ़ा कर उसकी हत्या कर दी थी। देश के हर छोटे-बड़े शहर में हर दिन सैंकड़ों ऐसी छोटी-बड़ी घटनाएँ होती रहती हैं। कोई अख़बार पलट कर देख लीजिए। शायद ही ऐसी किसी ख़बर के बिना देश के किसी अख़बार का कोई अंक कभी छपा हो! यह भी तब, जब छेड़छाड़ के इक्का-दुक्का मामले ही पुलिस के पास पहुँचते हैं, जब बर्दाश्त की सारी हदें पार हो चुकी होती हैं। वरना अगर छेड़छाड़ का हर मामला रिपोर्ट होने लगे तो तो शायद अख़बार में किसी और ख़बर के लिए जगह ही न बचे!
असली सज़ा किसको, आरोपी को या पीड़ित को?
क्यों होता है ऐसा? क्योंकि किसी को क़ानून का कोई डर नहीं है! पहले तो क़ानून ही बिलकुल कमज़ोर हैं। और जो हैं भी, उनके सहारे न्याय पाने का रास्ता कितना जटिल, थकाऊ और अकसर पीड़ित महिला की अस्मिता को चुभनेवाला होता है, यह किसी से छिपा नहीं है! रोहतक वाले मामले में ही मान लीजिए कि लड़कियों ने पुलिस से शिकायत की होती। मान लीजिए कि पुलिस ने बड़ी चुस्ती दिखायी होती, बिना आनाकानी किये रिपोर्ट लिखी होती, पीड़ित लड़कियों को ‘अजीब-सी’ निगाहों से देखे बग़ैर पूरी ईमानदारी से मामले की जाँच की होती, सबूत जुटा लिए होते, लड़कों को पकड़ लिया होता, चार्जशीट दायर कर दी होती, फिर एक लम्बी न्यायिक प्रक्रिया के बाद सज़ा कितनी होती? सिर्फ़ तीन महीने और कुछ जुर्माना! यह तो तब, जब अभियुक्त इतने ‘निरीह’ हों कि पीड़ित परिवार को बिलकुल भी ‘डराने-धमकाने’ की या दबाव में लाने की कोशिश न करें। लेकिन जब अभियुक्त बड़े रसूख़ वाला हो, तब? रुचिका गिरोत्रा का मामला याद आया आपको? पुलिस से शिकायत करने के बाद उसे स्कूल से निकाल दिया गया, उसके पिता, भाई और सहेली के ख़िलाफ़ फ़र्ज़ी मामले दर्ज कराये गये, परिवार को इस तरह प्रताड़ित किया गया कि तीन साल बाद रुचिका ने आत्महत्या कर ली। अनन्त यातनाओं के 19 साल लम्बे दौर के बाद आख़िर आरोपी डीआइजी एस। पी। एस। राठौर को सज़ा मिली। क़ानून ने क़ानून के मुताबिक़ अपराधी को सज़ा सुना दी, लेकिन इस परिवार ने जो कुछ इस बीच सहा, वह रोंगटे खड़े कर देनेवाला है? छेड़छाड़ की शिकायत करने की जैसी सज़ा इस परिवार ने भुगती, उसके मुक़ाबले डीआइजी राठौर को मिली सज़ा तो कुछ भी नहीं है!
क्यों क़ानून से कोई डरता नहीं?
और जहाँ क़ानून कड़े भी हैं, वहाँ भी हालात में कोई बदलाव हुआ हो, ऐसा लगता नहीं। दिल्ली में निर्भया बलात्कार कांड के बाद क़ानून में बड़े कड़े बदलाव किये गये। लेकिन बलात्कार के मामलों में कोई कमी नहीं आयी? क्यों? क्योंकि क़ानून से किसी को डर नहीं लगता! ऊपर से तुर्रा यह कि जले पर नमक अकसर हमारे राजनेता छिड़कते रहते हैं! चाहे पार्टी कोई भी हो, राज्य कोई भी हो, आश्चर्यजनक रूप से शर्म की प्रतियोगिता में कोई किसी से कम नहीं दिखता! इन ‘माननीय’ नेताओं के श्रीमुख से अकसर बलात्कार के बारे में जो ‘ज्ञानमय वाणी’ निकलती रहती है, उससे ही आप अन्दाज़ लगा सकते हैं कि महिलाओं के प्रति और उनके विरुद्ध होनेवाले अपराधों को लेकर वे सामान्यतया क्या मानसिकता रखते हैं। ऐसे में इस पर किसी को भला क्यों हैरानी होनी चाहिए कि महिलाओं के विरुद्ध होनेवाले हर अपराध के प्रति समाज, सरकार और शासन तंत्र में इतनी उदासीनता क्यों है? छेड़छाड़, कार्यस्थल पर यौन उत्पीड़न, बलात्कार, दहेज हत्याएँ, कन्या भ्रूण हत्याएँ, तेजाब हमले, महिलाओं की तस्करी, इन सारे मामलों में ही क़ानून के हाथ तंग क्यों हो जाते हैं? बलात्कार के जो मामले अदालत तक पहुँच पाते हैं, उनमें औसतन 74 प्रतिशत मामलों में आरोपी छूट जाते हैं! ऐसा क्यों? इस आँकड़े पर देश में कोई चिन्ता क्यों नहीं दिखती? क्या इसका अर्थ है कि जो आरोपी छूट गये, उन्हें फ़र्ज़ी मामलों में फँसाया गया था? या पुलिस ने लचर जाँच की? सबूत नहीं जुटाये? पीड़ित महिला दबाव में आ गयी और बयान से पलट गयी? ज़ाहिर है कि इतनी बड़ी संख्या में आरोपियों का ‘दोषमुक्त’ होना एक बड़ा गम्भीर सवाल है, जिसकी गहराई से जाँच होनी चाहिए।
15 साल में सिर्फ़ 20 मामलों में सज़ा!
दूसरा आँकड़ा देखिए। कन्या भ्रूण हत्याओं का मामला।सब जानते हैं कि देश की आबादी में लिंग अनुपात में लगातार तेज़ी से गिरावट आती जा रही है। गर्भ में बच्चे का लिंग परीक्षण न हो, इसके लिए क़ानून बन गया। ठीक! लेकिन क़ानून ने किया क्या? एक रिपोर्ट के मुताबिक पिछले पन्द्रह साल में इस क़ानून के तहत देश भर में कुल क़रीब छह सौ मामले दर्ज किये गये, जिनमें 20 मामलों में सज़ा हुई! लिंग परीक्षण और उसके बाद कन्या भ्रूण की हत्या आज एक देशव्यापी ‘उद्योग’ बन चुका है। एक पूरी तरह अवैध उद्योग! अरबों रुपये सालाना की कमाई!
दहेज हत्याओं का मामला लीजिए। औसतन केवल 36 फ़ीसदी मामलों में ही सज़ा हो पाती है। बाक़ी मामलों में आरोपी छूट जाते हैं। वजह! ज़्यादातर मामलों में पुलिस की लचर जाँच से मामले अदालतों में साबित नहीं हो पाते! तेज़ाब हमलों के मामले में क़ानून कड़ा बन गया, लेकिन हमलों में कोई कमी नहीं आयी!
सोचने की बात यह है कि महिलाओं के विरुद्ध होनेवाले अपराधों में जाँच और सज़ा की इतनी दयनीय स्थिति क्यों है? इसलिए कि हमारा पूरा तंत्र महिला विरोधी है और लिंग समानता की बड़ी-बड़ी बातों का दिखावा करने के बावजूद हमारे राजनीतिक-सामाजिक ढाँचे ने ऐसा कोई ठोस और ईमानदार क़दम आज तक नहीं उठाया, जो महिलाओं को रोज़मर्रा के मामूली से मामूली उत्पीड़न से भी बचा सके। और वह क़दम उठे भी कैसे? जब राजनेताओं के ऐसे बयान लगातार आ रहे हों कि जब तक दुनिया रहेगी, तब तक बलात्कार होते रहेंगे! एक अन्य ‘माननीय’ ने कहा कि ईश्वर भी बलात्कार नहीं रोक सकता! लड़कों से बलात्कार ग़लती से हो जाता है, यह जुमला तो पहले ही काफ़ी कुख्यात हो चुका है!
सिर्फ़ क़ानून बना देने से कुछ नहीं होगा
तो जब आप की सोच ही यही होगी, तो बलात्कार कैसे रुकेंगे जनाब? अच्छा, बलात्कार नहीं रोक पाये तो भ्रूण हत्याओं पर ही कुछ लगाम लगा ली होती? दहेज हत्यारों के ख़िलाफ़ ऐसी सख़्त मुहिम चला ली होती कि लोग दहेज का नाम सुन कर काँपने लगते? लेकिन ऐसा कुछ नहीं हो सका? क्यों? इसलिए कि राज चलानेवालों ने इस पर कभी कुछ किया नहीं। कभी कोई बड़ी घटना हो गयी, देश में बड़ा हल्ला मचा, तो क़ानून बना दिया और बैठ गये! सिर्फ़ क़ानून बनाने से कुछ होगा क्या?
हम बताते हैं, रास्ता क्या है? एक, स्कूल-कालेजों, दफ़्तरों, मेलों-ठेलों, त्योहारों-सामाजिक उत्सवों में व्यापक प्रचार अभियान चलाइए, महिलाओं के प्रति लोगों को संवेदनशील बनाइए, क़ानूनों के बारे में जनता को जागरूक कीजिए, थोड़ा डराइए भी! दो, राज्य के महिला आयोगों को राजनीतिक नियुक्तियों की परम्परा से मुक्त कर उन्हें क़ानूनी तौर पर और अधिकार दे कर सक्षम, साधन सम्पन्न और शक्तिशाली बनाइए, हर ज़िले में उसकी विशेष इकाई बनाइए, जो महिलाओं की हर क़ानूनी लड़ाई पर बारीकी से नज़र रखे, उन्हें लड़ने-जीतने में मदद करे और तमाम तरह के रोज़मर्रा के दबावों से उन्हें बचाये। तीन, पुलिस के काम और जाँच की आन्तरिक समीक्षा का तंत्र बनाइए, रिपोर्ट कब लिखी, नहीं लिखी तो क्यों, देर में लिखी तो क्यों, किस अफ़सर ने किन मामलों की जाँच की, किनमें सज़ा नहीं हो सकी और क्यों, लापरवाही पायी जाये तो कड़ी कार्रवाई कीजिए। बस यह तीन आसान-से क़दम हैं, आप से क्यों नहीं उठते?
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About The Author
क़मर वहीद नक़वी। वरिष्ठ पत्रकार व हिंदी टेलीविजन पत्रकारिता के जनक में से एक हैं। हिंदी को गढ़ने में अखबारों की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। सही अर्थों में कहा जाए तो आधुनिक हिंदी को अखबारों ने ही गढ़ा (यह दीगर बात है कि वही अखबार अब हिंदी की चिंदियां बिखेर रहे हैं), और यह भी उतना ही सत्य है कि हिंदी टेलीविजन पत्रकारिता को भाषा की तमीज़ सिखाने का काम क़मर वहीद नक़वी ने किया है। उनका दिया गया वाक्य – यह थीं खबरें आज तक इंतजार कीजिए कल तक – निजी टीवी पत्रकारिता का सर्वाधिक पसंदीदा नारा रहा। रविवार, चौथी दुनिया, नवभारत टाइम्स और आज तक जैसे संस्थानों में शीर्ष पदों पर रहे नक़वी साहब इंडिया टीवी में भी संपादकीय निदेशक रहे हैं। नागपुर से प्रकाशित लोकमत समाचार में हर हफ्ते उनका साप्ताहिक कॉलम राग देश प्रकाशित होता है।
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