(प्रस्तुत आलेख - राजस्थान पत्रिका के संपादक श्री गुलाब कोठारी के ब्लॉग से साभार पुनर्प्रकाशित. संदर्भ के लिए यहाँ देखें)
कोई सोचकर देखे कि “दामिनी” की मां क्या सोच रही होगी- कि दामिनी उसके पेट से पैदा ही क्यों हुई। उसे कौनसे कर्म की सजा मिली है। आज देश में रोजाना कितनी दामिनियां इस पीड़ा से गुजर रही हैं। सम्पूर्ण लोकतंत्र- विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका मौन है। स्वयं को चौथा स्तंभ कहने वाला मीडिया दोगला व्यवहार करता हुआ दिखाई पड़ रहा है। उसे देश में होते सैंकड़ों गैंग रेप दिखाई नहीं देते। तीनों स्तंभों के मौन को सहज मान रहा है। क्यों?
इस देश में यह वातावरण क्यों बना, इस पर विचार ही नहीं राष्ट्रव्यापी बहस होनी चाहिए। प्रत्येक संत का धर्म है कि वह इस विषय पर अपने सम्प्रदाय में मन्थन शुरू करवाए। यह तो तय है कि लोकतंत्र के तीनों स्तंभ इस समस्या का मूल हैं। “सरकारें” और अधिकारी कालेधन और भुजबल एवं माफिया के साथ सीधे जुड़ गए हैं। इतनी बड़ी राशि केवल माफिया ही खपा सकता है। फिर बाकी खेल उसके भुजबल का परिणाम है। उसे सत्ता का भय नहीं रह गया है। जितने घोटाले दिल्ली में, सरकारों में, सामने आए, यही कारण दिल्ली के गुण्डाराज का है। पुलिस इस बात से आश्वस्त है कि दिल्ली सरकार क्या बिगाड़ लेगी। केन्द्र तो घोटालों का मूल केन्द्र है। पुलिस अलग-अलग रूप से साथ ही जुड़ी रहती है। अत: कानून की पालना होती ही निर्बलों पर है।
समरथ को नहीं दोष गुसांई। दर्जनों जनप्रतिनिधि और अधिकारी आज भी ऎसे अपराधों के बाद आराम से घूम रहे हैं। सत्ता का उन्हें पूर्ण अभयदान प्राप्त है। उनके लिए कानून तो मानो है ही नहीं। पहले तो पुलिस छोड़ देती है, वह पकड़े तो कानूनी लचीलेपन का फायदा उठाकर बच निकलते हैं। कानून में भी आमूल-चूल बदलाव अपेक्षित है। गैंगरेप और बलात्कार के दोषियों को तो फांसी की सजा अनिवार्य कर देनी चाहिए। बलात्कार की घटनाएं कुछ झूठी भी निकल जाती हैं। प्रमाणित हो जाने पर इसमें भी आजीवन कारावास तो होना ही चाहिए। कानून निर्माताओं को ध्यान में रखना चाहिए कि दहेज, यौन-शोषण के साथ-साथ बलात्कार वह मुख्य कारण है जो एक मां को कन्या भू्रण हत्या के लिए मजबूर करता है। कौन मां अपनी बच्ची को ऎसे दानवों एवं सरकारी दबावों (अस्मत देने के) के भरोसे बड़ा करना चाहेगी?
समाज का भौतिक जीवन स्तर, संस्कृति, मानसिकता, अपेक्षाभाव तथा मूल्यहीन जीवन विस्तार भी ऎसी घटनाओं के लिए जिम्मेदार है। न तो कोई मां-बाप अपने बच्चों को कुछ समय देते हैं, न शिक्षकों को उनके जीवन से सरोकार रह गया है। शिक्षा के पाठ्क्रम तय करने वाले दिमाग से नकल करने वाले हैं। पढ़ाई को भी स्टेटस सिंबल बना दिया है। पेट भरना इसका उद्देश्य है। आज का शिक्षित, मन और आत्मज्ञान की दृष्टि से तो अपूर्ण ही कहा जाएगा। अपूर्ण व्यक्ति ही मनुष्योत्तर (पाशविक) कार्य के प्रति आकर्षित होता है। वरना जिस देश में इतना युवा वर्ग हो, वहां अपराधी चैन से जी सकता है! झूठे सपनों ने, बिना पुरूषार्थ के धनवान बन जाने की लालसा ने युवा वर्ग को चूडियां पहना दीं। छात्रसंघ चुनाव में तो वह अपनी शक्ति का राजनीतिक प्रदर्शन कर सकता है, किन्तु मोहल्ले के गुण्डे से दो-दो हाथ नहीं कर सकता। धूल है इस जवानी को, जो देश की आबरू से खिलवाड़ करे। अब समय आ गया है जब जनता स्वयं अपराधियों का सामाजिक बहिष्कार भी करना शुरू करे।
चुनाव सिर पर आ रहे हैं। हम सब मिलकर जनप्रतिनिधियों, अधिकारियों से संकल्प करावें कि यदि वे अथवा उनके परिजन बलात्कार में लिप्त पाए गए, तो वे स्वयं इस्तीफा दे देंगे। वरना जनता उन्हें व्यक्तिगत रूप से बाध्य कर देगी। अधिकारी भी स्वयं को इस दृष्टि से संभाल लें।
भौतिकवाद ने जीवन को स्वच्छन्दता दी है। तकनीक ने जीवन की गति बढ़ा दी है। एक गलती करने के बाद पांव फिसल जाता है। लौटकर सीधे खड़े हो पाना कठिन होता है। समाज में संस्कार लुप्त ही हो गए। दकियानूसी बन गए। परिवर्तन जो भी हो रहा है, बहुत तेज हो रहा है। किन्तु एक पक्षीय हो रहा है। भोग संस्कृति ने आदमी, विशेषकर औरत को भोग की वस्तु बना दिया है।
सत्ता के चारों ओर बस धन, माफिया,भोग,हत्या ही बचे हैं। जीवन शरीर पर आकर ठहर गया है। दर्शन पुस्तकों में, कर्म और कर्म-फल गीता में तथा पुनर्जन्म का भय टी.वी.-सत्ता ने भुला दिया है। इस सारे वातावरण में यदि कोई आशा की किरण बची है, तो वह है मां। वह चाहे तो आज भी अपनी संतान को सुसंस्कृत कर सकती है, ताकि वह सुख से जी सके। एक स्त्री के पाले-पोषे बच्चे किसी भी स्त्री का अपमान नहीं कर सकते। बाहर परिवर्तन को स्वीकार भी करें, आगे भी बढ़े, साथ ही भीतर भारतीय भी बने रहें, तभी इस त्रसादी से मुक्त हो सकेंगे।
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