डाँ कुणाल सिंह//संपादक//(आवाज़-ए-हिन्द.इन)
संसद मे व सडक पर एक शब्द बार बार उछाला जाता रहा है और वह शब्द है “सम्प्रदायिक”।जब भी यह आवाज उठती है,चर्चाऐ आम हो उठती है और आबोहवा के गर्म हो जाने का खतरा उठ जाता है।कांग्रेस हो या भाजपा,सपा हो बसपा हो या राजद,सभी ने इस शब्द का इस्तेमाल अवश्य किया है।सियासी चालों मे इसका प्रयोग किया जाना भले ही सियासत के लिये मजबुरी हो परन्तु रियाया के स्वास्थ्य के लिये खतरनाक विषाणू ही साबित हुआ है।धर्म व सम्प्रदाय की राजनीति नहीं करने का दावा देश के सभी राजनीतिक दलों का है। इस दावे के आधार पर ऐसा कोई भी राजनीतिक दल नहीं है जो सेक्यूलर न हो।इन सब दावों के वावजूद हिन्दूस्तान मे बढती ही जा रही है धर्म और सम्प्रदाय की सियासत । स्थिति अब यहॉं तक आ पहुंची है कि लगभग हर राजनीतिक दल खुलेआम एक दुसरे पर सम्प्रदायिक होने का आरोप लगाने लगे हैं।यही कारण है शायद कि हर धर्म के सम्प्रदाय मे बहुत से स्वयंभू धार्मिक ठेकेदार पैदा हो चले हैं और पैदा होते जा रहे हैं।लगभग हर सरकार इन्हें लिफ्ट देती आई है।सरकारों को व भोले भाले धार्मिक लोगों को ये ठेकेदार समय कुसमय धमकाने व उन्माद फैलाने मे कभी पीछे नही रहे।यह सवाल उठना अब लाजिमी है कि “सम्प्रदायिक ” है कौन।
हिन्दू को हिन्दु,मुसलमान को मुसलमान तथा ईसाई को ईसाई होने का बोध कराया जाना ही सम्प्रदायिकता है।एक क्षेत्र,एक देश मे निवास करने वाले लोग अगर बन्धुत्व भावना से नहीं तो एक अच्छे पडोसी के रूप मे मानवीय दृष्टिकोण से साथ साथ तो रह ही सकते हैं।समाजिकता की इस भावना को तोडना एवम एक को पाकिस्तानी मूल का तथा दूसरे को हिन्दुस्तानी मूल के होने का ऐहसास कराया जाना ही सम्प्रदायिकता है।निहित स्वार्थ मे यह भावना तो इस देश मे कई कई बार तोडा गया है और टूटा है।यह अखण्ड भारत चार हजार वषों तक गुलामी मे जिया। द्रविड,आर्य ,मुगल,मुसलमान व अंग्रेज इन सभी ने अपने अपने प्रभाव काल में इस देश पर शासन किया।यहॉं जाजिया कर भी लगे व बलात् धर्म परिर्वतन भी हुए फिर भी धार्मिक उन्माद संक्रामक स्तर तक न पहुँच सका। हॉं,औरंगजेब,नादिरशाह और तैमूरलंग जैसे क्रूर शासक भी हुए जिनके शासनकाल मे विद्वेशवश धर्म विशेष अनुयायीओं का भयंकर उत्पीडन व क्रूर कत्लेआम हुआ ।बाकी के शासन काल तो ठीक ठाक ही रहे।
काश कि इस देश को सत्ता हस्तांतरण लोकतांत्रिक तरीके से मिल बैठ कर किया गया होता।हिन्दुस्तान ने महात्मा गांधी पर विश्वास किया और महात्मा गांधी ने जवाहर लाल नेहरू पर।लौहपुरूष सरदार गोविन्द वल्लभ भाई पटेल प्रधान मंत्री न बन सके।सरदार ने तो 368 रियासतों का अखण्ड हिन्दुस्तान बनाया परन्तु प्रधान मंत्री जवाहर ने काश्मीर को राष्ट्रसंघ मे पहुँचा दिया।हिन्दुस्तान व पाकिस्तान का भवनात्मक झगडा बस यहीं से शुरू हो गया।काश्मीर को पाकिस्तान बनाने की हर संभव कोशिश मे पाकिस्तानी सियास्तदानों के एजेन्टों ने भारतीय मुसलमानो के बीच धार्मिक ध्रुवीकरण व नफरत का बीज बो दिया।हिन्दुस्तान मे बसे पाकिस्तानी मानसिकता के लोगों को नफरत फैलाने का सुनहला मौका जा मिला और दोनो तरफ ध्रुवीकरण होता रहा।दो सगे भाईयों मे भी लडाई झगडा व खुनी संघर्ष कभी कभार होता रह सकता है तो हिन्दुस्तानी जमीन पर सह अस्तीत्व मे रह रहे हिन्दू मुसलमान पडोसीयों मे इस तरह के झगडों को अस्वभाविक कैसे कहा जा सकता है।हॉं,शर्त यह कि हर हिन्दुस्तानी एक भाई भाई ,पडोसी व अपने को हिन्दुस्तानी मान ले। सियासतदान एैसा नहीं करने दे रहे।
एफडीआई,2 जी घोटाला अथवा न्युकीलियर डील जैसे जनहित के मुददे लोकसभा मे भले ही उठे हों सियासतदानों के लिये ये मुददे कभी देश हित के नहीं रहे।संसद मे अविश्वास प्रस्तावों पर भले ही बहसें मुखर हुई हों परन्तु मतदान तो सियासती आधार पर ही हुए हैं।सियासत चालों की आड भी ‘सम्प्रदायिकता’ही हर बार बनी। आर एस एस विचार धारा से ओतप्रोत भारतीय जनता पार्टी को न सिर्फ बसपा बल्कि सपा ने भी सप्रदायिक करार दिया है।यह ठीक है कि बसपा सरकार मे दंगें न हो सके परन्तु कथित इसी सम्प्रदायिक पार्टी के साथ बसपा सरकार चला चुकी है।अपने छोटे से कार्यकाल मे 14 दंगे झेल चुकी सपा भी तो भाजपा के साथ सरकार चला चुकी है। सिलसिलेवार बम धमाकों के आरोपीयो से मुकदमां उठा लेने की सपा की कयावद भी क्या सपा को सम्प्रदायिक नहीं दिखती।लगता नहीं कि लोकसभा अपना कार्यकाल पुरा करेगी।अगर सपा या बसपा किसी अपने कारणवश सर्मथन वापस ले लेती है तो क्या उस हालात मे भाजपा की संप्रदायिकता समाप्त मान ली जायेगी।कांग्रेस जब यह कहती है कि “भाजपा मुसलमानो को टिकट नहीं देती ”तो यह कह कर क्या कांग्रेस अपने सम्प्रदायिक होने का प्रमाण नही दे रही होती। भाजपा की कई प्रदेशों मे सरकारें हैं और गुजरात मे भी बन रही है।गुजरात मे सर्वाधिक मुस्लिम बाहुल्य सीटें भाजपा की ही झोली मे गयी हैं। क्या इन प्रदेशों की जनता सम्प्रदायिक है।अपना अपना दामन सभी साफ पाक बतला रहे हैं।
सम्प्रदायिक उन्माद का जो बीज अंग्रेजों ने बोया और जवाहर तथा जिन्ना ने जिसे हवापानी दिया उस लहलहाती फसल को हिन्दुस्तान और पाकिस्तान मे आज धडल्ले से काटा जा रहा है।आजादी मिलने की पृष्ठभूमि मे सनसीन हो जाने की ललक ने हिन्दू मुसलमानो मे इतनी नफरत भर दी गई कि खून से लतफत अपनो के लाशों के बीच से निकलते हुए अपने इच्छित देशभूमि को जाने को मजबुर रहे।अधिकांश मुसलमान पाकिस्तान व अधिकांश हिन्दु हिन्दुस्तान गये परन्तु कुछ ऐसे भी लोग थे जो न पाकिस्तान गये न हिन्दुस्तान आये।वो वहीं के बन कर रह गये जहॉं पहले आबाद थे व वहॉं की आबेहवा उन्हे वहीं रहने को मजबुर कर दी थी।आज ऐसे लोगौं के बीच नफरत फैल रही है।हिन्दूस्तान मे अब सप्रदायिक नारे फिर लगने लगे हैं।सियासतदान इस लोकतांत्रिक सियासत मे भी “सम्प्रदायिक सम्प्रदायिक” खेल धडल्ले से खेल रहे है।
इस देश की जनता का शुक्र है कि अब जाग चुकी है। अब तो गॉंव का एक आम मजदूर भी इस बहस को राजनीतिक मानने लगा है।बिहार व गुजरात के विधान सभा ने इसे साबित कर दिया है।देशवासी अब समझने लगे है कि संप्रदायिकता के बयान केवल सियासी होते है और चुनावी दॉंव पेंच हैं। यहि कारण है कि कुछ चरमपंथियों द्वारा की जा रही हिंसक वारदातें देशवासीयों पर कोई प्रभाव नहीं डाल पा रहीं।
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