स्वतंत्र लेखक व् वेब टिप्पणीकार
यदि हमने साध्य को भुले हैं तो समझिये कि हमारा जीवन बर्बाद हो रहा है-
साध्य लक्ष्य या उद्देश्य को कहते हैं। साधन वह है जिसकी सहायता से साध्य या लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है। उदाहरण के लिए यदि हमें दिल्ली जाना है तो दिल्ली हमारा साध्य कहलायेगा। दिल्ली जाने के लिए हम पैदल, दो पहिया वाहन, चार या अधिक पहियों के वाहन यथा कार, बस आदि अथवा रेलगाड़ी का प्रयोग कर सकते हैं। इसके लिए प्रयोजन और साधनों के प्रयोग के लिए आवश्यकता के अनुरूप धन आदि भी होना चाहिये। ऐसी अवस्था में पैदल चलना, गाड़ी की सहायता लेना तथा धन आदि साधन कहलाते हैं। इन साधनों का प्रयोग कर दिल्ली पहुंच जाते हैं और हमें हमारे साध्य वा लक्ष्य की प्राप्ति हो जाती है।
यह तो बात हुई साध्य व साधनों की। अब विचार करना है कि हमारे जीवन का असली साध्य क्या है? मनुष्य माता-पिता से जन्म लेकर संसार में आता है। जन्म क्यों होता है? इसका उत्तर हमें ज्ञात करना है। हमारे वेद आदि शास्त्रों व ऋषि-मुनियों ने इस प्रश्न का उत्तर शास्त्रों के अध्ययन, उनके ज्ञान व अपने अनुभवों से दिया हुआ है जिसका हमें मात्र अध्ययन कर चिन्तन करना है। हमारे वेदादि शास्त्र एवं महर्षि दयानन्द सहित ऋषि-मुनियों के ग्रन्थ बताते हैं कि मनुष्य का जन्म पूर्व जन्म में किये हुए अवशिष्ट कर्मों के फलों के भोग के लिए व साध्य को जानने व उसकी प्राप्ति के लिए पुरूषार्थ करने के लिए होता हे। हम मनुष्य जीवन में जो कर्म करते हैं उनमें कुछ ऐसे होते हैं कि जिनका फल हमें साथ-साथ या इसी जन्म में मिल जाता है, यह क्रियमाण कर्म कहे जाते हैं। कुछ कर्म ऐसे होते हैं जो हमारे कर्मों के खाते में जमा हो जाते हैं और वह हमारे पुनर्जन्म या मोक्ष आदि में सहायक होते हैं। यह जो कर्म किये जाते हैं इनमें एक तो अपने शरीर की रक्षा के लिए होते हैं जिसमें भोजन, आवास, वस्त्र, स्वयं व अपने परिवार की शिक्षा-दीक्षा, परिवार में रोग आने पर उनकी चिकित्सा, सन्तानों के विवाह, वाहन आदि खरीदने के साथ भावी आपातकालीन स्थिति के लिए कुछ अतिरिक्त संग्रहित धन की व्यवस्था भी करनी होती है जिसे धन के उपार्जन अर्थात् अध्ययन-अध्ध्यापन, सेवा या नौकरी, स्वतन्त्र व्यवसाय, राजनीति, कृषि व अन्य-अन्य कार्यों से प्राप्त किया जाता है। यह सब तो जीवन यापन के लिये किया जाता है। क्या जीवन यापन व सुख-दुःख भोगने के लिए ही हमारा जन्म हुआ है? विचार व विवेचन करने पर ज्ञात होता है कि नहीं यह तो जीवन के महद् उद्देश्य के पूरक व आरम्भिक सोपान हैं। जीवन का उद्देश्य अथवा साध्य तो इन सब कार्यों से भिन्न है। वह है – सुख व दुःखों की सदा-सदा अर्थात् बहुत लम्बी अवधि तक के लिए पूर्ण निवृत्ति व परमानन्द=सर्वश्रेष्ठ आनन्द की उपलब्घि या प्राप्ति। क्या ऐसा सम्भव है कि हमें सुख व दुःख दोनों ही न हों और परम आनन्द अर्थात् सर्वश्रेष्ठ सुख की उपलब्धि हो जाये। वेद और वैदिक ग्रन्थों के अध्ययन, विचार व चिन्तन से यह सिद्ध होता है कि यह सम्भव है और इससे पूर्व अनेकानेकं मनुष्य सुख-दुःख जिसका कारण मनुष्य जन्म व मृत्यु होता है, इससे मुक्त होकर परमानन्द प्राप्त कर चुके हैं। आईये, अब इस परमानन्द और इसकी प्राप्ति पर विचार एवं इसकी विधि पर विचार करते हैं।
हमने उपर्युक्त संक्षिप्त विचार व चिन्तन में देखा कि हमारे सभी सुख व दुःख हमारे पूर्व जन्म व इस जन्म के अच्छे व बुरे कर्मों के कारण होते हैं। यदि हम कर्मों में आसक्ति अर्थात् फलों की इच्छा का त्याग कर दे, उसी प्रकार जिस प्रकार से बुरे कर्मों के फल भोगने में हमारी प्रवृत्ति किंचित भी नहीं होती, तो क्या होगा? यह होगा कि हम जो अच्छे कर्म करेगें वह इकट्ठे होते रहेगें और अच्छे कर्मों का खाता बढ़ता रहेगा। इससे ऐसी स्थिति आयेगी की जब हमारे अच्छे कर्म 100 प्रतिशत हो जायेगें एवं बुरे व पाप कर्म जिनका फल या कारण दुःख होता है, वह शून्य हो जायेगें या बहुत कम रह जायेगें। यह भी मान लीजिये कि इस अवस्था तक पहुंचने में जीवात्मा ने ईश्वर विचार, चिन्तन, ध्यान व समाधि का भी अधिकाधिक अभ्यास किया है और वह उसे प्राप्त भी हुई है। वह जान गया है कि ध्यान करने का अन्तिम परिणाम समाधि होती है और समाधि में इस संसार को बनाने व चलाने वाले तथा जीवात्मा को जन्म व मृत्यु प्रदान करने वाले परमात्मा वा ईश्वर का निभ्र्रान्त ज्ञान भी उस ध्यान करने वाले व्यक्ति को हो जाता है। जब वह समाधि में होता है तो उसका बाह्य संसार, जगत् या वातावरण से सम्पर्क विछिन्न हो जाता है और ध्यान कर रहा व्यक्ति ईश्वर के स्वरूप को अपनी आत्मा में प्रत्यक्ष अनुभव करता है व साक्षात् करता है। यहां विचार करने की बात यह है कि हम सांसारिक पदार्थों को आंखों की सहायता से देखते हैं क्योंकि इनका स्वरूप ही परिमित आकार वाला व स्थूल होता है। आकार व आकृति को देखती अर्थात् अनुभव करती मनुष्य की आत्मा ही है। इसी प्रकार से समाधि में भी उस निराकार, ज्ञान स्वरूप सर्वज्ञ प्रकाशस्वरूप परमात्मा को हमारी आत्मा ही साक्षात् अनुभव करती है। जिस प्रकार से भौतिक जगत में हम वस्तुओं को उनके स्थूल व आकार वाले रूपों को देखते हैं इसी प्रकार से ध्यान व समाधि में ईश्वर को उसके सच्चिदानन्द, निराकार, प्रकाशस्वरूप, ज्ञानस्परूप यथार्थ स्वरूप को देखा अर्थात् उसे साक्षात्, निभ्र्रान्त रूप में देखा व अनुभव किया जाता है। इसी को ब्रह्म साक्षात्मकार व आत्म साक्षात्कार कहा जाता है। यह ईश्वर-साक्षात्कार व निभ्र्रान्त अनुभव, जीवात्मा के सत्कर्मों अर्थात् पुण्यकर्मो का फल होता है। यह अवस्था तभी प्राप्त होती है जीवन में इसके लिए पात्रता आ जाती है व जब ईश्वर जीव पर कृपा करके अपना साक्षात् स्वरूप प्रदर्शित करते हैं। सभी जीवों को इस स्थिति को प्राप्त करने के लिए ही यह मनुष्य जन्म मिला है इस ब्रह्म साक्षात्कार की स्थिति के प्राप्त हो जाने पर ही मनुष्य जीवन का उद्देश्य पूरा होता है। इसी अवस्था को कहा जाता है कि मनुष्य जीवन का ‘‘साध्य’’, लक्ष्य अर्थात् ईश्वर की यथावत् प्राप्ति हुई है। इस अवस्था को प्राप्त होने के बाद मनुष्य जीवन्मुक्त कहा जाता है और कालान्तर में मृत्यु होने पर ईश्वर उस जीवात्मा को मोक्ष अवस्था प्रदान करते हैं। मोक्ष अर्थात् सभी दुःखों से पूर्णतः निवृत्ति की अवस्था। जब जीवात्मा को कुछ जानना होता है व कोई सात्विक इच्छा होती है तो वह ईश्वर के सान्निध्य व साक्षात् सम्बन्ध के होने से पूरी हो जाती है। ऐसे व्यक्ति की मृत्यु होने पर वह अपने यथार्थ स्वरूप=आत्मस्थ स्वरूप में विद्यमान रहते हुए अपने संकल्प शरीर से ईश्वर से युक्त होकर आनन्द की अनुभूति के साथ लोक लोकान्तरों का भ्रमण व विचरण आदि करता है व ईश्वर के कार्यों व सृष्टि को देखता है।
मित्रों, महर्षि दयानन्द ने आर्य समाज की स्थापना की और उसके 10 नियम बनायें हैं। इन नियमों पर जब हम विचार करते हैं तो हमें लगता है पहला व दूसरा नियम तो मनुष्य जीवन के साध्य को ध्यान में रखकर बनाया गया है और शेष आठ नियम उस साध्य की प्राप्ति के साधनों को प्राप्त कराने के लिए एक प्रकार से साधन है। पहले नियम में मनुष्य को ईश्वर के स्वरूप व कृतित्व से परिचय कराते हुए कहा गया है कि ‘‘सब सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं उनका आदि मूल परमेश्वर है।’’ यहां एक बात तो यह कही गई कि मनुष्य से भिन्न एक पृथक ईश्वर की सत्ता है जो सब सत्य विद्याओं का मूल कारण या आदि कारण हैं। उदाहरण के रूप में हम कम्प्यूटर साइंस विद्या को लेते हैं। इस नियम में गौण रूप से यह कहा गया है कि यह जो कम्प्यूटर विज्ञान की विद्या है, यह ईश्वर द्वारा इस संसार को बनाने में ही विद्यमान थी। ईश्वर इसका आदि व मूल कारण है। मनुष्यों, वैज्ञानिकों ने तो बस सृष्टि में उपलब्ध विविध प्रकार के ज्ञान व नियमों की खोज की है, जिसे विज्ञान का नाम दिया गया है और उसका उपयोग वह वैज्ञानिक व अन्य मनुष्यादि लोग कर रहे हैं। यही हाल सभी सत्य विद्याओं का है। ईश्वर है तो सब विद्यायें हैं। ईश्वर न होता तो कोई भी विद्या न होती क्योंकि तब उसके न होने पर यह संसार ही न बनता। हम देश व दुनियां के सच्चे वैज्ञानिकों का श्रद्धापूर्वक हार्दिक धन्यवाद व उन्हें नमन करना चाहते हैं। उनका कार्य भी कुछ-कुछ हमारे ऋषियों की ही तरह आध्यात्मिक न होकर प्रकृति के अध्ययन से जुड़ा है जिसमें कल्पनातीत नियमबद्ध पुरूषार्थ शामिल है। हम सभी मत-मतान्तरों के मठाधीशों, महन्तों व प्रवतर्कों से यह भी कहना चाहते हैं कि वैज्ञानिकों का अनुकरण व अनुसरण करते हुए ईश्वर की बात करते समय वैज्ञानिकों की भांति पूर्ण सत्य की खोज कर ईश्वर का केवल सत्य स्वरूप ही अपने अनुयायियों में प्रस्तुत व प्रचारित करें और अज्ञान व स्वार्थ से ऊपर उठने का प्रयास करें। हमे लगता है कि अधिकांश मत-मतान्तरों में ईश्वर व जीवात्मा के सत्य स्वरूप का ज्ञान आज भी नहीं है इसलिये जो भी उपासना, पूजा व अन्य प्रक्रिया सभी संसार के मनुष्य कर रहे हैं वह मनुष्य जीवन के साध्य वा लक्ष्य में साधक न होकर बाधक लग रही है।
हम आर्य समाज के लोग यूरोप आदि के वैज्ञानिकांे के इस लिए भी आभारी है कि उन्होंने वैज्ञानिक अनुसंधान कर कागज व मुद्रण यन्त्रों का निर्माण किया जिससे हम वेदों की रक्षा कर सके। कल्पना कीजिए कि यदि वैज्ञानिकों ने कागज व मुद्रण प्रैस की खोज व निर्माण न किया होता या एक दो शताब्दी हुआ होता, तो महर्षि दयानन्द व आर्य समाज वेदों का संरक्षण व प्रचार प्रसार वर्तमान व पूर्व काल की भांति नहीं कर पाते। यदि महर्षि दयानन्द को वेदों की प्रति उपलब्ध भी हो जाती तो शायद उसे देश-देशान्तर में प्रचारित करना कठिन होता क्योंकि उन्होंने जो सत्यार्थ प्रकाश एवं वेदभाष्य आदि लिख कर सहस्रों प्रतियों में प्रचारित व प्रसारित किए उसके न होने पर प्रचार अत्यन्त सीमित होता। हम कभी-2 सोचते हैं कि आज हमारे पास साहित्य का प्रचुर भण्डार है। हमें लगता है कि प्राचीन काल अर्थात् अब से 500 वर्ष व उससे पूर्व यह सुविधा हमारे देशवासियों को सुलभ नहीं थी। अतः हम सौभाग्यशाली है कि आज सभी वेद अन्य अनेक वैदिक ग्रन्थ हमारे घर पर हैं वह वह हमारी निजी सम्पत्ति हैं। हमारे पास केवल एक विद्वान का ही नहीं अपितु अनेक विद्वानों का भाष्य है। इसका श्रेय महर्षि दयानन्द व उनके अनुयायी वेदभाष्यकारों सहित हमारे यूरोपीय वैज्ञानिकों को भी हैं। इसके लिए महर्षि दयानन्द, वेदों के सच्चे अर्थ करने वाले वेदभाष्यकारों तथा सभी वैज्ञानिकों को भी हमारा नमन है।
आर्य समाज के दूसरे नियम में ईश्वर के सत्य स्वरूप का वर्णन किया गया है जो चारों वेदों के अध्ययन का महर्षि दयानन्द का निचोड़ व सार है। इसकी परीक्षा करने पर इस नियम में कहे गये एक-एक शब्द पूर्ण सत्य अनुभव होते हैं, हमारी आत्मा उसकी साक्षी देती है। इसकी आज तक किसी मत-मतान्तर के विद्वान ने आलोचना नहीं की जिससे इसका शत प्रतिशत सत्य होना सिद्ध है। आईये, आर्य समाज के दूसरे नियम पर दृष्टि डाल लेते हैं- ‘‘ईश्वर सच्चिदानन्द स्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनादि, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र व सृष्टिकर्ता है। उसी की उपासना करनी योग्य है।‘‘ महर्षि दयानन्द ने देश-देशान्तर के सभी लोगों के लिए ईश्वर के सच्चे स्वरूप का संक्षेप में यह वर्णन किया है। वेदाध्ययन कर ईश्वर के बारे में विस्तार से भी जाना जा सकता है। जितना महर्षि दयानन्द ने इस नियम में वर्णन किया है, इतना भी जानकर और उसे जीवन में धारण करने से मनुष्य जीवन का कल्याण हो सकता है व अनेकों का हुआ है। इन्हीं गुणों से साध्य की सफलता के लिए ईश्वर की उपासना प्रत्येक मनुष्य=स्त्री व पुरूष को करनी चाहिये। इन गुणों पर विचार व चिन्तन करने व ध्यानावस्था में इसमें खो जाने पर कालान्तर में समाधि अवस्था की सम्भावना बनती है। इसके साथ योगदर्शन का अध्ययन कर आध्यात्म विज्ञान व इसके रहस्यों को जाना जा सकता है। महर्षि दयानन्द और आर्य समाज की कृपा से यह सब ज्ञान पुस्तकों में हिन्दी भाषा में उपलब्ध है जिसे हिन्दी के अक्षरों व शब्दों का ज्ञान रखने वाला अल्प शिक्षित व्यक्ति भी जान व समझ सकता है और अपने जीवन का कल्याण कर सकता है। महर्षि दयानन्द की यह संसार को बहुत बड़ी देन है।
आईये, अब अन्य 8 नियमों की चर्चा करते हैं। यह सब साध्य=ईश्वर प्राप्ति के एक प्रकार से साधन ही हैं। आर्य समाज के तीसरे नियम में कहा गया है कि ‘‘वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना-पढ़ना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।’’ यहां साधनों का मार्ग दर्शन करते हुए कहा गया है कि साध्य व साधनों को जानने के लिए वेदों का ज्ञान व वेद की पुस्तकें हैं। उसे पढ़ने से साध्य व साधन दोनों का ज्ञान हो जाता है। चैथा नियम है कि ‘‘सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये।’’ यहां महर्षि दयानन्द बता रहे हैं कि साध्य को हम तभी पकड़ सकते हैं जब हम सत्य को ग्रहण करेंगे और असत्य को छोड़ेंगे। यदि हम सत्य को ग्रहण व असत्य को नहीं छोडंे़गे तो प्रलय काल तक भी साध्य की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसी प्रकार से पांचवें नियम में कहा गया है कि ‘‘सब काम धर्मानुसार, अर्थात् सत्य और असत्य को विचार कर करने चाहिये।’’ इस नियम में यह कहा गया है कि कर्म करने से पूर्व सत्य व असत्य का विचार कर लेना चाहिये। यदि पता न चले तो स्वाध्याय से या फिर अपने से अधिक विद्वान व बुद्धिमानों से परामर्श कर समाधान कर लेना चाहिये। यदि कोई काम असत्य हो गया तो वह साध्य की प्राप्ति में बाधक होता है। अतः यहां सावधान किया गया है कि कोई भी असत्य काम न हो अपितु सब काम सत्य अर्थात् धर्मानुसार ही करने चाहियें। ‘‘ससार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना’’, इस छठे नियम में भी साधक को प्रेरणा की गई है कि साध्य की प्राप्ति के लिए वह संसार, देश व समाज के लोगों की शारीरिक, आत्मिक व सामाजिक उन्नति करे व कराये। इसमें यह भी शामिल है कि उसे अपनी भी तीनों प्रकार की उन्नति करनी है जो साध्य की प्राप्ति में सहायक एवं आवश्यक है। सातवें नियम में महर्षि दयानन्द आर्य समाज के सदस्यों को उपदेश करते हैं कि ‘‘सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार, यथायोग्य वर्तना चाहिये।’’ इस नियम में निर्दिष्ट तीन बातों का पालन करने से भी साध्य की निकटता होती है और विपरीत आचरण करने से साध्य से दूरी बनती है। आठवें नियम में महर्षि दयानन्द आधुनिक संसार के निर्माण की नींव रखते हुए कहते हैं कि ‘‘अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिये।’’ इस नियम के पालन करने से न केवल हमारा समाज व विश्व ही उन्नत व आधुनिक बनता है साथ हि अध्यात्म में भी तीव्रतम प्रगति की जा सकती है और साध्य शीघ्र प्राप्त व सफल किया जा सकता है। ‘‘प्रत्येक को अपनी ही उन्नति में सन्तुष्ट न रहना चाहिये, किन्तु सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिये।’’ यह आर्य समाज का नवम् नियम है जिसके पालन की आज के युग में सबसे अधिक आवश्यकता है। आज जो सामाजिक व आर्थिक विषमता है उसकी नींव में इस नियम के विरूद्ध व्यवहार का होना है। इस नियम का पालन भी साध्य की प्राप्ति में आवश्यक है और इसके विरूद्ध व्यवहार साध्य की प्राप्ति में बाधक है। अन्तिम दशम् नियम है कि ‘‘सब मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिये और प्रत्येक हितकारी नियम पालने में सब स्वतन्त्र रहें।’’ यह नियम सद्कर्मों का प्रेरक और अपने स्वार्थ के लिए दूसरों की हानि करने का विरोध कर रहा है और ऐसा करके ही हम अपने ‘‘साध्य’’ सर्वव्यापक ईश्वर के समीप हो सकते हैं और उसे प्राप्त कर सकते हैं। अतः आर्य समाज के सभी नियम साध्य व साधनों का वर्णन कर रहे है व उनके प्रेरक हैं। इस दृष्टि से प्रत्येक व्यक्ति को आर्य समाज का अनुयायी व प्रचारक बनना चाहिये जिससे वह साध्य को यथाशीघ्र प्राप्त कर सके। हम यहां यह भी कहना चाहते हैं कि आर्य समाज जैसे नियम विश्व में किसी धार्मिक व सामाजिक संस्था के नहीं हंै, राजनीतिक संस्थाओं के होने की आशा करना तो बन्ध्या के पुत्र के समान है।
लेख में हम वैशेषिक दर्शन (अध्याय 1 सूत्र 2) ‘‘यतोभ्युदयनिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः।’’ का भी उल्लेख करना चाहते हैं। इसमें कहा गया है जिससे अभ्युदय और निःश्रेयस की सिद्ध होती है वह धर्म होता है। अभ्युदय का अर्थ सुख व समृद्धि से युक्त सम्मानित जीवन और निःश्रेयस, साध्य = ईश्वर व मोक्ष की प्राप्ति के होने को कहते हैं। जिन साधनों, कार्यों व उपायों से यह दोनों सफल होते हैं उनका नाम धर्म है। यह धर्म ही हमें साध्य को प्राप्त कराता है अर्थात् यह धर्म ही साध्य की सिद्धि व सफलता का साधन है। धर्म केवल वह है जो वेद व वेदानुकुल शास्त्र व ग्रन्थों में उपदिष्ट है। इनके विरूद्ध जो बातें व कार्य हैं वह धर्म की कोटि में नहीं आते अतः वह साध्य प्राप्ति के साधन नहीं हो सकते हैं।
हमने इस लेख में जाना है कि प्रत्येक मनुष्य का साध्य ईश्वर की प्राप्ति व उसका साक्षात्कार है। इसके साधन ईश्वर का ज्ञान, ईश्वर की उपासना, सेवा, परोपकार, यज्ञ, अग्निहोत्र, माता-पिता-आचार्यों-गुंरूजनों-सच्चे साधुओं व संन्यासियों आदि की सेवा व वेद का अध्ययन, अध्यापन व वेदाचरण के साथ सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका, आर्याभिविनय, संस्कार विधि आदि का अध्ययन भी हैं। यह जान लेने के बाद आवश्यकता है कि साधनों का उपयोग कर साध्य को प्राप्त करने के लिए संकल्पपूर्वक अग्रसर होना। ईश्वर आपके अवश्य सहायक होंगे, आप आरम्भ करें।
-मनमोहन कुमार आर्य
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