सोमवार, 1 दिसंबर 2014

इतना क्यों लिखते हो और लिखने से क्या होता है

आज अरसे बाद सब्जी बाजार जाना हुआ। हाट फिर भी नहीं जा सकें। जहां देहात के लोग अपने खेतों की पैदावर लेकर आते हैं सीमावर्ती गांवों से। खासकर सौ सौ मील की दूरी के दूर दराज के गांवों से आने वाली मेहनतकश महिलाओं के जीने के संघर्ष और परिवार और समाज को बचाये रखने की उनकी संवेदनाओं से भींजता रहा हूं।

बहुतों के गांव घर बच्चों के बारे में जानता हूँ जैसे मछलियाँ काटने कूटने वाली महिलाएं अपनी दिहाड़ी से अपने बच्चों को उच्च शिक्षा दिला रही हैं, उसे हर रोज सलाम करने का मन होता है।

मैं फिर भी लिखने के लिए कहीं जा नहीं पाता। लिखकर अगर उनकी कोई मदद कर पाया तो जीवन धन्य हो जाये।

मेरे लिखने का असली मकसद भी वही है अपनी मेहनतकश भारतमाताओं के हक हकूक के हक में खड़ा होने की कोशिश है यह, जो जबतक सांसे जारी हैं, जारी रहेगी यकीनन। लेकिन इसी वजह से मैं उन लोगों के बीच जा नहीं पाता जब जाता हूँ तो उनके बेइंतहा प्यार में मुझे देशभर में बसंतीपुर का ही विस्तार मिलता है और इसी बसंतीपुर की जमीन में, कीचड़ में, गोबर में धंसकर मुक्तबाजारी नस्ली विध्वंसक सत्तावर्चस्व मोर्चाबंदी में हम आपके मन की खिड़कियों और दिमाग के दरवाज्जे पर दस्तक देते रहने की बदतमीजियाँ करता रहता हूँ।

लोग सवाल करते हैं कि इतना क्यों लिखते हो और लिखने से क्या होता है। मेरे लिए इससे बड़ा सवाल है कि मैं लिखने के अलावा कर ही क्या सकता हूँ। इसी बेहद बुरी आदत के लिए मैं अपने स्वजनों से कभी ठीक-ठाक मिल नहीं पाता और कोई माफीनामा इसके लिए काफी नहीं है।

हमें इन्हीं लोगों की परवाह है। आज भी उन लोगों ने घेर लिया और सवालों से घिरे हम जवाब खोजते रहे लेकिन फिर भी यह खुलासा यकीनन नहीं कर सकें कि दरअसल माजरा क्या है।

संकट यही है कि आम जनता के सवालों का जवाब जाहिर है कि राजनीति और सत्ता से नहीं मिलने वाला है। मीडिया को उन सवालों की परवाह नहीं है वह तो रोज अपनी सुविधा और कारपोरेट दिशा निर्देशन में सवाल और मुद्दे गढ़कर असली सवालों को हाशिये पर फेंकने का ही काम करता है।

जनता के सवालों के मुखातिब होकर उन सवालों का जवाब खोजने वाले लोगों की तलाश में भटक रहा हूँ।

हम दस साल से अलग-अलग सेक्टर में जाकर कर्मचारियों का प्रोजेक्शन के साथ कारपोरेट एजेंडा समझाते रहे हैं और बजट का भी विश्लेषण करते रहे हैं और हम कुछ भी नहीं कर सके। हिंदी, बांग्ला और अंग्रेजी में निरंतर लिखते रहे चौबीसों घंटे और हम कुछ भी कर नहीं सके। हमारे लोगों ने हमारी चीखों को सुनने की कोशिश ही नहीं की और नतीजा कितना भयावह है, इसका अंदाजा भी उन्हें नहीं है।

विडंबना यह है कि अस्मिताओं में खंड-खंड भारत माता के लिए आत्मरक्षा का कोई उपाय नहीं है जैसे फेसबुक पर चांदनी अपने को बेचने की पेशकश की, तो खलबली मची हुई है और इस देश की राजनीति जो देश को ही बेच रही है, उससे हमें कोई फर्क पड़ता नहीं है। हम लोग राष्ट्रद्रोही करोड़पति अरबपति तबके के सत्ता वर्चस्व के खिलाफ खड़े होने का जोखिम उठाने के बजाये उनके फेंके टुकड़े बीनने में लगे हुए हैं।

विडंबना यह है कि बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर ने बिना आरक्षण, बिना कोटा, बिना मंत्रियों, सांसदों, विधायकों, पढ़े लिखे बहुजनों की बेइंतहा फौज के प्रकृति, पर्यावरण और मनुष्यता के जो अधिकार सुनिश्चित किये, उसके वारिसान हम अपनी विरासत के बारे में सिरे से अनजान हैं और जयभीम, जयमूलनिवासी, नमोबुद्धाय कहकर अपने को बाबा के सबसे बड़े भक्त साबित करने में लगे हैं।

और हमें मालूम ही नहीं चल रहा है कि सत्तापक्ष की जनसंहारी कारपोरेट राजकाज और नीतियों की वजह से न सिर्फ कृषि जीवी जनता, पूरी की पूरी महनताकश जमात के साथ-साथ कारोबार में खपे हमारी सबसे बड़ी आबादी का खातमा ही केसरिया कारपोरेट एजंडा है।

बहर हाल लोकसभा ने आज श्रम कानूनों को सरल बनाने वाले विधेयक को मंजूरी दे दी। इस विधेयक राज्यसभा में इस सप्ताह की शुरुआत में ही पास किया गया था, जिसमें 40 तक कर्मचारियों वाले प्रतिष्ठानों को रिटर्न दाखिल करने और दस्तावेजों का रखरखाव करने से छूट दी गई है। वर्तमान में यह सीमा 19 कर्मचारियों की है।

तृणमूल कांग्रेस की अगुआई में आम आदमी पार्टी, माकपा जैसे विपक्षी दलों ने विधेयक का विरोध किया और इसे मजदूर विरोध बताया। तृणमूल कांग्रेस के सौगत राय द्वारा प्रस्तावित संशोधनों के खारिज होने के बाद सदन ने विधेयक को पास कर दिया।

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