प्रो. हरिओम राजनीतिक विमर्शकार
यह अनुच्छेद हर मामले में जम्मू-कश्मीर और संघ के अन्य राज्यों के बीच अनुचित और अपमानजनक भेद बनाता है, वह केवल लोगों की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन को कश्मीर में सत्तारूढ़ कुलीन असाधारण विधायी और कार्यकारी शक्तियों में निहित करता है और यह सिवाय नफरत की दीवार के और कुछ भी नहीं है। इसने कश्मीर में सभी वर्ग के नेताओं और साम्प्रदायिक कांग्रेसियों को प्रतिक्रिया के लिए उकसाया जिससे मौलिक तौर पर एक अप्रिय और बुरे कानून की वकालत की चाहत बढ़ी। इसे तत्काल खत्म किये जाने की जरूरत है या फिर इस अनुच्छेद को दुरु स्त करने की जरूरत है क्योंकि कश्मीरी नेतृत्व महिलाओं, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, अन्य पिछड़े वर्गों और पश्चिमी पाकिस्तान से आये शरणार्थियों को सम्मानजनक जीवन व्यतीत करने के उनके मौलिक अधिकार से वंचित करने के रूप में इसका दुरु पयोग किया है
जम्मू की ‘ललकार रैली’ में भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी के उत्तेजक सुझाव ‘यह पता लगाने के लिए इस पर बहस होनी ही चाहिए कि भारतीय संविधान का अनुच्छेद 370 जम्मू-कश्मीर और इसके लोगों के लिए फायदेमंद रहा है या इसने उन्हें दारु ण कष्ट दिया है। लोकतंत्रीकरण की प्रक्रिया को अवरु द्ध किया है, जिसने समूचे कश्मीर के नेताओं को औंधा दिया है; ने एक सार्थक बहस का आगाज किया है। मोदी ने कहा कि अनुच्छेद 370 से जम्मू-कश्मीर से सिर्फ 50 परिवारों को फायदा हुआ है और शेष लोगों के लिए यह ‘बंधन का चार्टर’ साबित हुआ है। यही वजह कई कि भारतीय जनता पार्टी साठ से अधिक सालों से इस प्रावधान को खत्म किये जाने की मांग करती रही है। यदि यह अनुयायियों द्वारा साबित हो जाता है कि अनुच्छेद- 370 राज्य के लोगों के लिए लाभकारी रहा है और इसने राज्य सरकार को देश के सामरिक दृष्टि से इस महत्त्वपूर्ण राज्य में राज-व्यवस्था लोकतांत्रिक बनाने में मदद दी है तो इसे बनाये रहा जा सकता है। दरअसल, यह अनुच्छेद- 370 की उपयोगिता पर बहस किये जाने का प्रासंगिक व अहम आग्रह है जिसने महत्त्वपूर्ण दौर में बहस का आगाज किया है। यह होनी ही चाहिए ताकि संविधान के इस सर्वाधिक विवादास्पद और विशिष्ट प्रावधान से जम्मू- कश्मीर को हुए नफा-नुकसान का आकलन किया जा सके। प्रतिगामी राजनीति के शून्य शब्दकोष मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला और नेशनल कान्फ्रेंस (नेकां) के कार्यवाहक अध्यक्ष और उनके पिता केंद्रीय मंत्री फारूक अब्दुल्ला, जम्मू-कश्मीर प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष सैफुद्दीन सोज, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी (पीडीपी) की अध्यक्ष महबूबा मुफ्ती, भारत की मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (माकपा) के राज्य सचिव मोहम्मद यूसुफ तारीगामी और उनके जैसे ही अन्य लोगों ने मोदी के सुझाव को रौंदने के लिए हाथ मिलाया है। वस्तुत: वे राज्य की असल आकांक्षाओं पर वज्र प्रहार करते रहे हैं और उन्होंने सदा से इसे नजरअंदाज किया है। अलबत्ता, उन्हें कामयाबी मिलने के आसार नहीं हैं। एक राज्य, एक व्यक्ति और एक राष्ट्र के सिद्धांत की वकालत करनेवाली बीजेपी और मोदी के खिलाफ उनके तेज़ होते हुए हमले, हर बीतते हुए घंटे के साथ तीखे होते जा रहे हैं। बजाय तथ्यों के आधार पर वैध और तर्कसंगत तर्क करने की जगह वे तीन बार मुख्यमंत्री चुने गये शख्स के खिलाफ असंसदीय भाषा का प्रयोग कर रहे हैं। मोदी पर उनके हमले केवल उनकी अपनी निराशा और हताशा का संकेत है, और साथ ही अनुच्छेद-370 पर बहस में शामिल होने के लिए उनका इनकार भी। यह इस बात को दशर्ता है कि अनुच्छेद-370 पर अपने रु ख का बचाव करने के लिए उनके प्रतिगामी राजनीतिक शब्दकोश में कुछ भी नहीं है। छलपूर्ण तर्क सभी का एक सूत्रीय एजेंडा राज्य को राष्ट्रीय मुख्यधारा से अलग रखने का है, जिससे कि घाटी का सत्तारूढ़ अभिजात वर्ग और उनके एजेंट राजनीति और अर्थव्यवस्था पर उनका बोलबाला बनाये रख सकें और कश्मीर को भारत से तोड़ने के उनकी सदियों पुरानी घोषणा पत्र को पूरा कर एक स्थानीय कुलीन तंत्र को स्थापित कर सकें। यह कहना उचित होगा कि उनका यह सारा काम भारत और सभी भारतीयों के उनके दृष्टिकोण को दर्शाता है, जो कि घृणा और अवमानना का है और वे छल, भावनात्मक ब्लैकमेल और इनमे भी सबसे बुरी साम्प्रदायिकता के बल पर राजनीति में पनपे और जन्मे हैं।और तर्क है कि वे कांग्रेस, जदयू, सपा और वाम दलों, विशेष रूप से भाकपा और माकपा जैसे अल्ट्रा सांप्रदायिक पार्टयिां जो भारत को लगभग दो दर्जन देशों का समूह मानती हैं और जिसमें कि हर समूह को होने का अधिकार है, वे अपने रु ख का बचाव करने के हताश प्रयास में आगे बढ़ रही हैं। यह कह रही हैं कि अनुच्छेद-370 ‘जम्मू- कश्मीर और देश के बाकी हिस्सों के बीच एक पुल की तरह है। इसके विध्वंस से राज्य का भारत से अपने आप ही अलगाव हो जाएगा। यह एक फर्जी तर्क है। अनुच्छेद-370 का राज्य के भारत में विलय के साथ कुछ भी लेना-देना नहीं है। यह एक अस्थायी प्रावधान है। इसे भारतीय संसद द्वारा भारत के संविधान के अनुच्छेद 368 को लागू करके संशोधित या निरस्त भी किया जा सकता है। याद रखें, यह लेख भारत के संविधान के भाग 21 के अंतर्गत ‘अस्थायी संक्रमणकालीन और विशेष प्रावधान शीर्षक’ में आता है। अत: संसद इसे अनुच्छेद-379 से 391 की तरह निराकृत कर इसे निरस्त करने में पूरी तरह सक्षम है क्योंकि यह भी भारत कि कानूनी किताब के भाग 21 का ही एक हिस्सा है। यहां तक कि भारत के राष्ट्रपति भी अनुच्छेद 370 के अंतर्गत उसको दी गई शक्तियों के तहत कुछ ही समय में इस अनुच्छेद को स्क्रैप कर सकते हैं। इस अनुच्छेद के तहत, संघ के अध्यक्ष को असीमित कार्यकारी शक्तियां प्राप्त है। आवश्यकता है राजनीतिक इच्छा शक्ति की; जिसकी कमी है। खुद शेख ने इसे निर्थक होना बताया था तथ्य यह है कि इस मामले में मोदी को गलत साबित करने के लिए जो तर्क आगे बढ़ाये गए हैं; वे हास्यापद और बेकार हैं। यहां तक कि प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, जिन्होंने देश के खिलाफ 1949 में कश्मीर को अलग करने की साजिश की थी और ‘स्विट्जरलैंड की तरह आजाद कश्मीर’ के कथाकार शेख मुहम्मद अब्दुल्ला जो कि उमर अब्दुल्ला के दादा और फारूक अब्दुल्ला के पिता थे, ने 1963 में संसद को यह बताया था कि अनुच्छेद-370 ने अपनी चमक खो दी है और आने वाले समय में यह निर्थक हो जाएगा। उन्होंने कहा था-‘अनुच्छेद-370 घिस चुका है और क्रमिक क्षरण की प्रक्रिया चल रही है, और हमें उसे ऐसे ही चलने देना चाहिए। अम्बेडकर ने कहाथा विश्वासघाती प्रावधान अनुच्छेद-370 नेहरू और शेख के दिमाग की उपज था और इसे 17 अक्टूबर 1949 को भारतीय संविधान द्वारा मौलाना हसरत मोहानी की स्पष्ट चेतावनी को अनदेखा कर कुछ ही समय में अपनाया गया था. मोहानी ने कहा था कि जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा बाद में उसे ‘स्वतंत्रता ग्रहण करने के लिए’ प्रेरित करेगा। इससे पहले 27 मई 1949 को प्रो केटी शाह, जो कि बिहार से संविधान सभा के सदस्य थे, ने अपने सहयोगियों से शेख अब्दुल्ला की संदिग्ध साख पर विचार करने के आग्रह के साथ एक आदमी (अब्दुल्ला) की चाहतों के लिए समर्पण न करने के लिए कहा था। हालांकि जवाहरलाल नेहरू ने शाह के बयां को एकमुश्त रूप से अस्वीकार कर दिया था और कहा था कि उन्हें एक कश्मीरी के रूप में कश्मीर के बारे में अधिक पता है और शेख अब्दुल्ला की उनके विचार के लिए सराहना की थी। संविधान मसौदा समिति के अध्यक्ष डॉ. बी.आर अम्बेडकर ने 1949 में ही शेख अब्दुल्ला से कहा था : आप भारत और भारतीयों से कश्मीर की रक्षा कराना चाहते हैं। आप कश्मीर और कश्मीरियों को पूरे भारत में सभी अधिकारों का प्रयोग कराना चाहते हैं लेकिन आप भारत और भारतीयों को जम्मू-कश्मीर में उन्ही अधिकारों का प्रयोग नहीं करने देना चाहते हैं। मैं भारत का कानून मंत्री हूं और मैं राष्ट्रीय हित के विश्वासघात का एक अधिनियम पारित नहीं कर सकता।’ नेहरू ने शेख अब्दुल्ला को अपनी मांग पर विशेष ध्यान देंने के लिए डॉ. अम्बेडकर को समझाने के लिए कहा था। दरअसल, अनुच्छेद-370, हर मामले में जम्मू-कश्मीर और संघ के अन्य राज्यों के बीच अनुचित और अपमानजनक भेद बनाता है, वह केवल लोगों की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक जीवन को कश्मीर में सत्तारूढ़ कुलीन असाधारण विधायी और कार्यकारी शक्तियों में निहित करता है और यह सिवाय नफरत की दीवार के और कुछ भी नहीं है। इसने कश्मीर में सभी वर्ग के नेताओं और साम्प्रदायिक कांग्रेसियों को प्रतिक्रिया के लिए उकसाया जिससे मौलिक तौर पर एक अप्रिय और बुरे कानून की वकालत की चाहत बढ़ी। इसे तत्काल खत्म किये जाने की जरूरत है या फिर इस अनुच्छेद को दुरु स्त करने की जरूरत है क्योंकि कश्मीरी नेतृत्व महिलाओं, अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जनजातियों, अन्य पिछड़े वर्गों और पश्चिमी पाकिस्तान से आये शरणार्थियों को सम्मानजनक जीवन व्यतीत करने के उनके मौलिक अधिकार से वंचित करने के रूप में इसका दुरु पयोग किया है। वे राज्य की आबादी का 85 फीसद से अधिक हैं और उनका नेतृत्त्व मोदी के इस सुझाव को अयोग्य समर्थन दे रहा है।
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रविवार, 8 दिसंबर 2013
370 कोई गीता, कुरान तो नहीं कि बदला न जाए
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