रविवार, 8 दिसंबर 2013

अस्थायी अनुच्छेद के दुष्परिणाम

1947 में जम्मू-कश्मीर में पश्चिम पाकिस्तान से आये हिन्दू शरणार्थी (आज लगभग दो लाख) अब भी नागरिकता के मूल अधिकारों से वंचित हैं, जबकि तत्कालीन प्रधानमंत्री शेख अब्दुल्ला ने ही खाली पड़ी सीमाओं की रक्षा के लिए उनको यहां बसाया था। इनमें अधिकतर हरिजन और पिछड़ी जातियों के हैं। इनके बच्चों को न छात्रवृत्ति मिलती है और न ही इन्हें व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में प्रवेश का अधिकार है। सरकारी नौकरी, संपत्ति क्रय-विक्रय तथा स्थानीय निकाय चुनाव में मतदान का भी अधिकार नहीं है। 63 वर्षो के पश्चात भी अपने ही देश में वे गुलामों की तरह जीवन जी रहे हैं। शेष भारत से आकर यहां रहने वाले व कार्य करने वाले प्रशासनिक पुलिस सेवा के अधिकारी भी इन नागरिकता के मूल अधिकारों से वंचित हैं। 30-35 वर्ष इस राज्य में सेवा करने के पश्चात भी इन्हें अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए राज्य से बाहर भेजना पड़ता है और सेवानिवृत्ति के बाद वे यहां एक मकान भी बनाकर नहीं रह सकते। 1956 में जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन प्रधानमंत्री बख्शी गुलाम मुहम्मद ने जम्मू शहर में सफाई व्यवस्था में सहयोग करने के लिए अमृतसर (पंजाब) से 70 बाल्मीकि परिवारों को निमंत्रित किया। 54 वर्ष की दीर्घ अवधि के पश्चात भी उन्हें राज्य के अन्य नागरिकों के समान अधिकार नहीं मिले। उनके बच्चे चाहे कितनी भी शिक्षा प्राप्त कर लें, वह जम्मू- कश्मीर के संविधान के अनुसार केवल सफाई कर्मचारी की नौकरी के लिए ही पात्र हैं। आज उनके लगभग 600 परिवार हैं लेकिन उनकी रिहायशी कॉलोनी भी अब तक नियमित नहीं की गयी है। मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू न होने के कारण यहां पिछड़ी जातियों के लिए आरक्षण नहीं है। 1947 से 2007 तक कश्मीर घाटी में हरिजनों को कोई आरक्षण प्राप्त नहीं हुआ। सर्वोच्च न्यायालय के 2007 के निर्णय, जिसके अंतर्गत हरिजनों को कश्मीर घाटी में आरक्षण प्राप्त हुआ, को भी सरकार ने विधानसभा में कानून द्वारा बदलने का प्रयास किया, जो जनांदोलन के दबाव में वापस लेना पड़ा। संपत्ति कर, उपहार कर, शहरी संपत्ति हदबंदी कानून आदि लागू नहीं होते। शासन के विकेन्द्रीकरण के 73 एवं 74वें संविधान संशोधन को अब तक लागू नहीं किया गया। गत 67 वर्षो में केवल 4 बार पंचायत के चुनाव हुए। आज भी भारतीय संविधान के 395 अनुच्छेद में से 260 यहां लागू नहीं हैं। यहां भारतीय दंड विधान के स्थान पर रणवीर पैनल कोड (आर.पी.सी.) लागू है। अनुसूचित जनजाति के समाज को राजनीतिक आरक्षण अब तक प्राप्त नहीं है। कानून की मनमानी व्याख्याओं के कारण जम्मू व लद्दाख को विधानसभा व लोकसभा में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं है। जम्मू का क्षेत्रफल व वोट अधिक होने के बाद भी लोकसभा व राज्य विधानसभा में प्रतिनिधित्व कम है। लेह जिले में दो विधानसभाओं का कुल क्षेत्रफल 460000 वर्ग किमी. है। सारे देश में लोकसभा क्षेत्रों का 2002 के पश्चात पुनर्गठन हुआ, परन्तु जम्मू-कश्मीर में नहीं हुआ। यहां विधानसभा का कार्यकाल 6 वर्ष है जबकि पूरे देश में यह 5 वर्ष है। भारत के राष्ट्रपति में निहित अनेक आपातकालीन अधिकार यहां लागू नहीं होते।

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