करियर में ऊंची छलांग और आर्थिक तौर पर स्वावलंबी होने की जद्दो जहद में लड़कियों की शादी में जहां एक ओर देरी हो रही है, वहीं कुछ लड़कियां ऐसी भी हैं जो मनमाफिक लड़के की तलाश में शादी के बंधन में बंधने में देरी कर रही हैं। लड़कियों की शादी में देरी में आर्थिक, सामाजिक और पारिवारिक मामले कितने जिम्मेदार हैं, ये अहम है क्योंकि जब शादी की परिभाषा ही बदल जाए और इसे सिर्फ समझौता माना जाने लगे तो शादी को लेकर दोबारा से सोचना जरूरी हो जाता है
डॉ. मोनिका शर्मा
तीस साल की निधि मुंबई में एक अच्छे ओहदे पर काम कर रही हैं। उन्होंने पिछले पांच बरसों में अपना फोकस सिर्फ करियर पर ही कर रखा था और शादी के बारे में सोचा तक नहीं। अब निधि विवाह के बंधन में बंधकर घर बसाना चाहती हैं लेकिन शादी का निर्णय करने के लिए उन्हें और उनके परिजनों को कई ऐसे बिंदुओं पर भी विचार करना पड़ रहा है जो आज से कुछ साल पहले तक लड़की और उसके परिवारवालों के लिए विचारणीय नहीं थे। ऐसी ही कहानी संचिता की भी है जो फिलहाल अपना ध्यान अपने करियर पर लगा रही हैं। वह पूरे आत्मविश्वास से स्वीकारती है, ‘मैं सिंगल और खुश हूं। मुझे शादी की कोई जल्दी नहीं। जब तक मुझे सही मायने में समझने वाला जीवन- साथी नहीं मिलता, मैं इंतजार करना चाहूंगी। कभी भी ऐसे रिश्ते के लिए ‘हां’ नहीं कहूंगी जो मुझे पूर्णता न देकर बस एक बंधन में बांध दे।’
गौरतलब है कि बीते कुछ बरसों में हमारे समाज के भीतर करियर में सफल और आत्मनिर्भर व्यक्तित्व की धनी निधि और संचिता जैसी लड़कियों की संख्या तेजी से बढ़ी है, जो देरी से शादी करती हैं। उनके लिए शादी को प्राथमिकता देने की सोच वैसी नहीं है जैसी पहले हुआ करती थी। बड़ी उम्र में घर बसाना आजकल आम बात है या यूं कहें कि यह एक ट्रेंड बनता जा रहा है।
मौजूदा मंत्र पहले करियर फिर शादी, यही है मौजूदा दौर का मंत्र। पहले खुद को, अपने जीवन को स्थापित करो और फिर करो परफेक्ट पार्टनर की तलाश। यही है देरी से शादी करने की सबसे बड़ी वजह। आज की लड़कियां विवाह से ज्यादा अपने करियर को प्राथमिकता दे रही हैं। आजकल न केवल लड़कियां बल्कि उनके परिवार भी चाहते हैं कि आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होने के बाद ही बेटी शादी के बंधन में बंधे। इसलिए बड़ी उम्र तक सिंगल रहना अब कोई हैरान करने वाली बात नहीं है। कई सव्रे भी बताते हैं कि न केवल भारत बल्कि अधिकतर एशियाई देशों में शादी करने की उम्र बढ़ी है। इसका सबसे अहम कारण शिक्षित और कामकाजी लड़कियों की संख्या बढ़ना है। अब तो हमारे परिवारों में यह सोच घर कर गई है कि चाहे जितनी देरी हो जाए, शादी करियर में स्थापित होने के बाद ही की जाए। शादी को अब पारंपरिक मान्यता मानकर स्वीकार कर लेने का भाव कम हुआ है। स्वयं को स्वावलंबी बनाकर घर बसाने की सोच को बढ़ावा मिला है। अब औरों की खुशी के लिए नहीं बल्कि अपनी सोच और समझ को ध्यान में रखते हुए जीवनसाथी तलाशे जा रहे हैं।
बदली है शादी की परिभाषा शादी की पारंपरिक परिभाषा बदल चुकी है। पहले पढ़ाई के दौरान ही अभिभावक बेटी की शादी के लिए चिंतित हो उठते थे। लड़कियों के लिए करियर के विकल्प भी बहुत सीमित थे। पारंपरिक हिसाब से देखें तो भारतीय परिवारों में 20 से 25 साल की उम्र को शादी के लिए सही समझा जाता है। पर अब शादी के लिए उम्र का पैमाना कुछ और ही हो गया है। भागती-दौड़ती जिंदगी और करियर की आपाधापी में तीस साल की उम्र तो प्रोफेशनल फ्रंट पर सेटल होते-होते ही निकल जाती है। करियर के लिहाज से ही नहीं, शादी को लेकर हमारी पारिवारिक सोच में भी बड़ा बदलाव आया है। पहले जहां शादी का निर्णय पूरी तरह परिवार और रिश्तेदारों पर निर्भर करता था, अब खुद लड़कियां यह तय करने लगी हैं कि उन्हें क ब और किससे शादी करनी है। पढ़ी-लिखी आत्मनिर्भर लड़कियां यह फैसला अब वैचारिक और व्यावहारिक सोच को परखते हुए करती हैं। इसमें उन्हें अपनी बढ़ती उम्र की कोई चिंता नहीं। फिक्र है तो बस इतनी कि शादी के बाद वे पूरे सम्मान और सुरक्षा के साथ इस संबंध को जी सकें। अब शादी का निर्णय व्यावहारिक बातों को समझकर किया जा रहा है ताकि आगे चलकर शादी के रिश्ते में न तो अत्यधिक अपे क्षाएं हावी हों और न ही जन्मों का यह साथ घुटन और उपेक्षा का शिकार बने ।
जुड़े हैं विमर्श के नये विषय आज के दौर में शादी का बंधन केवल सात फेरों की रस्मअदायगी भर नहीं है बल्कि दो स्वतंत्र विचार और व्यक्तित्व वाले इंसानों द्वारा जीवन भर साथ निभाने के लिए जोड़ा जाने वाला गठबंधन है। इसलिए इस रिश्ते में बंधने से पहले लड़का और लड़की दोनों अपने मन की हर शंका, हर सवाल का जवाब पहले ही ले लेना चाहते हैं, ताकि शादी के बंधन की मिठास और रिश्तों का सोंधापन सदा कायम रहे। शादी का निर्णय करते समय करियर, पैरेंटिंग, स्वास्थ्य और वित्तीय मसलों पर खुलकर राय देने और लेने का सामाजिक माहौल पहले नहीं था। ऐसे में, आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर लड़कियां और उनका परिवार शादी के लिए सोच-समझकर ही ‘हां ’ कहता है। अपनी पसंद, अपनी टाइप का लड़का, जो हर तरह से परिवार और भावी दुल्हन को पसंद आए तो ही शादी का फैसला किया जाता है। जाहिर है कि ये प्रक्रिया भी समय लेती है, जिसके चलते शादी में देरी होती जाती है।
समझौता नहीं साथी चाहिए आमतौर पर देखने में आता है कि करियर के फ्रंट पर आज की शिक्षित और आत्मनिर्भर लड़कियां समझौता नहीं करना चाहतीं और न ही वे अपनी आजादी खोना चाहती हैं। ऐसे में अब वधू पक्ष वाले परिवार भी अपनी बेटी की ख्वाहिशों और तमन्नाओं को लेकर समझौते नहीं करते। आज की कमाती-खाती बेटियों के घर वाले जानते-समझते हैं कि आगे चलकर ऐसे समझौ ते जीवन को तनाव और अपराधबोध से भर देते हैं। इसीलिए रिश्ता तय करने में देरी हो इसकी चिंता न करते हुए सहमति-असहमति के हर बिंदु पर विचार करने के बाद ही शादी के लिए ‘हां’ कहा जाता है। पहले हमारे परिवारों में लड़की की शादी की जल्दी इसलिए होती थी क्योंकि उन्हें वित्तीय और भावनात्मक सुरक्षा शादी के बाद ही मिलती थी। आज स्थिति बिल्कुल उलट है। बेटियां स्वावलंबी हैं और उनकी भी अपनी पहचान है। ऐसे में शादी में जल्दबाजी क्यों करें?
सामाजिक-पारिवारिक दबाव में कमी आज के समय में शादी कर लेने के लिए भाई-बहनों की शादी या सहेलियों की विदाई हो जाने के मामले जैसे तर्क कोई स्थान नहीं रखते। अब शादी एक व्यक्तिगत या पारिवारिक मामला है। विवाह से जुड़े निर्णय में देरी या जल्दबाजी के मसले पर समाज और परिवार का दबाव पहले की तरह नहीं है। इसीलिए बढ़ती उम्र भी कोई बड़ा मुद्दा नहीं रहा। सिंगल रहकर अपने करियर को आगे बढ़ाने और अपने मनमुताबिक जीवनसाथी तलाशने के बदले मिलने वाला अकेलापन अब मजबूरी नहीं, स्वयं का चुना हुआ मार्ग है। बीते कुछ बरसों में शादी के बंधन में भी असुरक्षा और अलगाव के मामले बढ़े हैं, जिसे देखते हुए आज के दौर की युवतियों में कुछ और साल सिंगल रहकर, देख- परखकर शादी करने की सोच को बढ़ावा मिला है। शादी को लेकर जो निर्णय किया जाए वह सही हो, इस बात को इतनी अहमियत दी जा रही है कि अब नाते-रिश्तेदारों द्वारा भी कोई दबाव नहीं बनाया जाता है। घर हो या बाहर, अब लड़कियों का देरी से शादी करना बेचारगी या सहानुभूति का मुद्दा नहीं है।
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रविवार, 8 दिसंबर 2013
पहले करियर फिर शादी
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