बुधवार, 8 जनवरी 2014

बढ़ती जनसंख्या, बढ़ती चुनौतियां



जनसंख्या वृद्धि विश्व की सबसे बड़ी समस्या है। संयुक्त राष्ट्र की मानें तो आज विश्व की जनसंख्या सात अरब का आंकड़ा पार कर गई है। चिंता की बात यह है कि यह बेतहाशा बढ़ रही है। आज वैश्विक आबादी में हर साल साढ़े आठ से नौ करोड़ की बढ़ोतरी हो रही है। माना जा रहा है कि भविष्य में कुछ बड़े अफ्रीकी और दक्षिण एशियाई देश जनसंख्या को और तेजी से बढ़ाएंगे। इसमें खासतौर से भारत भी शामिल है। वास्तविकता यह है कि जिस तरह जनसंख्या वृद्धि एक चुनौती है, ठीक उसी तरह इसके साथ-साथ इससे उपजी चुनौतियों का सामना करना भी समूचे विश्व के लिए आसान नहीं है। ये चुनौतियां बहुत बड़ी समस्या का रूप धारण कर चुकी हैं। इस मामले में एशिया प्रशांत क्षेत्र सबसे अधिक चुनौतियों से जूझ रहा है। इनमें ग्रामीण आबादी का पलायन और शहरी आबादी में बेतहाशा बढ़ोतरी सबसे बड़ी चुनौती है। भोजन, पानी, स्वास्थ्य सम्बंधी रोजमर्रा की जरूरतों की आपूर्ति के साथ ही जलवायु परिवर्तन से बिगड़ा पर्यावरणीय माहौल, ऊर्जा की बढ़ी जरूरत, परिवहन, औद्योगिक संसाधन और इंफास्ट्रक्चर के लिए ऊर्जा, कार्बन उर्त्सजन के कारण बढ़ती ग्लोबल वार्मिंग और जलवायु से जुड़े भीषण खतरे जैसी चुनौतियां मुंह बाये खड़ी हैं। एक चिंतनीय पहलू यह है कि देश के कई बड़े राज्यों में नाटकीय ढंग से ग्रामीण आबादी में गिरावट दर्ज की गई है। विडम्बना यह है कि उन राज्यों के पास काफी उपजाऊ जमीन है और वहां खेती का काफी पुराना इतिहास है। वैश्विक दृष्टि से यदि इतिहास पर नजर डालें तो वर्ष 1800 में दुनिया की तीन फीसद से भी कम आबादी शहरों में रहती थी जबकि वर्ष 2008 के आखिर तक शहरी आबादी का यह आंकड़ा 50 फीसद को भी पार कर चुका था। आज हालत यह है कि अब इस क्षेत्र में एक करोड़ या उससे अधिक आबादी वाले 26 महानगर हो गए हैं। इनमें टोकियो, सियोल, शंघाई, मुंबई, दिल्ली, जकार्ता, मनीला, कराची, कोलकाता, बीजिंग, ओसाका और ढाका शामिल हैं। इसमें दो राय नहीं कि मौजूदा हालात में महानगरों की आर्थिक कामयाबी के बावजूद समूची दुनिया की सरकारें बुनियादी सवालों से हर स्तर पर जूझ रही हैं। गौरतलब है कि इस सदी के दौरान दुनिया में जिस तरह महानगरों की तादाद बढ़ेगी, ठीक उसी तरह बहुतेरे कई और शहरों की आबादी में भी बढ़ोतरी होगी। परिणामस्वरूप वहां एक ओर जहां ऊर्जा की मांग में बढ़ोतरी होगी, वहीं खाद्य आपूर्ति, पानी, औद्योगिक संसाधन, परिवहन और इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए ऊर्जा पर जोर रहेगा। हमारे सामने कॉर्बन उर्त्सजन तो ग्लोबल वार्मिंग की बड़ी वजह है ही, जलवायु से जुड़े खतरों से भी हम जूझ रहे हैं। इस दौरान शहरों का तापमान वैश्विक व राष्ट्रीय भूमि क्षेत्र के तापमान की वृद्धि दर से दुगनी-तिगुनी दर से बढ़ रहा है। इसे हीट आइलैंड कहते हैं। इसके अलावा जैसे चीन को देखिए, वहां ग्रामीण अंचल से पलायन के लिए ग्रामीणों को सब्सिडी दी जाती है, नतीजतन वहां केवल पांच सालों में ही जहां शहरों की तादाद दोगुनी हुई, वहीं आबादी में दोगुने से भी ज्यादा इजाफा हुआ। जापान को लें, वहां आए भीषण सुनामी में टोकियो को यह सोचने पर विवश कर दिया कि वह परमाणु ऊर्जा और शहरों की सुरक्षा के प्रति अपने नजरिये पर पुनर्विचार करे और नयी परिस्थितियों के मद्देनजर अपनी नीतियां और सोच का निर्धारण करे। ठीक इसी तरह 2003 में पेरिस में लू के भयंकर प्रकोप से सर्वत्र त्राहि-त्राहि मच गयी। इसका प्रमुख कारण यह रहा कि वहां के समाज और स्थानीय प्रशासन ने इस तरह के मौसमी प्रकोप से लड़ने की तैयारी नहीं की थी। ऐसी दशा में उनकी स्थिति एक असहाय मूकदर्शक की सी बनी रही। इसलिए इन स्थितियों से भी निपटने के लिए तैयार रहना होगा। यह सच है कि प्राकृतिक आपदाओं से उतनी ही बड़ी तबाही होगी जितना बड़ा शहरी इलाका होगा। उस दशा में चेतावनी प्रणाली भी जानमाल की हिफाजत कर पाने में नाकाम रहती है। अक्सर देखा गया है कि आंधी, तूफान और बाढ़ के संयुक्त खतरों से आगाह होने के बावजूद लोगों के पास कम वक्त मिल पाता है कि वे सुरक्षित इलाकों में समय रहते पनाह ले सकें। शहरों पर बढ़ते दबाव के चलते यह बेहद जरूरी है कि आपात स्थिति के लिए शरण स्थलों का निर्माण हो। इस दिशा में बांग्लादेश का उदाहरण दिया जा सकता है। वहां बनाये गए शरण स्थलों ने वहां की एक बड़ी आबादी को बाढ़ और चक्रवात जैसी आपदाओं से बचाया है। आज दुनिया के सामने समुद्र और नदियों के किनारे बसे अपने तटीय इलाकों व महानगरों को सुरक्षित रख पाना, कैटरीना जैसे तूफानों और बाढ़ से बचाव, टारनेडो का खतरा, समुद्र के बढ़ते जलस्तर से होने वाली फसलों की बर्बादी आदि से निपटने की दिशा में चेतावनी तंत्र की बेहद जरूरत है। इस दिशा में दुनिया के वैज्ञानिक इन खतरों से निपटने की पुरजोर कोशिश कर रहे हैं ताकि एक ऐसी प्रणाली तैयार की जा सके, जिससे हादसों के पूर्व चेतावनी जारी की जा सके और समय रहते निगरानी रख सकें। बैंकाक की बाढ़, न्यू ओरलेंस में आए कैटरीना तूफान आदि इस बात के प्रमाण हैं कि उस समय न तो उचित सुरक्षा इंतजाम थे और न ही बाढ़ संबंधी चेतावनी तंत्र। पिछले सालों में ह्यूस्टन और फिलीपींस आदि में आए तूफान ने इस तथ्य को प्रमाणित किया है। इंग्लैंड का कैनवे द्वीप इसका सबसे बढ़िया उदाहरण है जहां पर चारों ओर से किलेबंदी कर दी गई है ताकि वह 1953 की तर्ज पर आई बाढ़ का मुकाबला कर सके। बीते सालों के कई उदाहरण हैं जब विश्व के अनेक महानगर और वहां की सरकारें अचानक आयी विपदाओं का मुकाबला कर पाने में नाकाम रही हैं। उसी का परिणाम है कि अब दुनिया के देशों की सरकारें हर स्तर पर उन विपदाओं का सामना करने के लिए न केवल कटिबद्ध हैं बल्कि पर्यावरणीय कारकों से भी निपटने की रणनीति बना रही हैं। वे इस दिशा में जनता को भी जागरूक करने की भरसक कोशिश कर रही हैं। जरूरत इस बात की है कि इस बाबत विश्व स्वास्थ्य संगठन, विश्व मौसम नियंत्रणकेन्द्र, देशों की सरकारें और अन्य अन्तरराष्ट्रीय एजेंसियों को एकजुट होकर जनता को विपदाओं से मुक्ति दिलानी होगी जो इन विपदाओं को झेलने के आदी हो चुके हैं। यही नहीं, दुनिया के देशों को आसन्न खतरों से निपटने की खातिर अंतर-शहरी सहयोग को प्रमुखता देनी होगी। यही तमाम सरकारों का प्रथम उद्देश्य होना चाहिए तभी इन चुनौतियों का मुकाबला किया जा सकता है।
-ज्ञानेन्द्र रावत

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