बुधवार, 8 जनवरी 2014

सिद्धि का द्वार है योग

सर्वागपूर्ण योग पद्धति के चार प्रमुख अंग हैं- शुद्धि, मुक्ति, सिद्धि और भुक्ति। साधना की प्रथम अनिवार्य आवश्यकता है-शुद्धि। विभिन्न उपदिष्ट साधना पण्रालियों में इसका महत्त्वपूर्ण स्थान है। यह अंत: और बाह्य दोनों के परिशोधन का प्रयास है। शुद्धि की शुरुआत होती है, समता के दिग्दर्शन से। साधक निम्न प्रकृति की सभी क्रियाओं, विभिन्न द्वंद्वों, अविद्या के आक्रमण और अपने अज्ञान को इस दृष्टि से देखता है और उसे दूर करने हेतु प्रयत्न करता है। ऐसे शुद्ध, शांत, चंचल और नीरव आधार पर ही तो भागवत आनन्द, प्रेम, ज्ञान का अवरोहण संभव है। इसका दूसरा अंग है- मुक्ति। इसका तात्पर्य अन्य लोक-लोकान्तर में न पलायन है, न समस्त स्थूल क्रिया-कलापों अथवा प्रकृतिगत चेष्टाओं का परित्याग कर निर्वाण प्राप्त करना। इसके दो पद हैं-त्याग और ग्रहण। इसमें एक निषेधात्मक और दूसरा विधेयात्मक है। प्रथम का अर्थ है, सत्ता की निम्न प्रकृति के बंधनों, आकर्षणों से छुटकारा। द्वितीय भावनात्मक पक्ष का तात्पर्य है उच्च स्तर पर आध्यात्मिक सत्ता में समाहित होना, उसकी दिव्य अनुभूतियों में रमण करना। निष्काम निरहंकारी हो आत्मा को विश्वात्मा के साथ एक करके, उच्चतम दिव्यता धारण करना। शुद्धि व मुक्ति दोनों ‘सिद्धि’ की पहले की अवस्थाएं हैं। पूर्णयोग में सिद्धि का अर्थ है भागवत सत्ता की प्रकृति के साथ एकत्व की प्राप्ति। मायावादी सत्ता में सर्वोच्च सत्य निर्विकार निगरुण एवं आत्म सचेतन ब्रrा है। अतएव आत्मा की शुद्ध, निर्विकार शान्ति एवं चेतनता में विकसित एकाकार होना ही उसकी सिद्धि है। बौद्ध उच्चतम सत्य-सत्ता को अस्वीकृत करते हैं। उनके लिए सत्ता की क्षणिकता, कामना की विनाशकारी निस्सारता का बोध, संस्कारों-कर्म श्रृंखलाओं का विलय ही सर्वागपूर्ण मार्ग है। पर सर्वागपूर्ण योग में सिद्धि का तात्पर्य है-एक ऐसी दिव्य आत्मा और दिव्य कर्म प्राप्त करना, जो विश्व में दिव्य कर्म का खुला क्षेत्र प्रदान करे। इसका समग्र अर्थ है- सम्पूर्ण प्रकृति को दिव्य बनाना तथा उसके अस्तित्व व कर्म की समस्त असत्य गुत्थियों का परित्याग। भुक्ति का तात्पर्य है अनासक्त भाव से उपभोग। जीवन में दिव्य पूर्णता का अवतरण करना, सम्पूर्ण जीवन को आध्यात्मिक शक्ति का क्षेत्र मानकर दिव्य भोग करना ही भुक्ति का आंतरिक सार है। तभी सिद्धि संभव हो सकेगी, मानव अतिमानव बन सकेगा। गायत्री तीर्थ शांतिकुंज, हरिद्वार
- पं. श्रीराम शर्मा आचार्य सत्संग

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें