पिछले साल ने 2014 के भारतीय राजनीति के केंद्रीय परिदृश्य को बहुत कु छ स्पष्ट कर दिया है। इसमें अहम भूमिकाएं अदा करने वाले किरदारों की शिनाख्त कर दी है। उनके साथ ही, चुनावी मसलों, समीकरणों और उसके बाद की सम्भव सत्ता की तस्वीर को स्पष्ट कर दिया है। सूबों में पहले से संगठन और इस बूते सूबों में कायम सरकारों के चलते दे श के बड़े हिस्से में लड़ाई भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस के बीच रहेगी। नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी (हालिया विधानसभा चुनावों में नकारे जाने के बावजूद) के बीच ही मुख्य मुकाबला होगा। हालांकि दिल्ली में काबिज ’आप‘ की सरकार और उसके प्रति लोगों का आकर्षण भी एक प्रवृत्ति के रूप में रहेगा। इसके समानांतर क्षेत्रीय दलों और उनके क्षत्रपों की नीतियां और उनके क्रियान्वयन ने भी एक जनाधार विकसित किया है, जो अपने-अपने तरीकों से बटन पर दाब को प्रेरित करेंगे। हालांकि यह देखने वाली बात होगी कि यहां-वहां उभरे मुद्दों को ये नेता किन तरीकों से प्रभावित करते हैं। यशवंत देशमुख बता रहे हैं इस मर्म को-
नरेन्द्र मोदी बनाम राहुल गांधी लोक सभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी और राहुल गांधी के बीच सीधा मुकाबला होने जा रहा है। आखिरकार, संघ परिवार ने मोदी को राष्ट्रीय मंच पर लाने के मद्देनजर अपनी चुप्पी तोड़ी और अब वह भारतीय जनता पार्टी की तरफ से प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी हैं। उनके आने से जहां राजग के सहयोगी दलों के लिए परीक्षा की घड़ी होगी वहीं, राजग के भावी सहयोगी दल भी कहीं ज्यादा सतर्क होंगे। आज वह ऐसी हस्ती हैं, जो भारतीय राजनीति को लेकर होने वाली हर र्चचा के केंद्र में हैं। उनके समक्ष सबसे बड़ी चुनौती भाजपा को 2014 में 200 से ज्यादा सीटें दिलाकर केंद्र में कांग्रेस को सत्ता की पटरी से उतारना है। राहुल को मोदी को रोकना है। हर सूरत प्रयास करने हैं कि सत्ता-विरोधी रुझान उनकी पार्टी को नुकसान न पहुंचाने पाएं। वह मौजूदा यूपीए सरकार के कार्यकलाप से इतर स्वच्छ-साफ छवि के साथ उभरने के प्रयास में जुटे हैं। मतलब कि कांग्रेस पार्टी के युवा हिस्से पर ध्यान केंद्रित करने पर उनका ज्यादा ध्यान है। इस काम में उन्हें बड़ी कुशलता की दरकार होगी। निहित स्वार्थो में पगी और जड़ताग्रस्त पार्टी को नया रूप देने में खासी कुशलता का परिचय देना होगा।
आम आदमी पार्टी (‘आप’) बीते साल शानदार उभार के बाद इस नवजात पार्टी ने 2014 के लोक सभा चुनाव में 300 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारने का फैसला किया है। अमेठी को केंद्र बनाकर जिस रूप में यह पार्टी बात कर रही है, उससे मुकाबले को मोदी बनाम राहुल से हटाकर मोदी बनाम केजरीवाल बनाती दिख रही है। हालांकि उसके संगठन को देखते हुए लोक सभा चुनाव में उसकी सफलता के बारे में टिप्पणी नहीं की जा सकती। लेकिन अगर उम्मीदवार अच्छे हुए, बाकी के बनिस्बत, तो ‘आप’ उनकी सम्भावना को कठिन जरूर बना सकती है।‘आप’ का दावा है कि वह धर्मनिरपेक्ष है, लेकिन इसके 70 प्रतिशत समर्थक नरेन्द्र मोदी को अगला प्रधानमंत्री बनते देखना चाहते हैं। कह सकते हैं कि ‘आप’ नोटा का ही एक अप्रचारित-सा संस्करण है। जब हर राजनीतिक मोर्चा चूक गया तब इसका अभ्युदय हुआ। हम नहीं जानते कि इस नये मोर्चे का भविष्य क्या होगा लेकिन हर किसी के विरोध का विचार ‘आप’ के लिए काम का रहा।
अल्पसंख्यक मतदाता बीते पांच वर्षो में असेंबली स्तर पर जो चुनाव हुए हैं, उनमें यह तथ्य स्पष्ट हुआ है कि गुजरात और बिहार में क्रमश: नरेन्द्र मोदी और नीतीश कुमार को हर चौथे मुस्लिम मतदाता ने वोट किया। इसलिए उम्मीद जताई जा सकती है कि अल्पसंख्यकों का मध्यवर्गीय तबका धार्मिक व पारम्परिक र्ढे से हटकर वोट कर सकता है।
टीआरएस और वाई एसआर कांग्रेस वर्ष 2004 में आंध्र प्रदेश ही वह राज्य था, जिसने कांग्रेस को सत्तारूढ़ होने में मदद की थी। लेकिन बीते पांच सालों में खासकर राज्य विभाजन सम्बन्धी फैसले, वाईएसआर की मृत्यु तथा राज्य कांग्रेस इकाई में टूट के चलते राज्य की राजनीति में आमूल बदलाव आ चुके हैं। अब वहां दो नए खिलाड़ी- वाईएसआर और टीआरएस-भी हैं। दोनों एक दूसरे को फूटी आंख नहीं सुहाते लेकिन केंद्र में उनके एक ही सरकार के साथ होने में किसी को ताज्जुब नहीं होगा।
राजनाथ सिंह प्रधानमंत्री पद के अच्छे दावेदार हैं, क्योंकि उन्होंने एक तरफ आरएसएस का विास हासिल किया है, तो दूसरी तरफ नरेन्द्र मोदी के भी करीबी बने रहने में कामयाबी पाई। अगर भाजपा 175-180 सीटों तक ही सिमट रही तो उसे अपने सहयोगियों से समर्थन की जरूरत होगी जो मोदी के नाम पर सहमत नहीं होते हैं, तो राजनाथ ही होंगे, जो दोनों पक्षों को स्वीकार्य होंगे। आरएसएस उन्हें समर्थन देगी और इस स्थिति में उनकी पार्टी को उन्हें समर्थन देना ही होगा।
मायावती अपने नेतृत्त्व के चलते दलितों के लिए मायावती प्रधानमंत्री पद की उम्मीदवार हैं। उत्तर प्रदेश में रहने वाले लोग समझते हैं कि अगर असेंबली चुनाव होते हैं, तो मायावती फिर से सत्ता में आ जाएंगी। पिछले असेंबली चुनाव में चतुष्कोणीय मुकाबले-भाजपा, कांग्रेस, समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी के बीच-में मायावती सपा से मात्र दो प्रतिशत पीछे ही रही थीं। यदि उप्र में किसी कारण से सपा डगमगाती है, तो मायावती को सत्ता में आने के लिए अपने वोट बैंक में इजाफा करने तक की जरूरत नहीं पड़ेगी। अपने दलित मतों और बड़ी संख्या में लोक सभा चुनाव के लिए घोषित ब्राह्मण और मुस्लिम उम्मीदवारों के बल पर मायावती प्रधानमंत्री पद के लिए मजबूत दावेदार हैं।
नवीन पटनायक इस सूची में हैं, तो मात्र इसलिए कि उन्होंने सब से निर्धन राज्यों में शुमार ओडिशा में बेहतरीन ढंग से सरकार चलाई है। पटनायक के दावे को न केवल वाम मोर्चा और जयललिता से उनकी करीबी से मजबूती मिलती है, बल्कि पूर्व में भाजपा के साथ कामकाजी सम्बन्ध भी उनके पक्ष में होंगे।
ममता बनर्जी तृणमूल कांग्रेस की नेता और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी भले ही यूपीए छोड़ चुकी हैं और राज्य में वामपंथी उनकी आलोचना करने में पीछे नहीं हैं, लेकिन उनकी लोकप्रियता नित-नित चढ़ान पर है। उन्होंने लोक सभा चुनाव में बंगाल की सभी सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारने का फैसला किया है। बंगाल के लोग उनसे खुश नहीं हैं, लेकिन माकपा से उन्हें बेतहर विकल्प समझते हैं। बंगाल में ममता का ठोस मुस्लिम वोट बैंक है। ममता ने त्रिपुरा में भी, लोक सभा चुनाव में पांव पसारने का फैसला किया है।
जयललिता अन्नाद्रमुक नेता और तमिलनाडु की मुख्यमंत्री। राज्य की दोनों पार्टियांद्र मुक और अन्नाद्रमुक-दिल्ली में लम्बे समय से महत्त्वपूर्ण भूमिका में रही हैं। इसलिए तमिलनाडु में 39 से ज्यादा सीटें हासिल करने वाली पार्टी का जलवा होगा। लगता है कि हम 1998 के समय में पहुंच गए हैं, जब जयललिता का यही जलवा था। अब तक तो यह कहा जाता था कि जयललिता किंगमेकर ही रहना पसंद करेंगी लेकिन अभी पार्टी के समारोह में उन्होंने लालकिले के प्रति अपनी लालसा जाहिर कर दी है। इससे पीएम पद की दावेदारों की कतार में वह भी शामिल हो गई हैं। इससे यह भी जाहिर है कि वह प्रधानमंत्री बनें या बनें लेकिन इसको सम्भव करने वाले समीकरणों को जरूर प्रभावित करने की स्थिति में होंगी।
वामदल बीते कई दशकों से वामपंथी तमाम राजनीतिक घटनाक्रमों के केंद्र में रहे हैं। लेकिन पिछले पांच वर्षो के दौरान कुछ चुनावी नतीजों ने उनकी स्थिति को नाजुक बना दिया है। यूपीए-एक के कार्यकाल के दौरान वामपंथी सत्ता और विपक्ष, दोनों भूमिका में नजर आए। पश्चिम बंगाल और केरल में हार के बाद उन्हें झटका लगा है। अलबत्ता, त्रिपुरा उनका अंतिम अभयारण्य के रूप में कायम है। हालांकि आगामी चुनावों में केरल में वामपंथी खासा अच्छा प्रदर्शन कर सकते हैं। पश्चिम बंगाल में भी कांग्रेस के खराब प्रदर्शन के चलते वे अपने प्रदर्शन में खासा सुधार कर सकते हैं।
लालू प्रसाद और मुलायम सिंह यादव ये दोनों फीनिक्स सरीखे हैं। हर बार मीडिया उनके पिक्चर में ही नहीं होने की बात कहता है, और वे उभर कर सामने आ जाते हैं। दोनों ही जमीनी नेता हैं। उनका जनाधार उन्हें पसंद करता है। इसके साथ ही, दोनों-लालू और मुलायम-भारत में मुसलमानों के लिए सर्वाधिक विश्वसनीय नेता हैं। जो उनकी अनदेखी कर रहा होगा तो अपने जोखिम पर ही ऐसा कर रहा होगा।
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