बांग्लादेश अपने जन्म के समय कट्टरपंथ और स्वाधीनता विरोधी जिन दो प्रमुख बीमारियों से जकड़ा हुआ था, आज 43 साल बाद भी उन्हीं बीमारियों की गिरफ्त में है। वहां एक तरफ धर्मनिरपेक्ष और जातीय राष्ट्रवाद का समर्थन करने वाली ताकतें हैं, तो दूसरी तरफ मुक्ति विरोधी और इस्लामी कट्टरपंथी ताकतों का गठजोड़ है। इसी के साथ अमेरिका और उसकी सहयोगी पश्चिमी ताकतें फिर एक तरफ हैं, तो बांग्लादेश के जन्म में प्रमुख भूमिका निभाने वाला भारत उनके विरुद्ध इस देश की नई प्रासंगिकता ढूंढ रहा है।
दुनिया भर के लोकतंत्र समर्थक दावा करते हैं कि चुनावी जम्हूरियत तमाम हिंसक और कट्टरपंथी समस्याओं का समाधान है, लेकिन उसके लिए कुछ बुनियादी संस्थाओं, मान्यताओं और संविधान का होना जरूरी है। उसके बिना चुनावी जम्हूरियत किसी तानाशाही से भी बड़ी समस्या बनकर खड़ी हो जाती है। उसका उदाहरण हम एक तरफ नेपाल में देख रहे हैं, तो दूसरी तरफ इसी रविवार को संपन्न हुए चुनाव के बाद बांग्लादेश में देख रहे हैं। धांधली और संकीर्णता के बाद चुनाव बहिष्कार लोकतंत्र की गंभीर बीमारी है और वह उस समय प्राणघातक हो जाती है, जब उसमें देश के प्रमुख राजनीतिक दलों की भागीदारी होती है। ऐसा ही कुछ हाल बांग्लादेश में वहां की प्रमुख पार्टी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी के नेतृत्व में जमायत-ए-इस्लामी समेत 18 पार्टयिों की तरफ से चुनाव बहिष्कार के बाद हुआ है। यह सही है कि 345 (45 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित) सीटों वाली जातीय संसद में इस समय शेख हसीना वाजेद की अवामी लीग ने 231 सीटें हासिल कर ली हैं और वह दोबारा सरकार बना रही है, लेकिन उसे प्रमुख विपक्षी दल बीएनपी का कड़ा विरोध झेलना पड़ रहा है। बीएनपी इन परिणामों को स्वीकार करने की बजाय उसके विरोध में खड़ी हो गई है। अवामी लीग ने 127 सीटें निर्विरोध जीत लीं और जिन 147 सीटों पर चुनाव हुए, उसमें से भी अवामी लीग ने 104 सीटें जीत लीं। उसके बाद वहां दूसरी सबसे बड़ी पार्टी जातीय पार्टी है जिसे 33 सीटें मिली हैं। छह सीटें पाकर वर्कर्स पार्टी उसके बाद आती है।
चुनाव बहिष्कार और एक तिहाई से भी कम मतदान के आधार पर हुए इस चुनाव से निकली हसीना सरकार किस तरह देश में अपनी वैधता कायम कर पाएगी और विरोधी ताकतों से समझौता कर उन्हें शांत करेगी, यह देखा जाना है। फिलहाल स्थिति यही है कि जहां शेख हसीना का समर्थन करते हुए भारत कह रहा है कि उन्होंने चुनाव पूरी तरह संवैधानिक कायदों के आधार पर करवाया है; वहीं इस चुनाव पर ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका सवाल उठा रहे हैं। अमेरिका का तो कहना है कि यह चुनाव न तो विश्वसनीय है, न ही साफ-सुथरा- इसलिए इसे फिर से कराया जाना चाहिए ताकि तमाम राजनीतिक दलों की भागीदारी हो सके। हालांकि संयुक्त राष्ट्र के महासचिव बान की मून ने चुनाव की विश्वसनीयता के बजाय हिंसा पर सवाल खड़ा किया है और उन्होंने हसीना वाजेद की तरह उन तमाम राजनीतिक ताकतों से हिंसा छोड़ने की अपील की है जो किसी न किसी बहाने इसमें शामिल हैं। पांच जनवरी को हुए जातीय संसद के चुनाव में वहां का चुनाव आयोग 39.8 प्रतिशत मतदान होने का दावा कर रहा है, जबकि इन आंकड़ों को कहीं 22 प्रतिशत तो कहीं 28 प्रतिशत बताया जा रहा है। दूसरी तरफ बीएनपी की नेता खालिदा जिया इसे महज 10 प्रतिशत बता रही हैं। यह सही है कि पाकिस्तान की तरह ही तमाम आतंकवादियों से संबंध रखने वाली पार्टी जमायत-ए-इस्लामी के महज चार प्रतिशत मत हैं लेकिन इस समय उसकी कट्टरपंथी राजनीति तेजी से परवान चढ़ी है और उससे संबंध बनाने और तोड़ने का मुद्दा बांग्लादेश का मुख्य मुद्दा बन गया है। शेख हसीना का कहना था कि खालिदा जिया पहले हिंसा और जमायत-ए-इस्लामी का साथ छोड़ें, तब उनसे बात हो सकती है।
दूसरी तरफ खालिदा जिया की मांग रही है कि पहले शेख हसीना वाजेद इस्तीफा देकर देश में कार्यवाहक सरकार की स्थापना करें, तब उसकी देखरेख में चुनाव हो। अब चूंकि संविधान संशोधन के बाद वहां वह स्थिति नहीं है जिसमें चुनाव कार्यवाहक सरकार के तहत होता है, इसलिए हसीना और उनका समर्थन करने वाली भारत सरकार चुनाव को सही और जिया को गलत ठहरा रही हैं। बांग्लादेश के लोकतंत्र के गतिरोध के मुद्दे तो वही हैं जो 44 साल पहले थे और जिसके कारण उसका नए देश के तौर पर जन्म हुआ था। उन्हीं मुद्दों के कारण वहां की दो प्रमुख पार्टयिों ने कभी एक-दूसरे से विधिवत संवाद नहीं किया और न ही अपने को लोकतांत्रिक संस्था के दो पहियों के रूप में स्वीकार किया। उनमें से जो भी पार्टी सत्ता में आई, उसकी विपक्षी पार्टी से नहीं बन पाई। देश के संस्थापक शेख मुजीब की हत्या के बाद बांग्लादेश में लोकतंत्र कायम होने में तकरीबन 15 साल लग गए और फिर पांच साल बाद उसमें तीखा टकराव शुरू हो गया। 1996 में जब चुनाव हुआ तो बीएनपी सत्ता में थी और इसी अवामी लीग ने चुनाव का बायकाट किया था। बाद में खालिदा जिया को फिर से चुनाव करवाना पड़ा। 2006 से 2008 का समय भी राजनीतिक गतिरोध और पार्टयिों के निलंबन का रहा है। फिर पांच साल बाद बांग्लादेश का लोकतंत्र आज जबर्दस्त गतिरोध और हिंसा के चौराहे पर खड़ा है, तो उसके पीछे 1971 के युद्ध अपराधियों पर चलाया गया मुकदमा और उन्हें दिया गया दंड है। सबसे ज्यादा उग्र विरोध की स्थिति पिछले दिसम्बर में उस समय हुई जब जमायत-ए-इस्लामी के नेता और मीरपुर के हत्यारे कहे जाने वाले अब्दुल कादिर मुल्ला को फांसी दी गई। मुल्ला ने 1971 में एक कवि की हत्या की थी, 11 साल की लड़की से बलात्कार किया था और 344 लोगों की गोली मार कर जान ली थी। लेकिन कादिर मुल्ला की फांसी आसानी से संभव नहीं हुई। उसके लिए कानून में बदलाव करना पड़ा और उसके चलते काफी विवाद उठा। फिर आखिरी क्षण में उसकी फांसी पर स्टे भी आया और बीच में अमेरिकी विदेश मंत्री जान केरी ने हसीना को फोन कर फांसी रोकने की भी मांग की थी। कादिर की फांसी की प्रतिक्रिया में अवामी लीग के एक नेता को कट्टरपंथियों ने पीट-पीट कर मार डाला।
बांग्लादेश में धर्मनिरपेक्षता बनाम कट्टरपंथ की यह लड़ाई आज बदले की राजनीति में बदल गई है, जिसमें देश का खयाल पीछे छूट गया है। शेख हसीना सैद्धांतिक तौर पर सही हैं लेकिन अगर वे उदार और नरम होकर राजनीतिक संवाद नहीं शुरू करतीं तो उनके लिए शासन करना आसान नहीं होगा। प्रमुख विपक्षी पार्टी की नेता खालिदा जिया ने जमायत-ए-इस्लामी से एक तात्कालिक गठजोड़ बनाया था, अब उसे वे स्थायी रूप देती जा रही हैं। यही वजह है कि भारत के तमाम नेताओं से मुलाकात और प्रधानमंत्री तक के प्रयासों के बावजूद वे न तो वार्ता के लिए तैयार हुई, न ही भारत के प्रति उनका रु ख सकारात्मक हुआ। राष्ट्रपति बनने के बाद पहली बार बांग्लादेश के दौरे पर गए प्रणब मुखर्जी से उन्होंने अचानक मिलने से मना कर दिया। वे दिल्ली में भारत की विदेश सचिव सुजाता सिंह से मिलने और आश्वासन देने के बाद ढाका लौटकर यह कहने से नहीं चूकीं कि शेख हसीना की भूमिका सिक्किम को भारत में विलय करने वाले पहले मुख्यमंत्री काजी लेंदुप दोरजी जैसी हो रही है।
आज बांग्लादेश का विपक्ष न सिर्फ भारत विरोधी हो गया है, बल्कि वह वहां के अल्पसंख्यक हिंदू समुदाय पर हमले भी कर रहा है। वहां हिंदुओं के घर जलाए जा रहे हैं, उन्हें लूटा जा रहा है और पलायन पर मजबूर किया जा रहा है। वजह बताई जा रही है कि उन्होंने अवामी लीग को वोट दिया है। यहां फिर एक बार अमेरिका कट्टरपंथी ताकतों के साथ खड़ा होता दिख रहा है और भारत धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक ताकतों का समर्थन करते हुए भी निष्प्रभावी हो रहा है। अगर बांग्लादेश की इस गंभीर बीमारी का समय रहते इलाज नहीं किया गया तो न सिर्फ तरक्की के रास्ते पर बढ़ता एक देश संकट में पड़ेगा, बल्कि उसके भारत जैसे पड़ोसी को आतंकी गतिविधियों का सामना करना होगा।बहिष्कार और एक तिहाई से भी कम मतदान के आधार पर हुए चुनाव से निकली हसीना सरकार किस तरह देश में अपनी वैधता कायम कर पाएगी और विरोधी ताकतों से समझौता कर उन्हें शांत करेगी, यह देखा जाना है बांग्लादेश में धर्मनिरपेक्षता बनाम कट्टरपंथ की लड़ाई आज बदले की राजनीति में बदल गई है, जिसमें देश का खयाल पीछे छूट गया है। शेख हसीना सैद्धांतिक तौर पर सही हैं लेकिन अगर वे उदार और नरम होकर राजनीतिक संवाद नहीं शुरू करतीं तो उनके लिए शासन करना आसान नहीं होगा
- विश्लेषण अरुण कुमार त्रिपाठी
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