बुधवार, 8 जनवरी 2014

आतंक का मंडराता खतरा

आतंकवाद का खूनी साया देश पर किस कदर मंडरा रहा है, लश्कर-एतै यबा के कतिपय आतंकियों की गिरफ्तारी के बाद एक बार फिर इसका खुलासा हुआ है। दिल्ली पुलिस की यह जानकारी दहलाने वाली है कि लश्कर-ए-तैयबा ने मुंबई के 26/11 आतंकी हमले की तर्ज पर दिल्ली में आतंक का खूनी खेल खेलने की साजिश गत चार और छह दिसम्बर को रची थी। यह सौभाग्य ही रहा कि साजिश की पोल खुल गई और आतंकियों की साजिश नाकाम हो गई। बहरहाल, इस षड्यंत्र का खुलासा बताता है कि पाकिस्तान में बैठे भारत के दुश्मन यहां खून-खराबा कराने और आंतरिक अस्थिरता फैलाने के लिए किस कदर बेकरार हैं। चिंता की बात यह है कि पिछले महीनों में दुर्नाम आतंकियों की गिरफ्तारी के बावजूद देश में मौजूद आतंकी नेटवर्क पर वैसी करारी चोट नहीं की जा सकी जैसी उम्मीद थी। अबु जंदल, यासीन भटकल और टुंडा जैसे आतंकियों के पकड़े जाने के बाद उम्मीद थी कि इनसे मिली जानकारी के आधार पर आतंक के स्लिपिंग माड्यूल्स की पहचान करके उन्हें नेस्तनाबूद किया जाएगा। लेकिन इस उम्मीद की असलियत यह है कि इंडियन मुजाहिदीन का मास्टरमाइंड माने जाने वाले यासीन भटकल के सुरक्षा एजेंसियों की गिरफ्त में होने के बावजूद यह आतंकी गिरोह भाजपा के पीएम उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की पटना रैली में सिलसिलेवार धमाकों को अंजाम देने में सफल रहा। हालांकि इसके लिए सिर्फ पुलिस और सुरक्षा एजेंसियों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। देश में आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष को वोट बैंक की राजनीति और केंद्र-राज्य के अधिकारों की बहस में इस कदर उलझा दिया गया है कि सुरक्षा एजेंसियों को आजादीपूर्वक और प्रभावी ढंग से काम करने का वातावरण नहीं मिल पा रहा है। आतंकवाद के नाम पर चल रही छिछली सियासत का ताजा उदाहरण तो यही है कि दिल्ली पुलिस के खुलासे के बाद पूरी बहस महज इस बात पर सीमित हो गई कि जिन लोगों को लश्कर ने बरगलाने की कोशिश की है, वे मुजफ्फरनगर के दंगा पीड़ित हैं या नहीं; यानी सारा विमर्श इस बात पर केंद्रित हो गया कि अक्टूबर में इस बाबत राहुल गांधी द्वारा दिया गया बयान सही साबित हुआ या गलत। बड़ा विषय यह नहीं है कि आईएसआई और लश्कर-ए-तैयबा जिन भारतीय लोगों को बरगलाने में सफल हो रहे हैं वे दंगा पीड़ित हैं या नहीं, बड़ा प्रश्न यह है कि ऐसे हालात पैदा होने की वजहें क्या हैं कि हमारे नागरिक देश विरोधी ताकतों के हाथों का खिलौना बन रहे हैं। यदि आज पाकिस्तान बिना किसी कसाब को भेजे हमारे ही लोगों के हाथों हमारी जमीन को लहूलुहान करने में कामयाब होता दिख रहा है तो यह हमारे समूचे आतंरिक सुरक्षा परिदृश्य के लिए बेहद चिंताजनक और डरावनी स्थिति है। देश के नियंताओं को विचार करना होगा कि समाज में विभाजन की ऐसी दरारें क्यों पैदा हो रही हैं जिनमें बीज डालकर पाकिस्तान आतंकवाद को भारतीय रंग देने में कामयाब हो रहा है। हालांकि कोई भी अन्याय किसी व्यक्ति के लिए आतंकवाद के रास्ते पर चलने का बहाना नहीं बन सकता, लेकिन सचाई यह भी है कि वास्तविक सांप्रदायिक सौहार्द कायम किए बगैर आतंकवाद के राक्षस का समूल नाश मुश्किल है। बहरहाल, आगामी महीनों में आम चुनाव होने हैं। तय है कि देश के दुश्मन इस दौरान अवसर की ताक में रहेंगे। ऐसे में हमारी सुरक्षा और खुफिया एजेंसियों को लगातार मुस्तैद रहने की जरूरत है।

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