संसद-विधानसभाओं में और इनके बाहर सेमिनारों में भी पूर्व जजों के भ्रष्टाचार व उन पर यौन र्दुव्यवहार के आरोपों पर बहस की जाए। संसद और विधानसभाओं को इस पर बहस से परहेज नहीं करना चाहिए और न न्यायपालिका को अनुचित मानना चाहिए। अगर लोग न्यायपालिका को मान देते हैं, तो उन्हें न्यायपालिका के आचरण पर र्चचा करने की इजाजत क्यों नहीं दी जा सकती? किसी भी संस्था का मान लोगों से ही है और अगर लोगों के बीच संस्था से जुड़े लोगों का मान गिर गया तो उस संस्था का मान कैसे बचा रह सकता है
नए साल में न्यायपालिका के सामने भी बहुत सारी चुनौतियां रहेंगी। न्यायपालिका से लोगों की अपेक्षाएं बहुत बढ़ गई हैं। लोग हर समस्या के समाधान के लिए न्याय पालिका की तरफ देखने लगे हैं। यह सोच सही है अथवा गलत यह लम्बी र्चचा या बहस का विषय हो सकता है। अभी जरूरी यह देखना है कि न्यायपालिका से जो अपेक्षाएं की जा रही हैं, उनकी पूर्ति करने में वह कितना समर्थ है? इस संदर्भ में पहली जरूरत आबादी के अनुपात में अदालतों में जज रखने की है। यह काम इस साल प्राथमिकता के स्तर पर करना होगा। यह अदालतों में मुकदमों के अम्बार को देखते हुए उनके तय समय में त्वरित निबटान के लिए आवश्यक होगा। यह विषय सबसे महत्त्वपूर्ण है। देश की विभिन्न अदालतों में लम्बित मुकदमों की संख्या 3 करोड़ या उससे भी ज्यादा बताई जाती है। आबादी के हिसाब से जज बिठाने की बात भी मैंने मुकदमों के इन्हीं अम्बार की वजह से ही कही है। हालांकि मेरा मानना है कि मुकदमे कोई समस्या नहीं हैं। संख्या में भले ही यह सुरसा की तरह नजर आते हों या फिर इनके पीढ़ी दर पीढ़ी चलने की असंख्य कहानियां सुनी जाती हों। मेरा दृढ़ मत यह है कि सभी लम्बित मुकदमे छह महीने के भीतर खत्म किए जा सकते हैं। मेरे इस वक्तव्य पर वे लोग आश्र्चय व्यक्त कर सकते हैं जो न्यायपालिका से वास्ता नहीं रखते। आपराधिकमामले छह महीने में खत्म किए जा सकते हैं और सिविल मामले एक साल के भीतर। इसलिए कि अगर न्यायपालिका से लोगों की अपेक्षा बढ़ गई है तो उसे मुकदमों को निश्चित समय सीमा में निपटाने की चुनौती तो लेनी ही होगी। यह काम बोलने से नहीं होगा। इसके लिए हमें न्यायिक प्रक्रिया में सुधार लाना होगा। सभी पक्षों को अपना माइंडसेट बदलना होगा। अभी हमारा माइंडसेट बहुत पुराने जमाने का है। ब्रिटिश र्ढे पर ही हम न्यायपालिका को चला रहे हैं। जब माइंडसेट बदलने की बाद की जा रही है, तब जनता और वकीलों के ही नहीं, जजों के माइंडसेट भी बदलने की बात है। यहां सरकार भी अपनी जिम्मेदारी से नहीं भाग सकती। त्वरित न्याय के लिए सरकार को भी अपना माइंडसेट बदलना होगा। सिर्फ कहने से काम नहीं चलेगा। यह स्लोगन का विषय नहीं है। सरकार त्वरित न्याय के सिर्फ स्लोगन भर चलाती है। एक और अहम बदलाव सर्वोच्च न्यायालय की संरचना में करना होगा। वह यह कि देश में सुप्रीम कोर्ट की तीन बेंच रखनी होंगी। एक पूर्वोत्तर हिस्से में, दूसरी देश के पश्चिम में और तीसरी बेंच दक्षिण में रखी जानी चाहिए। न्यायपालिका के कामकाज की भाषा क्या हो? इस पर भी र्चचा करने में कोई हर्ज नहीं है। बहुत लोगों का विचार रहा है कि भाषा की वजह से बहुत से लोग ऐसा महसूस करते हैं कि उन्हें न्याय हासिल करने में मुश्किल जाती है। सुप्रीम कोर्ट में तो हिंदी या क्षेत्रीय भाषा लाना मुश्किल है। वहां तो अभी अंग्रेजी में ही कामकाज चल सकेगा। इस कोर्ट में जो जज आते हैं, वह अलग-अलग प्रांतों से आते हैं, जहां अलग-अलग भाषाएं प्रचलन में हैं। इसी वजह से एक भाषा के रूप में अंग्रेजी चलन में है, जिसे विभिन्न प्रांतों से आए जज समझ सकते हैं और अपना काम कर सकते हैं। हाई कोर्ट में क्षेत्रीय भाषा चल सकती है, उसमें ज्यादा मुश्किल नहीं जाएगी। अभी हाई कोर्ट में चीफ जस्टिस दूसरे प्रांत के जज को बनाया जाता है। क्षेत्रीय भाषा में कामकाज के लिए इस चलन को बदलना होगा। एक बात और है। हाई कोर्ट में क्षेत्रीय भाषा में कामकाज को लेकर बाकायदा अध्ययन कराया जाना चाहिए ताकि यह समझा जा सके कि किस क्षेत्रीय भाषा का कहां और कितना प्रभाव है। यह विषय बड़ा है और लोगों की भावनाएं भी इससे जुड़ी हैं, इसलिए एक अलग आयोग बनाए बिना काम नहीं चलेगा। इस तरह के कदम उठाने में विलंब नहीं होना चाहिए। जब न्यायपालिका से अपेक्षाएं दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही हैं, तब इस बात को कैसे भुलाया जा सकता है कि कुछ पूर्व जजों पर यौन उत्पीड़न और भ्रष्टाचार सरीखे आरोप लग रहे हैं। यह चिंता का विषय है। इसे छोटा विषय या व्यक्ति विशेष का विषय बनाकर नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। यह न्यायपालिका की प्रतिष्ठा से जुड़ा विषय है। अगर ऐसे मामलों से न्यायपालिका की प्रतिमा को ठेस पहुंचती है, तो देश में कानून के राज की स्थापना पर भी तो असर पड़ेगा। जजों पर लग रहे निंदनीय आरोपों पर अधिक संख्या में सेमिनार और संवाद होने चाहिए। संसद और विधानसभाओं में भी इस पर बहस से परहेज नहीं करना चाहिए और न ही न्यायपालिका को ऐसी बहस को अनुचित मानना चाहिए। मेरे जैसे व्यक्ति तो यह भी कहेगा कि संसद-विधानसभाओं से बाहर लोगों के बीच न्यायपालिका को लेकर पूरी बहस होनी चाहिए। अगर लोग न्यायपालिका को मान देते हैं, तो उन्हें न्यायपालिका के आचरण पर र्चचा करने की इजाजत क्यों नहीं दी जा सकती? किसी भी संस्था का मान लोगों से ही है और अगर लोगों के बीच संस्था से जुड़े लोगों का मान गिर गया तो उस संस्था का मान कैसे बचा रह सकता है?
एजेंडा जो है देश में सुप्रीम कोर्ट की तीन बेंच बनाई जाए। एक पूर्वोत्तर हिस्से में, दूसरी पश्चिम में और तीसरी बेंच दक्षिण भारत में रखी जाए अदालतों में मुकदमों के अम्बार को देखते हुए आबादी के मुताबिक नियुक्त किये जाएं जज सभी लम्बित मुकदमे छह महीने के भीतर खत्म किए जा सकते हैं और सिविल मामले एक साल के भीतर अगर न्यायपालिका से लोगों की अपेक्षा बढ़ गई है तो उसे मुकदमों को निश्चित समय सीमा में निपटाने की चुनौती तो लेनी ही होगी न्यायपालिका के कामकाज की भाषा पर भी विमर्श में कोई हर्ज नहीं। सु प्रीम कोर्ट में तो हिंदी या क्षेत्रीय भाषा की गुंजाइश तो कम है पर हाईकोर्ट में यह संभव क्षेत्रीय भाषा में कामकाज का बाकायदा अध्ययन कराया जाए और इसके लिए जल्द से जल्द एक आयोग बनाया जाए
-पी.बी. सावंत पूर्व न्यायाधीश, सर्वोच्च न्यायालय
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