आम आदमी पार्टी जिस झटके से दिल्ली के तख्त पर काबिज हुई थी, उसी तेजी से वह रुखसत भी हो चुकी है। अब वह आम चु नाव फतह करने के अभियान पर है। जिस दिल्ली को उसने देश में वैकल्पिक राजनीति की प्रयोगशाला बनाने का इरादा जताया था, उसके प्रति अभी उसकी कोई प्रतिबद्धता नहीं है। वहां अब राष्ट्रपति शासन लागू है। ‘आप’ की इस ‘हड़बड़ी’ से कई सवाल पैदा होते हैं। पहला तो यही कि ‘आप’ अब भी पार्टी के बजाय अभियानी क्यों बनी हुई है? दिल्ली के प्रति उसकी प्रतिबद्धता क्या पूरी हो गई, जहां वह राजनीति की एक नई इबारत लिखने चली थी? फिर अगर ध्येय लोक सभा चुनाव ही था, तो फिर जनमत संग्रह की नाटकीयता समेत तमाम तामझाम की जरूरत क्या थी? उसकी ‘हड़बड़ी’ ने शासन के तरीकों और उसके सिद्धांतों के प्रति सकारात्मक संदेश देने के बजाय शक ज्यादा जाहिर किया है। भ्रष्टाचार उन्मूलन के प्रति उसकी नीयत से इत्तेफाक रखा जाए तो भी प्रशासनिक दृष्टि से वह बहुत भरोसा पैदा नहीं करती। बड़े हिस्से का मानना है कि दिल्ली को अधूरा या लम्बित सबक नहीं बनाया जाना चाहिए था। दिक्कत उठा कर भी इसे पूरा किया जाता तो दिल्ली वैकल्पिक शासन का एक मॉ डल हो सकती थी-‘आप’ के प्रतिमानों का। इसी पर हस्तक्षेप
सत्ताइस सदस्यों की अल्पमत सरकार कब तक चलती रह सकती थी। इसलिए अगर जानी ही थी, तो क्यों न ऐसे मुद्दे पर जाए जिससे तात्कालिक रूप से लोकप्रियता हासिल हो सकती है। लड़ते हुए गिरने से जो साख बनती है, वह डरते-डरते टिके रहने में नहीं बन सकती थी। ..2014 के संसदीय चुनाव में कूदने की इससे बेहतर और सस्ती ‘लांचिंग’ नहीं हो सकती थी
क्या जन लोकपाल विधेयक पारित करवाने के लिए दिल्ली के तत्कालीन मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल को सरकार से इस्तीफा देने की आवश्यकता थी? इस प्रश्न का सीधा उत्तर है-नहीं थी। वह चाहते तो जन लोकपाल विधेयक भी पारित होता और सरकार भी बच जाती। लेकिन समकालीन भारतीय राजनीति में टिके रहने के लिए इस्तीफे की आवश्यकता तो थी ही। विधेयक को पारित करवाने के मार्ग में तो कोई अनुलंघनीय अड़चन थी ही नहीं। कांग्रेस प्रतिबद्ध थी, समर्थन देने के लिए। भाजपा भी विधेयक को गिराने का जोखिम नहीं उठा सकती थी। दोनों दलों ने सार्वजनिक तौर पर कहा था कि वे विधेयक का विरोध नहीं करेंगे। मन से वे समर्थक रहे हों या नहीं, राजनैतिक मजबूरी का तकाजा था कि वे आम आदमी पार्टी के हाथों में अपने खिलाफ बड़ा हथियार नहीं दे सकते थे। तो फिर अड़चन क्या थी? केजरीवाल कहते थे कि दिल्ली सरकार को इस विधेयक को राज्यपाल के पास अनुमोदन के लिए भेजने की आवश्यकता नहीं है, जबकि केंद्र सरकार और विपक्षी दल मानते थे कि ऐसा करना संवैधानिक रूप से अनिवार्य है। केजरीवाल इसे दिल्ली के साथ अन्याय मानते थे। हो सकता है कि उनका तर्क सही हो, दिल्ली को अब पूरे राज्य का दर्जा मिल जाना चाहिए। लेकिन यह अलग मामला है और इसके लिए दूसरी जंग लड़ने की आवश्यकता है। केवल मुख्यमंत्री ने मांगा और केंद्र सरकार ने दे दिया, ऐसा तो हो नहीं सकता है। आम आदमी पार्टी बार-बार कहती रही है कि जन लोकपाल विधेयक उसकी सब से बड़ी प्राथमिकता है, उसे पारित करवाने के लिए वे कुछ भी कर सकते हैं। तो फिर सीधा रास्ता था कि विधेयक को राज्यपाल के पास भेजते। वहां से अनुमोदित हो कर वह वापस आता और सदन में पारित करवाते। यह पूछा जा सकता है कि इस बात की क्या गारंटी है कि वह विधेयक राज्यपाल के यहां से अनुमोदित हो कर ही लौटता, खारिज हो कर नहीं। वह खारिज हो कर नहीं लौटता क्योंकि राज्यपाल से रद्द होने और कांग्रेस पार्टी द्वारा सदन में गिराने में राजनैतिक रूप से कोई अंतर नहीं। दोनों सूरतों में विधेयक को असफल करवाने का दोष कांग्रेस पर ही आता। फिर केजरीवाल सरकार से त्याग पत्र देते तो उनकी शहादत अधिक विश्वसनीय बन सकती थी। लेकिन अगर केजरीवाल कहते रहे कि मैं तो विधेयक को केंद्र के पास भेजे बिना ही पारित कर लूंगा तो साफ है कि जन लोकपाल बिल को पारित करवाना प्राथमिकता नहीं थी। प्राथमिकता थी, केंद्र को अंगूठा दिखाना। जन लोकपाल विधेयक के लिए केजरीवाल को सरकार छोड़ने की आवश्यकता नहीं थी, लेकिन अपनी भावी राजनीति के लिए थी। कानून नहीं बन सकता था जन लोकपाल बिल जन लोकपाल तो वैसे भी कानून नहीं बन सकता था। अगर केंद्र का दावा सही है कि उसे केंद्रीय मंजूरी अनिवार्य है, तो दिल्ली विधानसभा में पारित होने पर भी वह अदालतों के दांव-पेच में फंसा ही रहता। लेकिन केजरीवाल की सरकार केंद्र सरकार के खिलाफ किसी न किसी बहाने आंदोलन करने में ही व्यस्त रहती। बिजली-पानी और दूसरी नागरिक सुविधाओं पर लोक-लुभावन वादों को पूरा करवाने में सरकार वित्तीय संकट में फंस जाती और प्रशासनिक ठहराव की आशंका बनी रहती। सत्ताइस सदस्यों की अल्पमत सरकार कब तक चलती रह सकती थी। इसलिए अगर जानी ही थी, तो क्यों न ऐसे मुद्दे पर जाए जिससे तात्कालिक रूप से लोकप्रियता हासिल हो सकती है। इसलिए जिस दिन सरकार बनी थी, उसी दिन से केजरीवाल कहने लगे थे कि हम तो मानते हैं कि यह सरकार अड़तालीस घंटे ही चलेगी। लड़ते हुए गिरने से जो साख बनती है, वह डरते-डरते टिके रहने में नहीं बन सकती थी। बड़े राजनीतिक नेताओं और बड़े उद्योगपतियों के विरुद्ध जांच के आदेश जारी करवाने, केंद्र सरकार, गृह मंत्री और उपराज्यपाल के विरुद्ध जंग छेड़ने से केजरीवाल ने अपनी एक लड़ाकू की छवि बना ली है, जिसका प्रभाव दिल्ली से बाहर भी दूर-दूर तक जा सकता है। 2014 के संसदीय चुनाव में कूदने की इससे बेहतर और सस्ती ‘लांचिंग’ नहीं हो सकती थी, जिसकी योजना आम आदमी पार्टी ने आरम्भ से ही बना ली थी। जिन लोगों को इस बात का मलाल है कि केजरीवाल ने कुछ समय और प्रतीक्षा क्यों नहीं की; वे शायद इस बात को नहीं समझ पा रहे हैं कि संसदीय चुनाव बहुत निकट हैं। अगर उनमें गंभीरता के साथ शामिल होना है, तो यही सही समय था, न बहुत पहले और न बहुत देर से। दिल्ली के मतदाता, खासकर दिल्ली के मध्यवर्गीय पढ़े-लिखे मतदाताओं ने किस बात के लिए या किस उम्मीद में केजरीवाल को वोट दिया था, यह दिल्ली के लोग अपने आप से पूछने की स्थिति में नहीं हैं। फिलहाल तो उनमें शायद बहुसंख्यक अब भी केजरीवाल को अपना हीरो ही मानते होंगे। लेकिन दिल्ली केजरीवाल के लिए मंजिल नहीं है, यह अच्छा पायदान अवश्य साबित हुआ है। उनकी मंजिल पूरा भारत है। 2014 के संसदीय चुनावों में अपनी ताकत आजमाना उनका लक्ष्य है। इसलिए केजरीवाल ने एक राजनीतिक जीव के रूप से कोई गलत काम नहीं किया। वही किया है, जो नरेन्द्र मोदी पहले ही कर चुके हैं और कांग्रेस अब तक भी नहीं कर पा रही है। अब भी अपरिभाषित शक्ति आम आदमी पार्टी अब भी अपरिभाषित शक्ति है, जिसके सही-सही प्रभाव का आकलन करना कठिन है। आम तौर पर प्रेक्षक कहते सुने जाते हैं कि चुनावों में यह पार्टी दोनों बड़ी पार्टियों का नुकसान करेगी। अगर कांग्रेस के वोट छीनती है, तो उससे सामान्य तौर पर नुकसान भाजपा को होना चाहिए क्योंकि अब तक जहां कांग्रेस और भाजपा आमने-सामने हों तो एक की हानि दूसरे का लाभ ही सिद्ध हुई है। यानी इस तरह ‘आप’ भाजपा को उन वोटों से वंचित करेगी, जो उसे कांग्रेस से मिल सकते थे। लेकिन दिल्ली जैसे महानगरों का यह मापदंड हम भारत के छोटे कस्बों और हजारों गांवों पर नहीं लागू कर सकते हैं। यह खाम खैयाली होगी जो हम मान लें कि आम आदमी पार्टी के आते ही लोग जाति, सम्प्रदाय और क्षेत्र के बंधनों से मुक्त हो गए हैं या फिर आम भारतीय समाज व्यापक पैमाने पर इन विभाजक वगरे से तंग आ चुके हैं और आम आदमी पार्टी के आते ही उसकी और लपक पड़ेंगे। हमारे देश में कई जातियां और वर्ग तुलनात्मक ढंग से वोट देते हैं। उनके चुनावी रुझान बहुआयामी होते हैं। कहीं वे पहले से तय करते हैं कि किसे हराना है। जिसे हराना चाहते हैं, उसके खिलाफ संगठित हो जाते हैं। उसे हराने की जिसमें क्षमता दिखती है, वही वोट का पात्र बन जाता है। कहीं स्थानीय हितों, तो कहीं राष्ट्रीय हितों को ध्यान में रख कर अलग-अलग दलों को चुनते हैं। दिल्ली ने स्वयं भी कई बार ऐसा किया है। आम आदमी पार्टी के साथ किंचित सहानुभूति के बावजूद कांग्रेस विरोध की भावना का अधिकतर लाभ कहीं भाजपा को ही मिल सकता है। अखिल भारतीय स्तर पर कांग्रेस के विकल्प की छवि बनाने के लिए जितना समय चाहिए; वह अब शायद ही उपलब्ध हो पाए। जातियों के गणित का हिसाब लगा कर चुनाव लड़ने का प्रयास भी आम आदमी पार्टी ने भी कहीं-कहीं किया है; मसलन, दिल्ली के चांदनी चौक चुनाव क्षेत्र से आशुतोष को खड़ा करने के पीछे यही गणित है, क्योंकि आशुतोष वैश्य हैं और चांदनी चौक में सबसे बड़े मतदाता वर्ग वैश्य और मुसलमान ही हैं। लेकिन मुश्किल है कि किसी जाति का सामूहिक समर्थन पाने के लिए केवल उसी जाति में जन्म लेना काफी नहीं होता। भाजपा और किसी हद तक कांग्रेस के भी मुसलमान नेताओं को मुस्लिम समुदाय के वास्तविक प्रतिनिधि होने का दर्जा तो शायद ही मिल पाता हो। बड़ी पार्टियों को नहीं लगता कि पच्चास-साठ से अधिक सीटों पर आम आदमी की चुनौती गंभीर हो सकती है लेकिन पेश सभी सीटों पर भी उन्हें लगता है-एक बैल अचानक कुम्हार की दुकान में घुस आया है। पता नहीं, क्या-क्या तोड़-फोड़ डाले।
जवाहरलाल कौल वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक
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सोमवार, 24 फ़रवरी 2014
सामने संसद तो विधानसभा किस काम की?
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