नेशनल फेडरल फ्रंट यानी राष्ट्रीय संघीय मोर्चा को मुलायम हवा दे रहे है। मुलायम सिंह की समाजवादी पार्टी,जनता दल परिवार के पुराने घटकों को एक मंच पर आने की पक्षधर है और यह पार्टी सार्वजनिक कर चुकी है। कांग्रेस अगर सौ सीटों के आसपास रही तो वह भी इस तरह की कवायद का समर्थन कर भाजपा को रोकने का प्रयास करेगी। उधर बिहार में नीतीश कुमार भी इसके पक्षधर हैं। तमिलनाडु में लोकसभा चुनाव में वाम दलों के जयललिता के साथ आने के बाद इस फ्रंट को और ताकत मिली है और बिहार में नितीश वाम दलों के व्यापक मोर्चे की बात कर रहे हैं। हालाँकि उत्तर प्रदेश के राजनैतिक हालात बिलकुल अलग है और यहाँ वाम दलों की चुनावी ताकत ऐसी नहीं है कि वे मुख्यधारा के किसी दल के साथ जा सकें। मुलायम सिंह साफ़ कर चुके हैं कि वे चुनाव से पहले किसी भी दल के साथ कोई समझौता नहीं करेंगे। यह बात अलग है कि राष्ट्रीय फलक पर वाम दल मुलायम के साथ खड़े हैं।
इस सबके बावजूद उत्तर प्रदेश में वाम दल अगर लोकसभा चुनाव में साथ आए और कम सीटों पर ज्यादा ताकत लगाए तो माहौल बन सकता है। उत्तर प्रदेश में वीपी सिंह के दादरी आंदोलन के समय लोकतांत्रिक वाम ताकतों की एकजुटता सामने आई थी पर छोटे-छोटे दलों ने टिकट को लेकर इस मोर्चे को तोड़ दिया और इसके मुख्य चेहरे राजबब्बर कांग्रेस में चले गए जिससे इस कवायद को बड़ा झटका लगा। वर्ना पिछले विधान सभा चुनाव में ही यह मोर्चा अपनी ताकत दिखा सकता था। फिलहाल उत्तर प्रदेश में दो वाम दलों के बीच फिर से संवाद शुरू हो रहा है। वैसे प्रदेश में भाकपा, माकपा, फॉरवर्ड ब्लाक और आरएसआई का मोर्चा बन चुका है पर इसमें जमीनी ताकत सिर्फ भाकपा और माकपा की ही रही है और वे बहुत सी सीटों पर चुनाव लड़के इस ताकत को और कम कर देते हैं। भाकपा माले को इस मोर्चे से अब तक अलग रखा गया था पर इस बार संवाद शुरू हो रहा है। यदि ऐसा मोर्चा बनता है तो बाद में संघीय मोर्चा का रास्ता आसान हो जायेगा। समाजवादी पार्टी चाहती है कि धर्म निरपेक्ष क्षेत्रीय ताकते एक मंच पर आएं औए वाम दलों के समर्थन के साथ यह व्यापक मोर्चा बने। तभी कांग्रेस का भी मुद्दों के साथ समर्थन मिल सकता है। मुलायम सिंह इसके लिये लोकसभा में ज्यादा से ज्यादा सीट लेकर जाना चाहते हैं और वे लगातार बड़ी-बड़ी रैलियाँ भी कर रहे हैं जो संख्या के हिसाब से मोदी की रैलियों से भी बड़ी हैं। यह बात अलग है कि राष्ट्रीय फलक पर मुलायम की इन बड़ी रैलियों को ज्यादा महत्व नहीं दिया जा रहा है मोदी के मुकाबले।
मुजफ्फरनगर सांप्रदायिक हिंसा के बाद समाजवादी पार्टी मुसलमानों को लेकर चिंतित हुयी और उसी के बाद रैलियों का सिलसिला शुरू हुआ जिसमें आजम खान ज्यादातर रैलियों में रहते हैं। विधान सभा चुनाव के प्रचार के समय समूचे पूर्वांचल में आजम खान सिर्फ एक रैली में मुलायम के साथ थे। इससे समाजवादी पार्टी की चिन्ता को समझा जा सकता है। दूसरे पिछड़ों और अति पिछड़ों को लेकर पार्टी ज्यादा जोर लगा लगा रही है और गायत्री प्रसाद प्रजापति का कद और पद इसी वजह से बढ़ाया जा चुका है। इस सब के बावजूद विधान सभा जैसी जीत की सम्भावना किसी को नहीं है। आप पार्टी के उदय से भी कुछ नुक्सान शहरी क्षेत्रों में हो सकता है पर आप की वजह से भाजपा और कांग्रेस को ज्यादा नुकसान होगा जिससे समाजवादी पार्टी को राहत मिलने की उम्मीद है। मुलायम अगर पच्चीस तीस सीट लाने में कामयाब हुये तो फेडरल फ्रंट में उनकी ज्यादा चलेगी और फ्रंट की भी ताकत बढ़ेगी। चुनाव में अभी दो महीने का वक्त है और मुलायम सिंह अगर लगातार होने वाली रैलियों से मुस्लिम और पिछड़ों को साथ रख पाए तो समाजवादी पार्टी की भूमिका बसपा के मुकाबले ज्यादा महत्वपूर्ण बन जायेगी। हालाँकि उत्तर प्रदेश में माहौल बनाने में मोदी बहुत आगे हैं और हिंदुत्ववादी ताकते बमबम हैं पर जमीन पर यह स्थिति फिलहाल तो नजर नहीं आ रही है।
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