बुधवार, 26 फ़रवरी 2014

राजनीति के लंबे कोस पर एनजीओवाद के डग



मुख्यमंत्री के रूप में केजरीवाल एवं उनकी सरकार को इस्तीफा देने की आवश्यकता क्या थी? आम आदमी पार्टी के उत्स और इसके चरित्र को आप समझ लेंगे तो फिर उत्तर अपने आप मिल जाएगा। वह उत्स और चरित्र है, एनजीओवाद। चुनाव से लेकर सत्ता में आने, सरकार के रूप में काम करने और फिर जाने तक की हल्लाबोल शैली.. भले ही कुछ आकर्षित करती हो..पर उसमें तार्किक राजनीति का अभाव है

-अवधेश कुमार राजनीतिक विश्लेषक

हर विवेकशील व्यक्ति के अंदर यह प्रश्न लगातार उठ रहा है कि आखिर, मुख्यमंत्री के रूप में अरविंद केजरीवाल एवं उनकी सरकार को इस्तीफा देने की आवश्यकता क्या थी? इसका उत्तर लोग अपने- अपने नजरिए से दे रहे हैं। लेकिन अगर आम आदमी पार्टी के उत्स और इसके चरित्र को आप समझ लेंगे तो फिर उत्तर अपने आप मिल जाएगा। वह उत्स और चरित्र है, एनजीओवाद। चुनाव से लेकर सत्ता में आने, सरकार के रूप में काम करने और फिर जाने तक की हल्लाबोल शैली..भले कुछ लोगों को आकर्षित करते हों..पर उनमें तार्किक और नैतिक राजनीति का अभाव हमेशा रहा है। अगर आप इस पूरे दौर पर सरसरी नजर दौड़ाएंगे तो आपको सत्ता, राजनीति, समाज..आदि पर सुचिंतित दृष्टिकोण या विचारधारा नहीं मिलेगी। चाहे शपथ ग्रहण के बाद रामलीला मैदान में केजरीवाल के भाषण को लीजिए या फिर इस्तीफे के पूर्व और बाद के भाषणों को, उनमें एक क्षण के लिए भी ऐसा नहीं लगा कि कोई नई पार्टी विस्तृत वैकल्पिक राजनीतिक-सामाजिक सपने या विजन यानी दृष्टिकोण के साथ आई है। यही बात उनके कार्य के तरीके में भी झलकता रही है। क्यों? किसी पार्टी की पहचान मनुष्य जीवन, शासन और राजनीति के बारे में उसकी विचारधारा या विजन यानी दृष्टिकोण से होती है। अगर आपके पास विजन ही नहीं हो यानी आपकी दिशा निश्चित नहीं हो तो आप कहीं से भी कहीं को मुड़ जाएंगे। यह भटकाव कितना घातक हो सकता है, बताने की आवश्यकता नहीं। केजरीवाल के भाषणों और सरकार के कायरे में जीवन, समाज, अर्थ, संस्कृति, शिक्षा, सत्ता, राजनीति..को लेकर वैचारिक दर्शन का अभाव हमेशा रहा है। जो कुछ हमने सुना और सुन रहे हैं, वे सब एनजीओ शैली ही है। असल में एनजीओवादी राजनीति का यह ऐसा चरित्र और चेहरा है, जिसे समझना समय की मांग है। क्या है एनजीओवादी राजनीति? प्रश्न है कि एनजीओवादी राजनीति का अर्थ क्या है? इसे समझने के लिए एनजीओ की कार्यपण्राली पर नजर डालिए। एनजीओ को यदि फंड मिलता है एड्स के संबंध में काम करने के लिए तो वे कंडोम का यह कह कर प्रचार करेंगे कि आप सेक्स करें, लेकिन इसके इस्तेमाल बिना नहीं। यही भूमिका उनको दी गई है। वे अपनी सोच से आत्म संयम आदि के प्रचार में समय नहीं लगा सकते। उन्हें अगर बाल श्रम पर काम करना है, तो फिर फंड देने वाले ने जितने बाल श्रमिक मुक्त कराने या मुकदमा कराने का लक्ष्य दिया है, उतना ही वे करेंगे। वे जिस प्रकार के कानून का विचार देंगे उसके लिए अभियान चलाएंगे। चाहे किसी विषय पर ये काम करेंगे..उनमें आक्रामक शैली में सरकार की एजेंसियों पर हमला होगा, नीतियों की बखिया उधेड़ी जाएगी..कानून बदलाव के रास्ते इस तरह सुझाए जाएंगे मानो कानून बनते ही सारी समस्याएं खत्म..। कुल मिला कर वे अपना ऐसा क्रांतिकारी चेहरा प्रदर्शित करते हैं, जो सबको कठघरे में खड़ा करते हुए अपने पास हर समस्या के इलाज का संदेश देता है। एनजीओ का अपना कोई विजन, दर्शन नहीं होता। वे धन लेकर दूसरे की सोच या योजनाओं को क्रियान्वित करते हैं। धन देने वाला देसी-विदेशी कोई भी हो सकता है। उसके इरादे कुछ भी हो सकते हैं। यह बात चाहे किसी को जितनी कटु लगे। लेकिन सच यही है कि इस प्रक्रिया में काम करते-करते धीरे-धीरे अगर किसी का कोई विजन है भी, तो वह खत्म हो जाता है। कुछ को छोड़ दें तो ऐसे एनजीओ होंगे ही नहीं, जो अपने आय-व्यय के ब्योरे तथा कार्य विवरण में बेईमानी नहीं करते। ऐसा न करें तो उन्हें बचत हो ही नहीं सकती। आम आदमी पार्टी की पैदाइश ही एनजीओ से है। कुछ लोगों को छोड़ दें तो इसके ज्यादातर मुख्य चेहरे एनजीओ से ही हैं। देश भर में ऐसे लोग इस पार्टी में अगुवाई कर रहे हैं। उनके लिए विद्यालयों में जाकर वहां की व्यवस्था पर हंगामा करना, रैन बसेरों की कुव्यवस्था पर क्रांतिकारी वक्तव्य देना, बिजली-पानी के दाम घटाना, उनकी उपलब्धता के लिए काम करना..आदि में ही राजनीति का, शासन का दर्शन पूर्ण हो जाता है। एनजीओ की आई बाढ़ भारत में पिछले दो दशकों से एनजीओ की बाढ़ आ गई है। आंदोलन और संघर्ष करने वाले कुछ साथियों ने इसे अपनी सक्रियता और जीवन यापन के आधार के तौर पर लिया। कुछ लोग ईमानदारी से काम कर भी रहे हैं, पर इसके विस्तार के साथ यह एक सम्मानित प्रोफेशन की तरह हो गया है। इनका एक दूसरे से संपर्क है। भारत ही नहीं दुनिया भर में एनजीओ समुदाय निर्मित हो चुका है, जिसके पास वित्तीय संसाधन हैं। जिनको वे काम के बदले पारिश्रमिक देते हैं, ऐसे लोग हैं। जिन मुद्दों और समस्याओं पर वे काम करते हैं, उनसे भी उनका संपर्क है। सत्ता तक इनकी पहुंच है। पूंजी तक भी। आज पूर्व नौकरशाह, नेता या उनके संबंधी, कॉरपोरेट..सब समाज सेवा के नाम पर एनजीओ के माध्यम से काम कर रहे हैं। विदेशी शक्तियां भी अपना लक्ष्य साधने के लिए सेवा, जलवायु, मानव विकास आदि के माध्यम से अपना स्वार्थ पूरा करने के लिए एनजीओ का उपयोग कर रहीं हैं। आज ये नीतियों को प्रभावित करते हैं। ये सामूहिक रूप में इतने शक्तिशाली हैं कि एकत्रित हो जाएं तो इनका मुकाबला करना कठिन है। ये मीडिया का उपयोग जानते हैं, इवेंट प्रबंधन सीख लेते हैं..। बदलाव का काम करना था आम आदमी पार्टी की मुख्य ताकत इसी में है। जन लोकपाल दस्तावेज बनाने वाले ये ही थे। उसके लिए अन्ना के समूचे अनशन अभियान की पहल में एनजीओ ही सवरेपरि भूमिका में थे। इसलिए अन्ना अनशन अभियान का भी व्यापक राजनीतिक उद्देश्य नहीं था। उसमें भी हल्लाबोल शैली प्रबल थी। उससे निकली ‘आप’ भी इसी शैली में काम कर रही है। अगर इसका उत्स और चरित्र एनजीओ का नहीं होता तो यह जिस तरह के क्रांतिकारी बदलाव का पुरोधा साबित करने पर तुली है, इसके पास व्यापक मौलिक विचार होता। इसके कार्य व्यवहार में ईमानदारी, नैतिकता, संकल्प, संयम संतुलन होता। यह एक कानून पर इतना न अड़ती। अपने विचार के अनुसार सत्ता के माध्यम से बदलाव के लिए काम करती। आप गांधी, लोहिया, जयप्रकाश, दीनदयाल उपाध्याय, सुभाषचन्द्र बोस, वल्लभभाई पटेल, राजेन्द्र प्रसाद, जवाहरलाल नेहरू..आदि को देख लीजिए। नागरिकों के लिए ऐसे कार्य उनके एजेंडा में भी थे, लेकिन उनका अपने देश, समाज..के लिए विस्तृत दर्शन था। उनकी तुलना में ‘आप’ अभी तक विचारहीन एनीजीओ का ही राजनीतिक रूप बनी हुई है। एनजीओ का धन लेकर काम करने, उसे समाजसेवा और आंदोलन साबित करने की विकृत हल्लाबोल संस्कृति ने राजनीति और सत्ता प्रतिष्ठान को सबसे ज्यादा निशाना बनाया है। ‘आप’ यही कर रही है। खतरनाक अराजनीतिक तरीका यह खतरनाक अराजनीतिक तरीका है। राजनीति ठीक हो, वह लोक राजनीति बने, सत्ता लोक सत्ता का स्वरूप हो, किंतु एनजीओवाद राजनीति को ठीक करने की जगह अपने वर्चस्व के लिए उसे खत्म करने की सोच वाला है। इसलिए राजनीतिक विचार, दर्शन, अवधारणाओं से उनका संबंध न के बराबर है। जो किसी राजनीतिक विचारधारा को मानते हैं, वे भी धीरे-धीरे एक अंतराल के बाद फंड और प्रोजेक्ट के चक्कर में सीमित होकर चरित्र से अराजनीतिक हो जाते हैं। एक ईमानदार सक्रियतावादी भी धीरे-धीरे दोहरे चरित्र का हो जाता है। वह भी जोर-जोर से सबको चोर बताता है, ताकि लोग उसे ईमानदार और क्रांतिकारी मानें..। इसमें यदि उसे लोकप्रियता मिलती है, तो उसकी महत्वाकांक्षाएं भी बढ़ती हैं। इस मानसिकता में वह ऐसे कदम उठा सकता है, जो विवेकशील लोगों को तार्किक या सुसंगत न लगें। लेकिन अपनी महत्वाकांक्षा और चरित्र के अनुसार वह सही होता है। ‘आप’ के कदम को इस आलोक में देख सकते हैं। सच कहें तो एनजीओवाद का यह खतरनाक संस्कार संसदीय लोकतंत्र पर हिंसक आघात की तरह है। यह समझना आवश्यक है कि तत्काल अपनी समस्याओं से पीड़ित लोगों को यह खींचता है, लेकिन दीर्घकालीन वैचारिक दिशा के अभाव में यह कहीं भी कोई मोड़ ले सकता है। दुर्भाग्यवश स्थापित राजनीतिक दलों की विफलताओं के कारण विक्षुब्ध जन चेतना के सामने भ्रम की स्थिति है। स्वस्थ जनमत निर्माण की भूमिका राजनीतिक दलों और मीडिया को निभानी थी। अगर ये ऐसा करने में विफल हैं, तो फिर भ्रम पैदा होना स्वाभाविक है। पिछले करीब दो दशकों में जन चेतना विकसित करने में एनजीओ की भूमिका बढ़ गई है।

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