मुन्ना कुमार झा के साथ शाह आलम
इस 16वीं लोकसभा के लिये होने जा रहे चुनाव में देश की कॉरर्पोरेट मीडिया नेताओं, पार्टियों के लिये ट्रेंड सेटिंग करने का माध्यम बन कर उभरी है। पिछले एक सालों में दोनों स्तर पर मीडिया और वैकल्पिक मीडिया में मोदी के विकास मॉडल को दुनिया भर में दुनिया के आठवीं अजूबे के तर्ज पर पेश किया गया। गुजरात और मोदी की झूठी उपलब्धि को देश के पत्रकारों, बुद्धिजीवियों ने हर तरह के फोरमों में जगह देने का काम किया। जहाँ आया गया वहाँ मोदी की विकास वाली दलालीनुमा ट्रेंड सेटर नज़र आये। इन मीडिया सेटरों का प्रतिरोध करने पर ये लोग इस बात पर खारिज कर देते थे कि मोदी का विरोध भी उसका प्रचार करने जैसा होगा।
यही नहीं ऐसे कई और उदहारण हैं जो रोज हम जैसे लोगों को खारिज करने के लिये बनाये गये। तथाकथित मीडिया और वैकल्पिक मीडिया के मध्यमार्गी लोगों ने पूरी चुनावी बहस को नमो मंत्र तक ही सीमित कर दिया है। इन सबके बीच देश के जमीनी सवाल गायब से हो गये हैं। चाहे किसानों द्वारा आत्महत्या करने की खबर हो या आदिवासियों के अपने ही जल-जंगल-जमीन से उजड़ने के सवाल सब पर मीडिया की चुप्पी है। देश के कॉरर्पोरेटी मीडिया की आँखों मेंशहरी विकास मॉडल, घने बाज़ार और मॉलों की तादाद ज्यादा नज़र आती है। उन्हें बिहार के दलितों, पिछड़ों, गरीबों के रोजाना संघर्षशील मुद्दे नज़र नहीं आते। गरीबों के लिये सरकार द्वारा बनायी गयी जर्जर व्यवस्था में जर्जर हो रही ज़िन्दगी पर शायद ही कभी कोई मीडिया की नज़र जाये। इस चुनाव के दौरान मीडिया की नज़रों से बोझल हो चुके सवालों और मुद्दों को पिछले दिनों हमने छोटी- छोटी रिपोर्ट की शक्ल देने की कोशिश की है। इन्हीं में से एक रिपोर्ट आज पेश कर रहा हैं जो बिहार के वैशाली जिले के हरपुर गांव के छोटे से पासीखाने की है।
इस चुनाव में पासीखाने पर आने वाले लोग क्या सोचते हैं नेताओं को लेकर और चुनाव को लेकर सारी बाते इस छोटी से रिपोर्ट में है “कौन संभालेगा इतने बड़े लोकतंत्र को?
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