बेशक पिछले कुछ दिनों में अयोध्या के फैसले का इंतज़ार कर रहे मीडिया ने एक संयम दिखाया है. इस दौरान जब भी इस फैसले की कोई ख़बर आई तो अख़बार और चैनलों में यह सचेत कोशिश दिखी की उनकी ख़बर अतिरिक्त उत्तेजना पैदा न करे. किताब के लेख ‘रुकी हुई अयोध्या और मीडिया’ नाम के शीर्षक में लेखक की यह टिप्पणी पहली नज़र में इस संवेदनशील मुद्दे पर मीडिया की भूमिका की सराहना करते हुए दिखता है, लेकिन जैसे ही आगे लेखक कहता है कि दोनों (राजनीति और मीडिया) को शायद यह मजबूरी का अहसास है कि उनका भारतीय समाज पुरानी मध्यवर्गीय चिंताओं से आगे जाकर भूमंडलीकरण के उपभोक्तावादी रुझानों का ज़्यादा मुरीद है. उसे फालतू का तनाव नहीं चाहिए-वह मंदिर मस्जिद से जुड़ा हो या फिर किसी और आंदोलन से. साफ़ हो जाता है कि लेखक में क्या हो रहा है, जानने के अलावा क्यों हो रहा है, यह जानने और समझने की न केवल क्षमता, बल्कि उत्सुकता भी है. इसी किताब के दूसरे लेख फिर हार गया मीडिया में चुनावों के दौरान अख़बारों और चैनलों में ज़ल्दबाज़ी में होने वाली भविष्यवाणियों पर न केवल चोट की है, बल्कि यह भी बताने की कोशिश की है कि आख़िर चूक कहां होती है. इसी लेख में दर्ज यह टिप्पणी ख़बर पहले कमज़ो आदमी की आवाज़ होती थी अब मजबूत आदमी का बयान बन गई है. इस चूक के कारणों को तलाशने और इसे ठीक करने के लिए की गई कोशिश को दर्शाती है. आगे जितना बढ़ा ढोल उतनी बढ़ी पोल लेख में चुनावी भविष्यवाणियों से उलट 2004 और 2009 में आए चुनावी नतीज़ों का हवाला देते हुए 1984 में राजीव गांधी को मिले भारी जनादेश के बाद राजस्थान पत्रिका द्वारा माफी मांगने की बात भी दर्ज की है, क्योंकि पत्रिका ने इसके उलट जनादेश न मिलने की बात कही थी. इस बात को दर्ज करके बेहद शालीन और तथ्यपरक ढंग से लेखक ने मीडिया में लोगों में शालीनता लाने की सलाह भी दे डाली है. मराठी की तलवार, हिंदी की ढाल नाम के शीर्षक से लिखे गए लेख में राज ठाकरे और अबू आज़मी के बीच मराठी बनाम हिंदी को लेकर उठे विवाद का जिक्र इस सवाल के साथ किया है कि क्या यह मराठी बनाम हिंदी विवाद था या फिर दो नेताओं के अतिवादी रुख़ और तेवर थे, इस लेख के जरिए मीडिया द्वारा ख़बरों को तोड़-मरोड़ कर पेश करने की प्रवृत्ति को भी उजागर किया है. इसके अगले ही लेख हिंदी पत्रकारिता में जड़ जमा चुके अनुवाद धर्म के बारे भी चर्चा की है. हिंदी भाषा के पक्ष में दलीलें देने से कई कदम आगे इस लेख में यह बताया गया है कि भाषाओं के लेन-देन को ग़लत न ठहराते हुए बस यह बताने की कोशिश की गई है कि हर भाषा की अपनी प्रकृति होती है. शब्द दूसरी भाषा के भले हों, लेकिन उन्हें इस्तेमाल करने से पहले उसे अपनी भाषा में ढालना ज़रूरी है. पर इन दिनों अंग्रेजी के शब्दों को ज्यों का त्यों हिंदी भाषा के बीच पैबंद लगाकर ज्यों का त्यों परोसा जा रहा है. जो कि चिंताजनक है. कहां चलीं गईं महिलाएं नाम के शीर्षक से लिखे गए लेख में जहां एक तरफ तथाकथित प्रगतिवादी समझे जाने वाले मीडिया के भीतर भी महिलाओं को दिखावटी गुड़िया का दर्जा दिए जाने जैसे चिंताजनक रवैए की तरफ भी ध्यान खींचा है. मीडिया के बदलते सरोकारों और चौतरफा हो रही आलोचना के बीच भी किताब में शामिल लेख संतुलन बनाते दिखते हैं. पहले ही लेख-सावधान, उनके हाथ में नश्तर नहीं, खंजर है में लेखक ने मार्कंडेय काटजू की मीडिया के रवैये पर की गई आलोचनात्मक टिप्पणी को सही ठहराते हुए यह भी बताया की दरअसल मीडिया के रवैये में सुधार लाने के लिए क़ानूनी चाबुक चलाने से ज़्यादा उसके समाजशास्त्रीय संदर्भ को समझने की ज़रूरत है. लेखक काटजू की टिपप्णी की गंभीरता और उनकी चिंता से तो इत्तेफाक़ रखता है, लेकिन बिना लाग लपेट यह भी जानकारी दे देते हैं कि मीडिया में पहले पूरी तरह बेलगाम नहीं है. बल्कि पहले कढ़े क़ानून जैसे मानहानि से लेकर अपशब्द कहने के ख़िलाफ़ और अश्लीलता विरोधी कई क़ानून बने हैं. सरकारी गोपनीयता क़ानून भी इसी मीडिया पर नियंत्रण का एक एक हिस्सा है. साथ ही यह भी बताते हैं कि मीडिया के बदलते चरित्र के कारण क्या हैं और कैसे इसे रोका जा सकता है. पत्रकारिता पर लिखी गई यह पुस्तक लेखक प्रियदर्शन की दृष्टि के कई आयाम खोलती है. - See more at: http://www.chauthiduniya.com/2014/03/ruki-hui-ayodhya-or-media.html#sthash.Vq3stjst.dpuf
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