बुधवार, 2 अप्रैल 2014

फासीवाद की आहट सुन रहा है भारतीय लोकतंत्र

जहाँ से जनवाद खत्म होता है वहीं से फासीवाद की शुरूआत होती हैकॉरपोरेट विकास के छद्म का विध्वंसक अधिनायक
महेश राठी
भारतीय अर्थव्यवस्था के विकास का कॉरपोरेट मॉडल अब देश के संसदीय जनवाद को अपने विकास की राह में रूकावट समझ रहा है। कॉरपोरेट विकास का यह मॉडल अब, ऐसी अवस्था में पहुँच चुका है जहाँ इसे अपनी नव उदारवादी नीतियों को थोपने के लिये सुशासन, मजबूत नेतृत्व के नाम पर एक अधिनायकवादी नेता की आवश्यकता है। कॉरपोरेट विकास का यह मॉडल अपनी इन्ही राजनीतिक आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी को सुशासन देने वाले एक मजबूत नेता के रूप में पेश कर रहा है। भाजपा के इस अधिनायकवादी नेता की कार्यशैली कॉरपोरेट विकास के प्रमुख स्वामियों को खासी लुभा रही है। ऐसा नेता जिसे असहमति के स्वर विरोध की आवाजें बिल्कुल मँजूर नही हैं! मोदी की इसी कार्यशैली और जनवाद विरोधी व्यवहार मेंभारतीय लोकतंत्र फासीवाद की आहट सुन रहा है। क्योंकि जहाँ से जनवाद खत्म होता है वहीं से फासीवाद की शुरूआत होती है।
मोदी की इस कार्यशैली के सबसे पहले साक्षी उन्हीं की पार्टी के उनके अपने नेता और कार्यकर्ता रहे हैं। स्वयं सेवक संघ के एक साधारण कार्यकर्ता और प्रचारक के रूप में अपने राजनीतिक जीवन की शुरूआत करने वाले नरेन्द्र मोदी की इसी कार्यशैली के कारण हाशिये पर धकेल दिये गये भाजपा के कम से कम तीन पूर्व मुख्यमंत्री सुरेश मेहताशंकर सिंह वाघेला और केशूभाई पटेल रहे हैं तो वहीं प्रतिद्वंद्वियों को हाशिये पर धकेलकर आगे बढ़ने की मोदी के इस कार्यशैली के सबसे ताजातरीन उदाहरण लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी और जसवंत सिंह हैं। भाजपा के यह ऐसे बड़े नाम हैं जो भाजपा और जनसंघ के संस्थापकों में रहे हैं। वह मोदी जो कभी लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा के एक मामूली हिस्सा थे आज आडवाणी के लिये सबसे बड़ी परेशानी का सबब हैं। दूसरी तरफ एक संगठन सचिव के रूप में कभी जोशी की एकता यात्रा का सांगठनिक दायित्व संभालने वाले नरेन्द्र मोदी की वाराणसी से चुनाव लड़ने की चाहत का शिकार मुरली मनोहर जोशी हो गये हैं और यह भी जग जाहिर है कि जसवंत को वाड़मेर से लोकसभा टिकट नहीं देने की पूरी कवायद करने वाली राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया पर भी मोदी की ही कृपा है। दरअसल मोदी का यह अधिनायकवादी रूप लोगों के सामने 2002 के गुजरात नरसंहार के बाद आया हो परन्तु मोदी में यह लगभग बीज रूप में संघ और भाजपा में उनके पूरे राजनीतिक जीवन में देखें जा सकते हैं। 2002 के बाद मोदी ने अपना वर्चस्व बनाये रखने के लिये जहाँ गुजरात की सत्ता का उपयोग किया तो वहीं उससे पहले मोदी अपने उद्देश्यों को पूरा करने के लिये ये काम अपने बड़े नेताओं के कान भरने और सहयोगी नेताओं के खिलाफ साजिश करके करते रहे हैं। गुजरात में मोदी ने अपने से 10 वर्ष वरिष्ठ शंकर सिंह वाघेला के खिलाफ इसी ढँग की साजिश का सहारा लिया और एक दिन वाघेला को भाजपा छोड़कर जाना पड़ा। 1995 में मोदी, वाघेला और केशूभाई पटेल ने मिलकर राज्य में भाजपा और संघ के 1.50 लाख कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण शिविर लगाकर चुनाव अभियान की मुहिम चलाई जिसका लाभ भाजपा को 182 सदस्यीय विधानसभा में 121 सीट जीतकर मिला और केशूभाई पटेल को राज्य का मुख्यमंत्री बनाया गया। इसके बाद मोदी का वाघेला के विरूद्ध साजिशों का खेल शुरू हुआ और उन्होंने वाघेला के खिलाफ केशूभाई पटेल के कान भरने शुरू किये। रोजाना दोपहर और रात के खाने पर मोदी की वाघेला के खिलाफ यह मुहिम चली जिससे गुजरात भाजपा दो भाग में बँट गयी और वाघेला ने बगावत कर दी और वह अपने समर्थक विधायकों को लेकर मध्यप्रदेश के एक रिसोर्ट में चले गये। इस बगावत को खत्म करने की जिम्मेदारी अटल बिहारी वाजपेयी को दी गयी। वाघेला और केशूभाई पटेल की इस लड़ाई में सुरेश मेहता मुख्यमंत्री बनाये गये। मोदी को सजा के तौर पर राष्ट्रीय सचिव बनाकर दिल्ली भेज दिया गया। इसके बाद 1996 में वाघेला आश्चर्यजनक ढ़ंग से लोकसभा का चुनाव हार गये जिसका दोष उन्होंने मोदी और संघ पर मढ़ते हुये भाजपा से निकलकर नई पार्टी का गठन कर लिया। भाजपा में फूट हो गयी।
दिल्ली आकर मोदी ने राष्ट्रीय नेतृत्व की करीबी का फायदा उठाया और राज्य नेतृत्व के खिलाफ राष्ट्रीय नेतृत्व के कान भरने आरम्भ किये जिसका मोदी को फायदा मिला। 1998 में अटल के प्रधानमंत्री बनने के साथ ही मोदी को संगठन सचिव बनाया गया जिसकी जिम्मेदारी संघ और भाजपा के बीच राष्ट्रीय स्तर पर तालमेल बनाये रखना थी। इस बीच शंकर सिंह वाघेला की अल्पकालीन सरकार कांग्रेस के समर्थन वापस लेने के कारण गिर गयी और केशूभाई पटेल फिर एकबार सत्ता में वापस आये। इस समय पटेल के चारों तरफ सहयोगी के रूप में गोवर्धन झड़पिया, संजय जोशी और हरेन पांड्या की नई टोली थी। इसी समय स्थानीय निकाय चुनावों में भाजपा की हार को मुद्दा बनाकर मोदी ने फिर से अपने राष्ट्रीय नेतृत्व के कान भरने शुरू किये परिणामस्वरूप मोदी को 6 वर्ष बाद वापस भेजकर गुजरात का दायित्व सौंपा गया। मोदी को स्थापित करने के लिये भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष कुशाभाऊ ठाकरे और मदन लाल खुराना को मोदी के साथ भेजा गया था। जिसके बाद स्थानीय निकाय चुनावों में हारी हुयी एक पार्टी के मुख्यमंत्री ने चुनाव जीतने के लिये 2002 में जो किया वह सर्वविदित है।
गुजरात की सत्ता संभालने के बाद मोदी हरेन पांड्या की विधानसभा सीट एलिस ब्रिज से चुनाव लड़ना चाहते थे परन्तु केशूभाई के प्रबल समर्थक और राज्य के गृहमंत्री रहे हरेन पांड्या ने उनकी इच्छा और माँग को खारिज कर दिया। हरेन पांड्या एक प्रभावशाली और मजबूत नेता के तौर पर गुजरात में जाने जाते थे और उन्होंने ना केवल मोदी की इच्छा को खारिज किया बल्कि मोदी की सत्ता को खुलेआम चुनौती भी दे डाली थी। सूत्र यह भी कहते हैं कि हरेन पांड्या ने गोधरा कांड में मारे गये लोगों की लाशों को अहमदाबाद लाये जाने का भी केबिनेट की बैठक में विरोध किया था और हिंदू मुसलमानों के बीच एकता बनाये रखने के लिये उनकी बैठकें कराने का भी पांड्या दवारा सुझाव दिया गया था जिसका केबिनेट में और मोदी द्वारा विरोध किया गया। मोदी एक सोची समझी रणनीति के तहत इन लाशों को अहमदाबाद में लाकर सांप्रदायिक उन्माद भड़काने के पक्ष में थे, जो उन्होंने किया भी। हरेन पांड्या ने बाद में केबिनेट की इस पूरी घटना का ब्यौरा जस्टिस कृष्णाअय्यर की अध्यक्षता में बने एक सिटिजन ट्रिब्यूनल में दिया था जिसकी ट्रिब्यूनल ने रिकॉर्डिंग भी की थी। इस सब घटनाक्रम के बाद फरवरी 2005 में सुबह की सैर के बाद हरेन पांड्या की हत्या आज तक भी एक अनसुलझी पहेली ही है। बाद में संजीव भट्ट और दूसरे पुलिस सूत्रों ने इसेसोहराबुद्दीन की फर्जी मुठभेड़ से जोड़ते हुये दावा किया कि साबरमती जेल में नियुक्ति के समय उनके एक साथी ने उन्हें बताया था कि तुलसीराम और सोहराबुद्दीन ही पांड्या की हत्या में शामिल थे इसीलिये उनकी हत्या कर दी गयी। उसके बाद उन्होंने जब यह बात अमित शाह को बतायी तो फोन पर ही वह इस तथ्य को जानकर विचलित हो गये थे और कहा कि इसका जिक्र किसी से नही करें। उसके बाद संजीव भट्ट ने इस तथ्य से अमित शाह को एक लिखित पत्र के द्वारा सूचित किया गया जिसके फौरन बाद संजीव भट्ट का साबरमती जेल से तबादला कर दिया गया। इस पूरे घटनाक्रम का एक ओर रोचक पहलू यह भी है कि हरेन पांड़या हत्या की जांच डी. जी. वंजारा ने की थी और वही वंजारा तुलसीराम और सोहराबुद्दीन फर्जी मुठभेड़ मामले में पिछले 6 सालों से जेल में बंद हैं। वंजारा ने एक पत्र लिखकर अपने सारे कर्म को अमित शाह के आदेश पर करना माना और उसका बचाव नही करने पर मोदी और शाह दोनों की आलोचना की है।
पांड्या अकेले इस साजिश की कड़ी के शिकार नही हैं। केशूभाई पटेल के तीनों करीबी पांड्या, संजय जोशी और गोवर्धन झड़पिया का यही हश्र हुआ है। गोवर्धन झड़पिया तो सार्वजनिक रूप से आरोप लगा चुके ये कि मोदी ने उन्हें धमकी देते हुये कहा था कि खत्म हो जाओगे, तब उन्होंने मोदी से पूछा था कि कैसे व्यक्तिगत अथवा सार्वजनिक रूप से! झड़पिया का दावा है कि जब मोदी ने उन्हें यह धमकी दी तो उस समय अमित शाह भी वहीं मौजूद थे। संजय जोशी की गुजरात से विदाई के रूप में एक संघ प्रचारक के मोदी से टकराने का अंजाम पूरी दुनिया ने देखा है।
मोदी का उद्भव साजिशों और तिकड़मों की एक तिलस्मी सत्तावादी दास्तान है और इसके नायक के बतौर भाजपा के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार को मालूम है कि सत्ता गँवा देने का अर्थ इस तिलिस्म का टूटना और साजिशों का बेनकाब होना हो सकता है और वह प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित होने के बावजूद भी गुजरात के मुख्यमंत्री पद छोड़ने का जोखिम मोल नही ले सकते हैं। इसीलिये सत्ता में बने रहने और केन्द्रीय सत्ता में आने की उनकी एवं संघ की उत्कंठा को समझा जा सकता है। वहीं कॉरपोरेट विकास को भी अपनी असफलताओं के बीच बने रहने के लिये और देश के प्राकृतिक एवं राष्ट्रीय संसाधनों पर कब्जा जमाने के लिये ऐसे ही खलनायक नुमा नायक की आवश्यकता है। इस कॉरपोरेट विकास और फासीवाद के गठजोड़ को इटली के फासीवादी नेता का यह कथन कि ‘‘फासीवाद को कोर्पोरेटीकरण के रूप में अधिक पहचानना चाहिए क्योंकि यह राजसत्ता का कॉरपोरेट के साथ विलय ही है‘‘ फासीवाद और मोदी के वर्ग चरित्र को स्वयं सिद्ध करता है।
मोदी का यह वर्ग चरित्र ही है कि 2014 के आम चुनावों की पूर्व संध्या पर पूरे देश की गलियों, सड़कों और प्रत्येक चैराहे पर मोदी को कॉरपोरेट शैली में कॉरपोरेट के एक प्रमुख उत्पाद के रूप में ही बेचा जा रहा है। परन्तु अपने मुनाफे के लिये फासीवाद को बढ़ावा देने वाले कॉरपोरेट विकास को यह भी समझना होगा कि जनवाद के लिये एक खतरे की तरफ बढ़ता यह फासीवाद एक समय सीमा के बाद स्वयं उसके लिये भी खतरा सिद्ध होने वाला है। क्योंकि जनवाद खत्म करके फासीवाद उत्पादन के साधनों पर कब्जा करते हुये अपने काल्पनिक एवं स्वयं रचित तथाकथित राष्ट्र को मजबूत बनाने के नाम पर स्वयं को ताकतवर करता है और अन्ततोगत्वा हिटलर की तरह विध्वंसक होकर पूँजीवाद के अस्तित्व के लिये भी चुनौती बन जाता है।
About The Authorमहेश राठी, लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं सामाजिक कार्यकर्ता हैं

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें