बुधवार, 2 अप्रैल 2014

विचारहीन राजनीति के दौर में


चूंकि चुनाव हैं, लिहाजा राजनीति में यह दल बदलने का मौसम है। यह रिवाज जैसा पहले संसदीय चुनावों के समय से है। लेकिन इसी कारण उसे नैतिक रूप से नहीं सराहा गया कि ऐ सी कोई परंपरा चली आ रही है। अगर नेता का पाला बदल ठोस वैचारिकता पर न हुआ तो वोटरों ने इसे गलत माना और उनके विरुद्ध मतदान किये हैं। वैसे, पाला बदल पर मुहर लगाने के उदाहरण भी कम नहीं हैं।16वीं लोक सभा के चुनाव पूर्व परिदृश्य भी पहले की तरह है। इनमें कुछेक नेताओं के दल-बदल या गठबंधन पर्वितन ने चौंकाया है तो इसलिए कि प्रमुख विपक्षी भाजपा ने उस प्रक्रिया को गति दे दी है। दिल्ली-अभियान के प्रारंभ ने भाजपा ने जो रणनीति तैयार की थी, उसमें एक खास भारत के निर्माण की नींव रखने का वादा था। दागी, बागी और भ्रष्टाचारियों को अपने दायरे से बाहर रखना था। भाजपा का अपनी चाल, चरित्र और व्यवहार पर भरोसा पुख्ता था। जो जोर दे कर कहती थी कि वह विचार और विकास, सक्षम और प्रगतिशील नेतृत्त्व के मुद्दे पर मै दान में उतरेगी और कांग्रेस-यूपीए को अपदस्थ कर देगी। इस तरह से भारत को ‘उबार’ लेगी पर इसके लिए उसने जो तरीका चुना है, उसकी तसदीक उसके अपने सिद्धांत ही नहीं करते। उसमें विचार छोड़ कर संख्या जुटाने के पीछे भागमभाग दिखती है। दल-बदल करने वाली पार्टी और नेता कह सकते हैं कि वे सत्ता के लिए सियासत में हैं न कि संतई के लिए। पर यह जवाब अखर सकता है। इसलिए कि मौजूदा समय में पार्टी और उम्मीदवारों से जनता की अपेक्षा पूर्व की तुलना में बढ़ी-चढ़ी तथा ज्यादा नैतिक हुई है। इसमें यूपीए-2 सरकार की विफलताओं की निश्चित ही बड़ी भूमिका है। फिर भी, जिस तरह से टिकटों के काटने-बांटने का काम हुआ है या आगे होगा, उसमें निजता का आग्रह अधिक दिखता है। इसने पार्टी कार्यकर्ताओं, समर्थकों और वोटरों को धर्मसंकट में डाल दिया है लेकिन जिनकी परवाह दलों को नहीं है। विचार तजते, सीनियर सिटीजन को धकियाते और मुद्दों के बजाय व्यक्तित्व केंद्रित होते चुनावों के निहितार्थों पर रोशनी डालता ताजा हस्तक्षेप।

देश आजादी से पहले ही संसदीय लोकतंत्र की राह पर चल पड़ा था। पर लगता है कि मंजिल बहुत दूर है, जिसे पहले आम चुनाव से राष्ट्रीय नेतृत्त्व ने अपनाया। उस पर अब भी बहस जारी है कि क्या संसदीय लोकतंत्र से सुशासन, समतामूलक समाज और मजबूत अर्थव्यवस्था संभव है? संसदीय लोकतंत्र को अपनाने का आधार जो रहा हो, इतना सच है कि संविधान सभा में इस पर कोई बहस ही नहीं हुई कि आजाद भारत में शासन पण्राली कौन-सी होनी चाहिए? यह याद दिलाना इसलिए जरूरी है क्योंकि यह आम चुनाव कई मायनों में अहम हो गया है। क्या इस चुनाव से कुछ नई उम्मीदें की जा सकती हैं? या यह भी एक आम चुनाव बन कर रह जाएगा? चुनाव सुधारों और राजनीति में विकल्प ढूंढ़ने के बड़े प्रयासों की पृष्ठभूमि में इस आम चुनाव को देखा जाएगा। इसी कारण संसदीय लोकतंत्र की यात्रा में इसे एक अहम पड़ाव माना जा सकता है। खतरा जो दिख रहा है, वह यह है कि कहीं यह चुनाव भी पिछले चुनावों की तरह न हो जाए। देखने की बात है कि क्या यह आम चुनाव पिछले किन चुनावों से मिलता-जुलता होगा और किस मायने में बिल्कुल अलग होगा? यही मुख्य प्रश्न है। हर चुनाव में लोगों की हिस्सेदारी बढ़ रही है। इसे लोकतंत्र की सफलता कह सकते हैं। इस बार भी एक बात पक्के तौर पर कही जा सकती है कि अधिक से अधिक मतदाता इस बार वोट डालेंगे। जैसा कि पिछले साल विधानसभा चुनावों में दिखाई पड़ा। इस आधार पर16वीं लोक सभा का चुनाव उम्मीद जगाता है। संसदीय लोकतंत्र जिन पायों पर मजबूती से खड़ा होता है, उसमें जागरूक मतदाता का होना आवश्यक शर्त मानी जाती है। पहले आम चुनाव से अब तक के चुनावों पर नजर दौड़ाएं तो एक बात साफ है : मतदाता हर चुनाव में अधिक जागरूक हुआ है। उसे अपने वोट की ताकत का अनुभव होता जा रहा है। इसी आधार पर देश-दुनिया में धारणा बनी है कि भारत में लोकतंत्र की जड़ें गहरी हुई हैं। जो मान कर चलते थे कि कम पढ़े-लिखे मतदाता गलती कर सकते हैं। उन्हें गुमराह किया जा सकता है। लोभ-लालच में फंसाया जा सकता है; वे अपनी धारणाएं बदल रहे हैं। लेकिन इसका यह भी अर्थ नहीं निकाला जा सकता कि मतदाता इन विकारों से दूर या पूरी तरह मुक्त हो गया है। अगर ऐसा होता तो दागी, बागी और धनवान सांसदों की संख्या बढ़ती चली नहीं जाती। दलीय पद्धति की परीक्षा चुनाव के वक्त इसे ही समझने के लिए राजनीतिक दलों का हाल-चाल लेना जरूरी है। राजनीतिक दलों की कार्यपण्राली की परीक्षा चुनाव के समय ही होती है। इस दौर में राजनीतिक दल जैसा व्यवहार करते हैं, वैसा ही चुनाव का नजारा होता है। तो क्या इस अर्थ में यह चुनाव अनोखा होगा? हो सकता है। लेकिन इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि इस चुनाव में हर बात पहली बार घटित होगी। अक्सर हम यह भूल करते हैं और कहने लगते हैं कि यह पहली बार हो रहा है। इस देश में पहली बार कुछ नहीं होता। नया तो हो सकता है, पर जो कुछ होता है, उसका अतीत होता है, वर्तमान होता है। और भविष्य से उसका तार कहीं न कहीं से जुड़ा रहता है। इस संदर्भ में यह जांचना जरूरी है कि लोकतंत्र के प्रबल होने के बावजूद उसके वाहक की क्या स्थिति है? संसदीय लोकतंत्र का वाहक राजनीतिक दल होता है। क्या देश में दलीय पण्राली काम कर रही है? यह पेचीदा सवाल है। पहले आम चुनाव से लेकर अब तक का अनुभव बहुत कटु है। राजनीतिक दल विचार से बनते हैं। उनका आधार वैचारिक होता है। भारत में पहले आम चुनाव में जो दल उतरे, वे विचारधारा पर आधारित थे। कांग्रेस से ही निकल कर सोशलिस्ट पार्टी, किसान मजदूर प्रजा पार्टी बनी थी। उसके अलावा कम्युनिस्ट पार्टी थी और जनसंघ था। इन पार्टियों का आधार वैचारिक था। कांग्रेस स्वाधीनता आंदोलन के सपनों की पार्टी थी। उससे निकली पार्टियां भी विचार आधारित थीं। कम्युनिस्ट पार्टी का आधार था- साम्यवाद। जनसंघ का जन्म राष्ट्रवाद की विचारधारा से हुआ। पहले आम चुनाव में आयोग ने इन चारों पार्टियों को राष्ट्रीय पार्टी के रूप में मान्यता दी। वह शुरुआत थी। उम्मीद थी कि ब्रिटेन जैसी ही यहां भी दो दलीय पण्राली विकसित हो जाएगी। बहुदलीय पण्राली से हो रही यह गड़बड़ी क्या ऐसा हुआ? शुरू से ही भारत में बहुदलीय राजनीति रही। इससे ब्रिटेन नहीं, यूरोपीय लोकतंत्र का स्वरूप बनता है। यह हमारे लोकतंत्र को बहुत उलझा हुआ बना देता है। विचारहीनता को इससे फैलने का अवसर मिलता है। यह तभी होता है, जब राष्ट्रीय दलों का वैचारिक आधार लुप्त होता जाता है। उस खाली जगह को क्षेत्रीय दल और सामाजिक जरूरतों से पैदा हुई राजनीतिक ताकतें भरने लगती हैं। इसे राजनीति का विघटन ही मानना चाहिए। 2009 के आम चुनाव से बनी लोक सभा में 37 दलों का प्रतिनिधित्व हुआ। इनमें से चार गठबंधन निकले। ज्यादा दलों का बनना किस तरह की राजनीति का परिचायक है? अवश्य ही इसे संसदीय लोकतंत्र की बड़ी व्याधि मानना पड़ेगा। इस आम चुनाव में ये सवाल भी बने हुए हैं। ज्यादा सटीक और सही तो यह है कि इनके अलावा अनेक नए सवाल खड़े हो गए हैं। सबसे पहला यह कि क्या कोई दल किसी विचारधारा का प्रतिनिधित्व कर रहा है? हालांकि हर दल विचार- प्रधान होने का दावा करता है। यह महज औपचारिकता है। वास्तव में आज कोई भी दल किसी विचार से प्रेरित और संचालित नहीं है। इसका अनुभव रोजमर्रा की गतिविधियों से किया जा सकता है। बयानों में विचार का दावा और व्यवहार में सत्ता के लिए अवसरवादिता के उदाहरण अनगिनत हैं। इसे विडंबना ही कहेंगे कि प्रधानमंत्री के घोषित और अघोषित आकांक्षी नेता इस आम चुनाव को विचारों का महाभारत बता रहे हैं। परंतु उनके आचरण में चुनाव जीतना ही सबसे बड़ा विचार दिखता है। उसका ही जुगाड़ भारत के प्रतिनिधिक लोकतंत्र का व्याकरण बन गया है। लोकतंत्र को मानने और अपनाने पर देश में पूरी सहमति है। लेकिन लोकतंत्र कैसा हो? यह अब भी अपरिभाषित है। वह लोक आधारित होना चाहिए। क्या इस कसौटी पर हमारे राजनीतिक दल खरे उतरते हैं? इसे जांचने-परखने के लिए कुछ कसौटियां हैं; जैसे कि औपचारिक या वास्तविक लोकतंत्र। प्रतिनिधिक लोकतंत्र या सहभागी लोकतंत्र। नागरिक सहभागी लोकतंत्र चाहता है। उसके लिए यह दौर क्या सहायक है? भूमंडलीकरण से आया संकट जिस दौर में यह चुनाव हो रहा है, वह विचारहीनता का दौर है। विचारधाराएं आहिस्ता-आहिस्ता इसलिए छोड़ी जा रही हैं कि सत्ता पर किसी भी प्रकार से कब्जा करने का लोभ पैदा हो गया है। इस रोग को जिन समूहों ने पहचाना वे सुधार के लिए आवाज उठाने लगे। लेकिन वे ही लोग अब सत्ता राजनीति के उसी र्ढे पर चल पड़े हैं। परिणाम यह हुआ है कि विचारधारा के लिए चुनावी राजनीति में कोई जगह नहीं बची है। इस राजनीति को जानने- समझने के लिए 1980 के दौर में झांकना होगा। यही वह समय है, जब भारत की अर्थव्यवस्था में उदारीकरण की शुरुआत हुई जिसे 1991 में विधिवत घोषित कर दिया गया। और नाम दिया गया-आर्थिक उदारीकरण। इस प्रक्रिया ने समाज को बदला है। विचार को बदला है। इससे हमारे लोकतंत्र का संकट बढ़ गया है। इसका संबंध कथित भूमंडलीकरण की प्रक्रिया से है। आम चुनाव ऐसा अवसर होता है; जब लोकतंत्र को प्रयोग-परीक्षणों से गुजरना पड़ता है। हमारे संसदीय लोकतंत्र के वाहक राजनीतिक रामबहादुर राय वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक राजनीति के दौर में शेष पृष्ठ दो पर..

विचारधाराएं आहिस्ता-आहिस्ता इसलिए छोड़ी जा रही हैं कि सत्ता पर किसी भी प्रकार से कब्जा करने का लोभ पैदा हो गया है। इस रोग को जिन समूहों ने पहचाना वे सुधार के लिए आवाज उठाने लगे। लेकिन वे ही लोग अब सत्ता-राजनीति के उसी र्ढे पर चल पड़े हैं। परिणाम यह हुआ है कि विचारधारा के लिए चुनावी राजनीति में कोई जगह नहीं बची है

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