बुधवार, 2 अप्रैल 2014

वोटर में दम हो तो कर दे रिजेक्ट


एन.के. सिंह
वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक
क्या किसी पार्टी या व्यक्ति को देश के लिए घातक बताने के कुछ घंटों बाद ही उसी पार्टी या व्यक्ति को देश का तारनहार बताना जनता को गु मराह करना नहीं माना जाना चाहिए? क्या इसके लिए सजा का कानून नहीं बनना चाहिए? अगर चुने जाने के बाद पार्टी से अलग होने पर सदस्यता इस सिद्धांत पर जा सकती है कि पार्टी के टिकट पर चुनाव जीतने के बाद पार्टी की बात न मानना जनता के साथ धोखा है, तो चुनाव के पहले की पैंतरेबाजी या यू- टर्न क्यों इस परिधि में नहीं आते

रोमन तानाशाह जूलियस सीजर पर जब विद्रोहियों ने हमला किया तो शुरू में वह लड़ा लेकिन जब अपने ही सबसे नजदीकी मित्र ब्रूटस को हमले में शामिल पाया तो अविास से बोला ‘ब्रूटस तुम भी?’ और तब उसने अपनी जान हमलावरों के हवाले कर दी। आज भारत में लगता है राजनीति में हर कोई ब्रूटस है और हर एक दूसरे से पूछ रहा है ‘तुम भी?’ कोई लालू यादव राम कृपाल से यही पूछ रहा है। कोई जसवंत सिंह भी वसुंधरा तो वसुंधरा,पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह में ब्रूटस देख रहा है। कोई कांग्रेस जगदम्बिका पाल और सत्यपाल मलिक से यही पूछ रही है। देश के राजनीतिक इतिहास में पार्टी में फेरबदल का इतना नंगा नाच शायद इसके पहले नहीं हुआ है। इसने राजनीतिक मानदंडों के सारे स्थापित मूल्यों को टुकड़े-टुकड़े कर जनता के सामने ऐसे फेंका है मानो बेशर्मी से चुनौती दे रहा हो कि ‘दम हो तो रिजेक्ट करो’। राजनाथ सिंह का किसी जगदम्बिका पाल को गले लगा कर मीडिया के लिए मुस्कुराते हुए फोटो खिंचवाना इसी का संकेत है। ऐसा लग रहा है कि आदर्श, नैतिकता, कैडर-पार्टी रिश्ता वोट की वेदी पर बलि चढ़ाये जा रहे हों। सब देख कर जनता मानो हमलावरों से घिरे सीजर की तरह राष्ट्रीय पार्टयिों से पूछ रही हो ‘क्षेत्रीय पार्टयिों में तो यह सब पुराना है, पर आज तुम भी वही निकले?’

नकारना त्रिकोण की उपादेयता को इस 2014 के आम चुनाव में राजनीति शास्त्र के हर नैतिक नियम को तोड़ा जा रहा है। राजनीतिक पार्टयिां कुछ सिद्धांतों व आदशरे पर चलती हैं। जनता उन सिद्धांतों व आदशरे के आधार पर उन्हें वोट देती है। इन सिद्धांतों को जनता तक पहुंचाने के लिए कैडर होता है। यह कैडर अपने क्षेत्र के लोगों के बीच अपने उन्हीं सिद्धांतों व आदशरे के आधार पर उपादेयता बनता है। पार्टी, कैडर और जनता का यह त्रिकोण ही किसी प्रजातंत्र में चुनाव की बुनियाद माना जाता है। राजनीति शास्त्र में अप-आदशरे के वर्ण-शंकर (मोन्ग्रेलाइजेशन ऑफ आइडियाज) की र्चचा तो है, लेकिन इस तरह के ‘चुनावी वर्ण शंकर’ की र्चचा नहीं है। शायद ऐसी बीमारी का भान उन्हें भी नहीं था। राष्ट्रीय जनता दल के नेता लालू प्रसाद ने अपने हनुमान रूपी राम कृपाल यादव को पुत्री-मोह के वशीभूत हो कर पटना से टिकट नहीं दिया। राम कृपाल ने दो हफ्ते पहले तक सार्वजनिक रूप से मोदी और उनकी भारतीय जनता पार्टी को गुजरात दंगों के लिए जिम्मेदार माना था और ‘हत्यारों की पार्टी’ की संज्ञा दी थी। अचानक 72 घंटों में पलटी मारते हुए तथाकथित हत्यारों की इस पार्टी में शामिल होते हैं। चेहरा ऐसा चमक रहा होता है, जैसे समाज के लिए फिर कोई नया हत्यारा पकड़ेंगे, चुनाव मंच से अब उनका कहना है कि देश को बचाने कि लिए भाजपा और उसके (उनके) नेता मोदी को लाना जरूरी है।

चुनाव पूर्व दल-बदल पर कानून क्यों नहीं? दल-बदल निरोधक कानून के तहत अगर कोई सांसद या विधायक पार्टी व्हिप के खिलाफ सदन में मतदान करता है, तो पार्टी के मुखिया (अध्यक्ष) की लिखित शिकायत पर स्पीकर उस जनता द्वारा चुने प्रतिनिधि की सदस्यता खत्म कर सकता है। यानी सदन में एक जन प्रतिनिधि किसी बड़े से बड़े या छोटे से छोटे मुद्दे पर क्या कहता है; यह उसकी राय नहीं होगी, बल्कि पार्टी के नेता जो चाहेंगे, उसे वही कहना होगा। लेकिन वही सदस्य पांच साल तक पानी पी-पी कर दूसरे दल, उसकी नीतियों या उसके सदस्यों को देश के लिए घातक बताता रहे लेकिन ठीक चुनाव के वक्त इसलिए पाला बदल ले कि उसे टिकट नहीं मिला या उसकी पार्टी की हवा खराब है, तो उसके खिलाफ कोई कानून नहीं। प्रजातंत्र के मूल सिद्धांतों में एक यह कहता है कि जनता को मुद्दों पर शिक्षित करना, उसकी चेतना को बेहतर बनाना और उसे अपनी नीतियों के प्रति आकर्षित करना राजनीतिक पार्टयिों का मूल कर्त्तव्य है। राम कृपाल यादव या दस दिन पहले तक कांग्रेस में रहे जगदम्बिका पाल (अब भारतीय जनता पार्टी की शोभा बढ़ा रहे हैं) किस नीति से जनता को अवगत करा रहे हैं? कांग्रेस की उत्तर प्रदेश में जाट आरक्षण या आंध्र प्रदेश में मुस्लिम आरक्षण की नीति से या भारतीय जनता पार्टी की राम मंदिर की नीति से या मुजफ्फरनगर के दंगा आरोपितों को टिकट देने के औचित्य से? राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे या पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिंह का अहसान फरामोश होना या भारतीय जनता पार्टी के फैसले लेने की प्रक्रिया में आपातकाल की आहट बुजुर्ग नेता जसवंत सिंह को तब सुनाई देने लगी, जब टिकट नहीं मिला। उधर, राजनाथ सिंह के सलाहकार का यह बयान कि ‘टिकट देना या न देना पार्टी का फैसला है’ भी जनता की समझ में नहीं आता। कब तक पार्टी हर काम में वयोवृद्ध नेता लालकृष्ण आडवाणी को शामिल करती है और कब उन्हें उन फैसलों से अलग रखा जाता है, इसे जनता ठगी-सी देखती रहती है। हाल के कुछ वर्षो पहले जब एक पत्रकार ने संघ के किसी शीर्ष नेता से कहा, ‘कुछ भी हो आडवाणी का भाजपा को इस ऊंचाई तक लाने में बड़ा योगदान है’ तो उस संघ नेता का फौरी प्रश्न था ‘और आडवाणी को यहां तक लाने में किसका योगदान है?’ यही समस्या है। संघ यह समझ रहा है कि वह आडवाणी पैदा करता है और आडवाणी को यह लग रहा है कि उनके आजीवन योगदान को संघ के लोग न केवल नजरअंदाज कर रहे हैं,

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