बुधवार, 2 अप्रैल 2014

इमरान मसूद के लिये तो जेल है मगर उद्धव ठाकरे के लिये क्या ?

वसीम अकरम त्यागी
धर्मनिरपेक्षता इस शब्द का जैसे ही जिक्र आता है मुस्लिम समुदाय एक पार्टी विशेष की कतार में खड़ा नजर आता है, इस देश में मुस्लिम समुदाय ही एक मात्र ऐसा समुदाय है जिसने आज तक सैक्यूलर देश बनाने में सिर्फ योगदान दिया बल्कि हर छमाही कोई न कोई कुर्बानी वह भारत के सैक्यूलरिज्म को बचाने के लिये देता रहा है। ये अलग बात है कि खुद को धर्मनिरपेक्ष कहने वाली पार्टियां ही उसके पिछड़ेपन का शिकार बनीं।
बहरहाल हम बात करने जा रहे हैं पिछले दो दिनों से चल रहे सियासी ड्रामे पर जो अब एक किसी शहर विशेष का मुद्दा न होकर राष्ट्रीय मुद्दा बन गया है। सहारनपुर से कांग्रेस प्रत्याशी इमरान मसूद का वह वीडियो आग की तरह पूरे देश में फैल गया जिसमें उन्होंने मोदी को काट डालने को कहा था। उसी की बदौलत वे जेल में हैं, लेकिन उनके जेल चले जाने से यह मुद्दा शान्त नहीं हुआ। उसी की प्रतिक्रिया स्वरूप शिवसेना के उद्धव ठाकरे का साक्षात्कार मुंबई से प्रकाशित होने वाले उनके मुख पत्र सामना में प्रकाशित हुआ जिसमें उन्होंने साफ इशारा करते हुये जंग का लगभग ऐलान कर दिया।तुम मोदी को मारोगे तो क्या हम मूकदर्शक बने रहेंगे किस ओर इशारा करता है इसे समझना ज्यादा मुश्किल नहीं है। यानी वे फिर से ऐसा उत्पात मचा देंगे जैसा मुंबई में 1993 में मचाया था। लेकिन सवाल यहां पर वही है जो अकबरउद्दीन औवेसी के भड़काऊ भाषण के बाद उठा था। औवेसी ने भाषण दिया मुकदमा दर्ज हुआ, जेल हुई, लेकिन तोगड़िया? उसे तो गिरफ्तार तक नहीं किया गया, उल्टे शिवसेना ने कहा कि अगर तोगड़िया की गिरफ्तारी हुयी तो पूरे देश में कोहराम मचा दिया जायेगा। तोगड़िया का भाषण औवेसी के भाषण की प्रतिक्रिया है, ऐसे मौके पर भूल क्यों जाते हैं ? गुजरात दंगों को भी नरेंद्र मोदी और भाजपा ने न्यूटन लॉ करार दिया था जिसका नतीजा वह आज तक भुगत रही है।
सवाल वही हैं कि इमरान मसूद के लिये तो जेल है मगर उद्धव ठाकरे के लिये क्या उसके लिये कानून कोई मायने नहीं रखता ? क्या प्रतिक्रिया में किया गया अपराध कानून की नजर में अपराध नहीं है ? क्या उद्धव की गिरफ्तारी के लिये महाराष्ट्र सरकार कोई कदम उठायेगी जबकि शिवसेना समय-समय पर मुस्लिमों के खिलाफ जहर उगलती रही है, जिसका परिणाम देश ने कई बड़े सांप्रदायिक दंगों का सामना करके भुगते हैं। उसके बाद भी मीडिया में कहीं इस तरह की प्रतिक्रया नहीं दिख रही है जैसी इमरान मसूद के मामले में देखने को मिली है। इतना भी याद रहे इमरान मसूद ने अपनी सफाई में कहा था कि यह कथित वीडियो फर्जी है, और इसमें उनकी आवाज के साथ छेड़ छाड़ की गयी है। लेकिन उद्धव ने जो कहा है वह सबसे सामने है, जिसमें उसने तुम शब्द जोड़कर मानो संप्रदाय विशेष से अघोषित युद्ध का ऐलान कर दिया है। आखिर यह न्याय का दोहरा पैमाना किस लिये ? अपराध तो अपराध होता है, मगर पैंसठ साल के लोकतंत्र में यह होता आया है कि अगर अपराधी बहुसंख्यक समुदाय से है और राजनीतिक पृष्ठभूमि से आता है तो उसके खिलाफ आपराधिक मामला तो दर्ज जरूर हुआ मगर उसे गिरफ्तार करने की हिम्मत भारतीय पुलिस नहीं दिखा पाई। उस पर तुर्रा दिया गया कि गिरफ्तारी से माहौल खराब हो जायेगा, भला यह कोई तर्क हो सकता है अपराध को खत्म करने का ? अगर ऐसा ही है तो फिर ये कोर्ट कचहरी, अदालत, गाऊन, कानून की मोटी-मोटी किताबें किसलिये ? न्यायाधीश, वकील, दलील, अपील, गवाह, किसलिये ? फिर तो एक नये विभाग का गठन कर लिया जाये जो जनमत संग्रह करके बताये कि फलां अभियुक्त को गिरफ्तार करने से क्या प्रतिक्रिया आयेगी ? क्या माहौल खराब होगा अथवा नहीं, अगर लगे कि माहौल बचा लिया जायेगा तो फिर गिरफ्तार कर लीजियेगा, और अगर कहीं भी यह संदेह हो कि माहौल खराब हो जायेगा तो फिर कानून, को अदालत को, हाईकोर्ट के न्यायाधीश से लेकर देश के प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति को उसके समक्ष जाकर हाथ जोड़कर कहना चाहिये कि महाराज हम गलत फहमी का शिकर हो गये थे, जो हम आपको गिरफ्तार करने, आप पर मुकदमा चलाने के बारे में सोच रहे थे।
हैरानी होती है इक्कीसवीं सदी में ऐसे बगैर सर पैर के बेहूदा तर्कों पर।
मेरे लिये तो जेल है मगर उनके लिये ? यह सवाल आज मेरा है कल को अगर उद्धव के खिलाफ कार्रवाई नहीं हुई तो यह सवाल इमरान मसूद का भी हो सकता है, इस देश में रहने वाले हर दबे कुचले शोषित, पीड़ित, वर्ग का भी हो सकता है, इसलिये माननीय न्यायालय से अपील की जाती है कि वह इन सवालों को उठने से पहले ही अंकुश लगा दे।
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वसीम अकरम त्यागी, लेखक साहसी युवा पत्रकार हैं।

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