चुनाव अभियान के दौरान जिस प्रकार कारपोरेट मीडिया की मदद से नरेन्द्र मोदी का जबरदस्त तरीके से चुनाव प्रचार चल रहा था, उसी तरह से चुनाव नतीजे भी बुलडोजर की तरह सभी पार्टियों को रौंदते चले गए। जो हुआ वह किसी की कल्पना में भी नहीं था। भाजपा को 282 तथा एनडीए को 336 सीटें प्राप्त हुईं। 1984 के बाद पहली बार इतना बड़ा जनमत किसी पार्टी को मिला। गैर-कांग्रेसवाद अभियान 1967 में डॉ. राम मनोहर लोहिया नें शुरू किया था, जिसके फलस्वरूप 8 राज्यों में गैर-कांग्रेसी सरकारें बनी। 1977 में पहली बार गैर-काग्रेसी-जनता पार्टी की सरकार स्थापित हुई। उसके बाद से राष्ट्रीय स्तर पर गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा सरकारें बनी। लेकिन धीरे-धीरे समाजवादी और वामपंथी कमजोर होते चले गए। 34 साल पुरानी वाममोर्चे की सरकार पश्चिम बंगाल में गई तो वहीं उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी भी हारी। उत्तर प्रदेश में बसपा सरकार के बाद पुनः समाजवादी पार्टी आई। किन्तु स्थिति यह है कि समाजवादी पार्टी की लोकसभा में 5 सीटें आई वह भी मुलायम सिंह यादव जी के परिवार की तथा वाममोर्चा पश्चिम बंगाल में दो सीटों पर ही सिमट गया। कुल मिलाकर स्थिति अत्यंत चिंताजनक लगती है, ऐसा लगता है कि सब कुछ खत्म हो गया।
लेकिन वास्तविकता में ऐसा नही है। कुल मिलाकर भाजपा-एनडीए को 336 सीटें मिली है तो लोकसभा में विपक्ष की भी 211 सीटें है। जिसका अर्थ है कि संसद में भी विपक्ष मरा हुआ नहीं है। वोट के प्रतिशत के हिसाब से देखा जाये तो भाजपा को 31 प्रतिशत वोट मिला है। जिसका अर्थ है कि लगभग 69 प्रतिशत वोट भाजपा से अलग है। इसीलिये जो लोग मानते हैं कि भारतीय राजनीति पर दक्षिण पंथी पूरी तरह से हावी हो गए हैं उन्हें पुनः विश्लेषण करना चाहिये। वास्तविक स्थिति तो यह है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों के वोट मिला दिए जाएं तब भी 50.03 प्रतिशत वोट होते हैं। जिसका अर्थ है कि कांग्रेस-भाजपा की सामूहिक ताकत के बराबर की राजनैतिक ताकत अन्य दलों के पास है। इस कारण यह मानना कि नरेन्द्र मोदी अपनी मनमानी कर सकेंगे यह वास्तविकता से परे है। शायद उन्होंने यह बात समझ ली होगी इसीलिये वे सबको साथ लेकर चलने की बात कर रहे हैं। लेकिन वैचारिक तौर पर दक्षिणपंथियों के साथ समाजवादियों और वामपंथियों का चलना असंभव है। वर्गहित का मामला स्पष्ट तौर पर अलग-अलग है। मोदी देश में विकास के नाम पर जल-जंगल-जमीन की बेतहाशा लूट की छूट अदानी जैसी कंपानियों को देते रहे हैं, आगे भी देने वाले हैं। आखिरकार 15 हजार करोड़ के चुनावी निवेश की वसूली तो होनी ही है, जो कंपनियों ने मोदी जी के प्रचार पर खर्च किया है। नरेन्द्र मोदी आरएसएस का मुखौटा मात्र है। परन्तु मुझे नहीं लगता कि नरेन्द्र मोदी इतने व्यापक समर्थन मिलने के बाद भारत के ‘सेक्यूलर’ ताने बाने के साथ कोई छेडखानी कर सकेंगे। प्रयास होंगे पर विफल होंगे। हाँ, जैसा जनता पार्टी के समय हुआ था, सब तरफ अपने लोगों को बैठाने का प्रयास होगा। आरएसएस का सबसे पहला हमला वामपंथियों एवं समाजवादियों पर होगा। वे अपने वैचारिक आधार को मजबूती देने के लिए समाजवादी वामपंथी विचार को खत्म करना अपनी प्राथमिकता मानेंगे। नरेन्द्र मोदी से अब वैचारिक स्तर पर ही बड़ी लड़ाई लड़ने की जरूरत होगी। इस चुनाव में मतदाताओं ने वर्तमान स्वरूप में समाजवादियों और वामपंथियों को नकार दिया है। सोच के स्तर पर जन-आंदोलनों के जो साथी आम आदमी पार्टी से चुनाव लड़े थे उन्हें भी जबरदस्त शिकस्त का समना करना पड़ा है। लेकिन आम आदमी पार्टी दिल्ली और पंजाब में दूसरे स्थान पर सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभर कर सामने आई है। वामपंथी पार्टियां, बंगाल, केरल और त्रिपुरा में वोट प्रतिशत के आधार पर दूसरे नंबर की पार्टी है। समाजवादी पार्टी उत्तर प्रदेश में नंबर दो पर है।
देश में कोई भी वामपंथी या समाजवादी पार्टी अकेले दक्षिणपंथियों- साम्प्रदायिक ताकतों से निपटने में सक्षम नहीं है। लोकसभा चुनाव के नतीजों ने यह तथ्य और अधिक पुख्ता तरीके से देश और दुनिया के समाने ला दिया है। सबसे पहली जरूरत यह है कि देश की सभी प्रगतिशील समाजवादी-वामपंथी संगठन यह स्वीकार करें कि अकेले वे दक्षिणपंथी रोड-रोलर को रोकने में सक्षम नहीं है। यह स्वीकार करने के बाद सभी समान विचारों-दिशा वालों-जनवादी सोच रखने वाले संगठनों को जोड़ने का प्रयास किया जा सकता है।। यह करना न केवल समाजवादी व वामपंथियों को अपने राजनीतिक अस्तित्व एवं विचार को बचाने और बनाने रखने के लिये जरूरी है। उससे कहीं ज्यादा जरूरत जल-जंगल-जमीन की कारपोरेट लूट को रोकने, देश में समाजिक, धार्मिक सौहार्द्ध बनाए रखने तथा लोकतंत्र को बचाये रखने के लिए है।
आशंका है सबसे पहला हमला माओवादियो पर होगा। जिस तरह हाल ही में प्रोफेसर साई बाबा को गिरफतार किया गया है उसी तरह की गिरफ्तारियां देश भर में बड़े पैमाने पर होंगी। माओवादी बौद्धिक समर्थक समूह को पूरी तरह नष्ट कर देने के साथ साथ आपरेशन ग्रीन हंट बाकायदा फौजी संरक्षण में चलाया जायेगा। नरेन्द्र मोदी ने विकास के जन आंदोलन से जुड़ने की सभी नागरिकों और संगठनों से अपील की है, जिसका अर्थ है देश का पूरा माहौल इस तरह का बनाया जायेगा, जिससे विकास के नाम पर किसानों, मजदूरों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों के संवैधानिक हकों को तिलांलति दी जा सके। जिस प्रकार से गुजरात में नर्मदा बचाओ आंदोलन को लेकर माहौल बनाया गया था वैसा ही माहौल पूरे देश में सभी जन-संगठनों को लेकर बनाया जायेगा। तब आंदोलन को कुचलने के लिए पुलिस की जरूरत नहीं पड़ेगी। विकास के नाम पर गुंडों की भीड़ से ही तथा कथित विकास विरोधियों का इंतजाम कर दिया जाएगा।
जन संगठन यदि समाजवादी, वामपंथी संगठनों के साथ कार्य करेंगे तो मुकाबला करने की स्थिति में हो सकते हैं। लेकिन इसके लिये वामपंथियों को जन-संगठनों के प्रति अपने पूर्वाग्रहों से उपर उठना पड़ेगा। यह सही है, कि देश के जन-आंदोलनों ने नन्दीग्राम और सिंगूर में ममता बनर्जी का साथ दिया था। यह भी सही है कि ममता का साथ यदि देश के जन-संगठनों ने नहीं दिया होता तो वे अकेले इन दोनो आंदोलनों को मुकाम तक नहीं पहुँचा सकती थीं। न ही सरकार बना सकती थीं। जन-संगठनों को भी मानना चाहिए कि उन्होंने आपात् धर्म निभाते हुए तत्कालिक प्रतिक्रिया के तौर पर जो कुछ किया उससे वामपंथियों को बड़ा स्थायी नुकसान हुआ। वामपंथी पार्टियों को अपनी ऐतिहासिक भूल स्वीकार कर जन-संगठनों के साथ बैर का रिश्ता समाप्त करना चाहिये। जिस तरह इन आंदोलनों के पहले वामपंथी और जन-संगठन एक साथ चला करते थे उसी तरह फिर से साथ चलने की ऐतिहासिक जरूरत है।
आप भी देश में ताकत के तौर पर उभरी है लेकिन एक तरफ आम आदमी पार्टी ने दिल्ली में 30 से अधिक जन-आंदोलनो के साथियों को उम्मीदवार बनाया वहीं दूसरी तरफ समान विचार की पार्टी के साथ कोई भी समझौता नहीं किया। इस अहंकार से आम आदमी पार्टी को बाहर निकलना होगा। सभी को एक ही नजर से देखने की, एक ही लाठी से हांकने की, खुद को सबसे पवित्र मानने की आदत छोड़नी होगी। जन-संगठनों के अधिकतम उम्मीदवारों की मतदाताओं ने जबरदस्त दुर्गति की है। चुनावी अनुभव, कार्यकर्ता एवं साधनों की कमी तो इसका एक कारण है ही लेकिन सभी को यह स्वीकार भी करना चाहिए कि चुनाव की तैयारी 5वर्ष की जाती है। चुनावी होम-वर्क पार्टियां सतत् रूप सें करती रहती हैं। आम आदमी पार्टी को पार्टी की वैचारिक दिशा भी स्पष्ट करनी होगी। यदि वह दक्षिणपंथियों से अकेले मुकाबला करना चाहती है तो उसका कोई भविष्य दिखाई नही देता। लेकिन वामपंथियों, समाजवादियों, गांधीवादियों, सर्वोदयी तथा जन-संगठनों एवं मानवाधिकार संगठनों के साथ मिलकर वह जरूर दक्षिणपंथी ताकतों को मुँहतोड़ जवाब दे सकती है। अति-उत्साह में जल्दबाजी में फैसला कर चुनावी मैदान में उतरकर जन संगठनों ने क्या हासिल किया, इसके मूल्यांकन की जरूरत है। करोड़ों रूपये के खर्चे वाले लोकसभा चुनाव आम नागरिक के लिए नहीं हैं, यह एकदम साफ है। स्थानीय स्तर पर साधनों की व्यवस्था कैसे संभव है। कारपोरेट के साधनों से कैसे मुकाबला किया जा सकता है? उसके रास्ते भी ढूँढने होगें। जन-संगठन आम तौर पर संघर्ष के प्रभाव क्षेत्र के नागरिको के वोट हासिल करने में अक्सर विफल होते रहे हैं। उसका नया मेकेनिज़्म विकसित करने पर विचार करना होगा। चुनाव सुधार किये बगैर कारपोरेट-पूंजीपतियों का वर्चस्व खत्म नही किया जा सकता। इस मुद्दे पर राष्ट्र्व्यापी संघर्ष की रूपरेखा तैयार करनी होगी, ताकि सच्चा लोकतंत्र स्थापित किया जा सके।
1952 में समाजवादियों नें बहुत उम्मीद के साथ पहला आम चुनाव लड़ा था। 10 प्रतिशत वोट भी मिला था लेकिन सीटें बहुत कम मिली। तभी से संगठित समाजवादी आंदोलन में बिखराव शुरू हो गया था। आम आदमी पार्टी, वामपंथियों और समाजवादी पार्टियों में ऐसा बिखराव चुनाव के बाद न हो यह सुनिश्चित किया जाना जरूरी है। हमें एक सिरे से असंगठित क्षेत्र के मजदूरों, किसानों, छात्रों, युवाओं, महिलाओं के बीच नए संगठन खड़े करने तथा पहले से चल रहे संगठनों को ताकत देनी होगी। इस काम में संगठित क्षेत्र के मजदूर संगठन अहम् भूमिका निभा सकते हैं। वामपंथी पार्टियों से जुड़े एटक-सीटू तथा अन्य वामपंथी ट्रेड यूनियन, एच.एम.एस जैसे समाजवादी मजदूर संगठनों के साथ आते हैं तो वे न केवल बी.एम.एस. से मुकाबला कर पायेंगे बल्कि देश के समाजवादी-वामपंथी आंदोलन को पुनर्जीवित करने में महती भूमिका का निर्वाह कर सकेंगे। व्यापक लोकतांत्रिक वामपंथी, समाजवादी आंदोलन विकसित करने की दिशा में हम सबको सामूहिक विचार परामर्श करने की जरूरत है।
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