गुरुवार, 22 मई 2014

भारत का सशक्त प्रधानमंत्री

नरेंद्र मोदी को ईश्‍वर ने, अल्लाह ने, गॉड ने, वाहेगुरू ने या दूसरे शब्दों में कहें तो वक्त ने इतिहास का सबसे महत्वपूर्ण अवसर प्रदान किया है. नरेंद्र मोदी के सामने पिछले 64 सालों की सफलताओं और असफलताओं के अनुभव हैं. किस पार्टी ने या किस प्रधानमंत्री ने लोगों के लिए क्या किया, क्या नहीं किया इसकी सूची है और आज नरेंद्र मोदी के सामने ये देश अवसरों की एक खुली किताब बनकर सामने खडा हुआ है. नरेंद्र मोदी को मिले इस अवसर के पीछे देश की जनता का सकारात्मक समर्थन है और ये सकारात्मक समर्थन उनके पक्ष में जब निर्मित हो रहा था तो इस निर्माण को देश का कोई पत्रकार, कोई बुद्धिजीवी, कोई सर्वे करने वाला किसी भी अंश में समझ नहीं पाया. शायद इस बनते समर्थन को नरेंद्र मोदी भी समझ नहीं पाए होंगे. और वो भी कहीं न कहीं इश्‍वर को या वक्त को धन्यवाद दे रहे होंगे और इस अभूतपूर्व समर्थन को प्रणाम कर रहे होंगे. इस अभूतपूर्व समर्थन का निर्माण जिन कारणों से हुआ वो कारण संसद में बैठने वाले हर व्यक्ति को जानना चाहिए और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को तो अवश्य जानना चाहिए. कारण, गुस्सा और इससे निकला हुआ समर्थन दरअसल एक शेर है, जिसके उपर आज नरेंद्र मोदी सवार हुए हैं. मनमोहन सिंह जब प्रधानमंत्री बने थे तो देश के सामने समस्याओं का पहाड था. वो समस्याएं दो कारणों से पैदा हुई थी. पहली समस्या आजादी के बाद देश के आधारभूत विकास को मुख्य प्राथमिकता न मिलना. इस वजह से लोग विकास के दायरे से धीरे धीरे बाहर होने लगे और हालत यहां तक पहुंच गई कि देश का एक बड़ा वर्ग अपने को सत्ता से वंचित समझने लगा, जिसका परिणाम देश में गृहयुद्ध भी हो सकता था. 2004 में जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने थे, देश को बहुत आशाए थीं. दरअसल हम समस्याओं के दौर से गुजर रहे थे और 1991 में जब मनमोहन सिंह जी ने वित्तमंत्री होने के नाते देश के सामने आशाओं का एक पहाड़ खडा कर दिया था और बिना कहे समस्याओं की सारी ज़िम्मेदारी जवाहर लाल नेहरू से लेकर चंद्रशेखर तक जितने प्रधान मंत्री हुए हैं, जिनमें लाल बहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी, उनके उपर डाल दी थी. लोगों ने सहज विश्‍वास कर लिया था. मनमोहन सिंह ने ये आशा दिलाई थी कि अगले 20 सालों में खुली आर्थिक नीतियों की वजह से या उदार अर्थव्यवस्था की वजह से इस देश के आम नागरिक की जिंदगी में काफी बदलाव आएंगे. बिजली, सड़क, पानी इन सभी समस्याओं का हल हो जाएगा. गरीबी काफी हद तक दूर हो जाएगी और रोजगार ब़ढ जाएंगे. मनमोहन सिंह का दस साल का कार्यकाल देश को विदेश के हाथों में सौंपने का कार्यकाल रहा. इस दौरान हमारे सारे घरेलू व्यापार प्रभावित हो गए यहां तक की वो क्षेत्र, जिसे हम सब्जी और फूल का क्षेत्र कहते हैं, वहां पर भी विदेशी कंपनियां आ गईं, पर हमारी बुनियादी ढांचे की स्थिति जैसी की तैसी बनी रही. विदेश से जितना इनवेस्टमेंट आया वो सारा का सारा कंज्यूमर सेक्टर में लगा, प्रायोरिटी सेक्टर में नहीं और इसके उपर मनमोहन सिंह ने कभी ध्यान नहीं दिया क्योंकि मनमोहन सिंह की खुली अर्थव्यवस्था का मतलब ही ये था. आज हालत ये है कि बाजार की परिधि से इस देश का आम आदमी बाहर है. हम जिसे प्रो-मार्केट इकोनॉमी कहते हैं, वह सिर्फ उन्हीं लोगों को ध्यान में रखकर अपनी योजना बनाती है, जिनकी जेब में कुछ भी खरीदने लायक पैसा है और जिनकी जेब में सिर्फ खाने लायक पैसा है उनके लिए ये बाजार व्यवस्था नहीं सोचती. इसीलिए 2004 में जब मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बनें थे तो देश के 60 जिले नक्सलवादियों के प्रभाव में थे, आज 272 से ज्यादा जिले नक्सलवादियों के प्रभाव में हैं. ये कम से कम एक पैमाना है जो बताता है कि अर्थव्यवस्था का लाभ इस देश के लोगों को नहीं मिला. अर्थव्यवस्था का लाभ सिर्फ उच्च मध्यम वर्ग को मिला या व्यापारियों को मिला या हमारे देश का पैसा विदेश में गया. जिस जीडीपी की बात की जाती है वो जीडीपी एक तरीके से नकली आकड़ों के उपर निर्भर करती है और इस बात की बहस कभी देश में नहीं होती कि जीडीपी, सेंसेक्स आधारित अर्थव्यवस्था के प्रगति के आकड़े कितने सही हैं कितने गलत हैं. और यही पर इस देश में धीरे धीरे आपसी तनाव और गृहयुद्ध की भूमिका दिखाई देती है. मनमोहन सिंह की इन्हीं नीतियों ने इस देश में पहला भ्रष्टाचार 5 हजार करोड का किया जो सामने आया. उसके बाद 5 हजार, 10 हजार, 15 हजार, 20 हजार और सरकार जाते जाते 26 लाख करोड़ का भ्रष्टाचार सामने आया. हमारे देश में 90 से पहले की सरकार कोटा लाइसेंस परमिट की सरकार कही जाती थी, लेकिन उस सरकार में गरीबों के उपर ध्यान दिया जाता था. जन कल्याण की योजनाएं बनाई जाती थीं. गरीब कैसे जिंदा रहे, इसके बारे में चर्चा होती थी और उन दिनों की लोकसभा या राज्य सभा की बहसें ये बताती हैं कि देश की समस्याओं को लेकर हमारी लोकसभा या राज्य सभा कितनी चिंतित रहती थी. इन नीतियों को कांग्रेस पार्टियों और उनकी सहयोगियों ने पूर्णतया बहुत मजबूती के साथ चलाया और इन नीतियों का समर्थन कमोवेश उन दलों ने भी किया जो कांग्रेस के साथ सरकार बनाने में या सरकार को जिंदा रखने में खड़े थे. मेरा मानना है कि राहुल गांधी देश की समस्याओं को नहीं समझ पाए और न ही  नेहरू और इंदिरा गांधी के विचारों को समझ पाए और न ही वे ये सोच पाए कि इस देश के आदमी की मुख्य समस्या महंगाई और बेरोजगारी है. रोजगार का सृजन कैसे किया जाए?  जिस अर्थव्यवस्था को मनमोहन सिंह ने पैदा किया और जिसे उन्होंने पोषित किया उस अर्थव्यवस्था की वजह से क्या नुकसान हुए? इसीलिए वे पूरे चुनाव के दौरान देश के लोगों को कोई आशा नहीं दे पाए. राहुल गांधी देश के लोगों के गुस्से के संकेतों को भी नहीं समझ पाए. राहुल गांधी के सत्ता में आने के बाद जितने चुनाव हुए, जिनमें बिहार का चुनाव, उत्तर प्रदेश का चुनाव शामिल है, राजस्थान का चुनाव शामिल है, उन सारे राज्यों में कांग्रेस की बुरी तरह हार हुई. लेकिन राहुल गांधी अपने कल्पना के महल में सहचरों के साथ शगल के लिए बातचीत  करते रहे, देश के लोगों को क्या सपना दिखाना है वो उन्होंने कभी सोचा ही नहीं. राहुल गांधी अपनी कोई टीम नहीं बना पाए. इस देश को चलाने के लिए समझदार लोगों की एक टीम चाहिए जो दिन रात समस्याओं से उपजी समस्यओं के बारे में अपने नेता को अवगत करा सकें. राहुल गांधी ने जो भी प्रयोग किए वो अधकचरे प्रयोग किए, जिन प्रयोगों का देश की समस्याओं से कोई रिश्ता ही नहीं रहा. राहुल गांधी के राजनीतिक क्रियाकलापों में उस आदमी का कोई स्थान नहीं था, जिसमें अपनी पूरी जिंदगी कार्यकर्ता के रूप में, समस्याओं से लड़ने में, कांगे्रस को जिंदा रखने में लगा दिया. राहुल गांधी को ऐसे लोग चाहिए थे जो उन्हें लोगों को बेवकूफ बनाने वाले सपने दिखा सके और इसलिए कांग्रेस पार्टी ने पूरे चुनाव के दौरान अपने को असहाय पाया. एक तेज हवा के झोंके ने उनके सारे प्रचार अभियान को धराशायी कर दिया. इतनी ताकत का वो झोंका था कि राहुल गांधी खुद तिनके की तरह उडते नजर आने लगे. उन्हें समझ ही नहंीं आया कि उन्हें लोगों से संवाद क्या करना है. ये झोंका नरेंद्र मोदी का झोंका था. ये झोंका भारतीय जनता पार्टी का झोंका नहीं था. भारतीय जनता पार्टी ने तो जिस तरह से लोकसभा में विपक्ष की भूमिका पिछले 10 सालों में निभाई, उससे भारतीय जनता पार्टी भी लोगों के नजरों में शंकित हो गई थी. लोग उसमें कोई भविष्य की आशा नहीं देख रहे थे. नरेंद्र मोदी ने 2006 से एक सुविचारित योजना बनाई कि किस तरह उन्हें 2014 के चुनाव में दिल्ली के गद्दी पर आना है और जिसका पहला कदम गांधी परिवार के सबसे नजदीक रहे अमिताभ बच्चन को अपने साथ जोड़ना था. उन्होंने अमिताभ बच्चन के साथ तय हुई शर्तों के हिसाब से गुजरात का ब्रांड अम्बेसडर बनाया और अमिताभ बच्चन ने देश के हर टेलीविजन पर, लगभग 6 सौ टेलीविजन पर गुजरात की मार्केटिंग शुरू की. ये गुजरात की मार्केटिंग नहीं थी, ये नरेंद्र मोदी की मार्केटिंग थी. गुजरात कैसा है और कितना अच्छा है, गुजरात में क्या हो रहा है, गुजरात किस तरीके से लोगों के आकर्षण का केंद्र है, लोगों को गुजरात आने का आमंत्रण देना, ये सब अमिताभ बच्चन ने नरेंद्र मोदी के लिए किया, क्योंकि गुजरात का मतलब नरेंद्र मोदी ही था और वहां से नरेंद्र मोदी ने अपने को पहले राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से मुक्त किया. गुजरात के सारे भारतीय जनता पार्टी के अच्छे नेता और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कार्यकर्ता को धीरे धीरे नरेंद्र मोदी ने किनारे कर दिया, क्योंकि वो सारे लोग गुजरात में नरेंद्र मोदी की विकास योजनाओं को चलाने में आडे आ रहे थे. उनकी अपनी समझ थी, उनकी अपनी योजनाएं थीं जो वो नरेंद्र मोदी से लागू कराना चाहते थे. नरेंद्र मोदी ने उन्हें लागू नहीं किया और नरेंद्र मोदी ने सफलता पूर्वक गुजरात को अपने नक्शे से चलाया. उन्होंने किसी से राजनीतिक सलाह नहीं ली, उन्होंने किसी का राजनीतिक हस्तक्षेप स्वीकार नहीं किया, स्वीकार ही नहीं बर्दाश्त नहीं किया. उन्होनें गुजरात को देश में एक सबसे विकसित राज्य के रूप में पैदा किया. उन्होंने माहौल ऐसा बना दिया कि कोई गुजरात जाकर उनके आकडों की सच्चाई पर शंका न कर सके. ऐसी सफलतापूर्वक उन्होंने गुजरात की मार्केटिंग की कि लोग गुजरात में ये जानने के लिए गए ही नहीं कि क्या ये मॉडल दूसरी जगह लागू हो सकता है और यही नरेंद्र मोदी की सफलता थी. न गुजरात में कोई स्वर उठा न बाहर कोई स्वर उठा और नरेंद्र मोदी ने जो कहा उसे सभी ने अक्षरश: स्वीकार कर लिया. नरेंद्र मोदी ने दूसरा कदम भारतीय जनता पार्टी को अपनी मुट्ठी में करने का किया. नरेंद्र मोदी ने धीरे-धीरे हर उस नेता को किनारे कर दिया जो उनके सामने ख ड़ा होने की ताकत रखता था. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को उन्होंने यह कहा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ जैसी भारतीय जनता पार्टी चाहती है, वो उसकों बनाएंगे और उसकी इच्छापूर्ति में जसवंत सिंह, लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी जैसे लोग थे. ये लोग उम्र में बड़े थे, अनुभव में बडे थे और संघ के वर्तमान नेतृत्व से व्यक्तित्व में भी बड़े थे. नरेंद्र मोदी ने इन सबको एक किनारे करने की रणनीति न केवल बनाई, बल्कि उसे सफलता पूर्वक कार्यान्वित भी किया. आरएसएस में उनके मुकाबले जो भी खड़ा हो सकता था, जिसमें एक उदाहरण संजय जोशी का है, उन्हें उन्होंने निर्ममता के साथ एक किनारे कर दिया. अब नरेंद्र मोदी देश में सवालों को लेकर लोगों के सामने जाने के लिए तैयार थे. नरेंद्र मोदी ने अपने विश्‍वस्त आईएस ऑफिसरों को साथ लेकर एक नई योजना बना डाली. वह योजना कितने हजार करोड़ की थी, नहीं पता. वो योजना कार्यान्वित कैसे हुई, नहीं पता. लेकिन उस योजना का परिणाम नजर आया. हर टेलिविजन चैनल नरेंद्र मोदी के समर्थन या विरोध में बहस करता हुआ दिखाई दिया. टेलीविजन चैनलों ने न केवल एकतरफा बहस की बल्कि नरेंद्र मोदी को ईश्‍वर बना दिया और ये कांग्रेस की बेवकूफी रही. ये योजना पहले कांग्रेस में बनी कि भ्रष्टाचार, महंगाई, बेराजगारी को मुद्दा मत बनने दो, नरेंद्र मोदी को मुद्दा बनाओ ताकि नरेंद्र मोदी पर हमला कर के, गुजरात का उदाहरण सामने रखकर हम देश को अपने साथ ले सकते हैं. नरेंद्र मोदी ने इसी को हथियार बना लिया. वो कांग्रेस की कमजोरी समझते थे क्योंकि नरेंद्र मोदी राजनीतिक व्यक्ति हैं. नरेंद्र मोदी की शिक्षा दीक्षा जयप्रकाश नारायण के आंदोलन में हुई थी और उस समय का जनसंघ या उस समय का संघ नरेंद्र मोदी को पूरी तरह से प्रशिक्षित कर गया. नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस की हर कमजोरी को हथियार बनाया. चुनाव के दौरान हमने देखा कि कांग्रेस ने जितने मुर्खता भरे वक्तव्यदिए, जिनमें चाय वाला वक्तव्य भी शामिल था, हर चीज को नरेंद्र मोदी और उनके साथियो ंने अपना हथियार बना लिया और कांग्रेस को पीछे धकेल दिया. नरेद्र मोदी के भाषणों में देश में को एक नई संभावना झलकी. एक ऐसी संभावना जिसे राजनीतिक दल और पत्रकार नहीं समझ पाएं, पर गरीब समझ गए. उन्हें लगा कि पहली बार इस देश में सब लोगों को विकास की खीर का स्वाद चखने को मिलेगा. नरेंद्र मोदी ने ये एहसास भी दिलाया कि नरेंद्र मोदी गरीब तबके से आते हैं, इसलिए वो गरीबों की समस्याएं समझते हैं. नरेंद्र मोदी ने लोगों को इस बात का भी विश्‍वास दिलाया कि उनके योजना में नौजवान सबसे ज्यादा हैं जबकि राहुल गांघी उम्र से नौजवान होने के कारण यह मान बैठे थे कि देश का नौजवान उनके साथ आएगा, लोग उम्र देखकर रिश्ता बनाते हैं. राहुल गांधी भूल गए कि नौजवानों के सामने बेरोजगारी ज्यादा प्रमुख चीज है, बजाए उम्र के. इसीलिए राहुल गांधी की टीम का एक एक आदमी इस चुनाव में हार गया. राहुल गांधी ने अपनी टीम में उन लोगों को लिया था जिन्हें बोलना अच्छा आता था, जिनके चेहरे मोहरे अच्छे थे, लेकिन जिन्हें समस्याओं की समझ नहीं थी. राहुल गांधी तो अमेठी के लोगों की दया से जीत गए, लेकिन राहुल गांधी की नैतिक हार हो गई, क्योंकि कई बार ये खबरें आईं कि अलग अलग दौर में स्मृति ईरानी उनसे आगे चली गईं. नरेंद्र मोदी ने देश के हर तबके को संबोधित किया. उन्होंने लोगों तक अपनी बात पहुंचाने के लिए टेलीविजन को हथियार की तरह इस्तेमाल किया, लेकिन वो देश के हर कोने में गए और हर कोने में जाकर उन्होंने भाषण भी दिया और टेलीविजन को अपने सामने खडा कर उन जगहों पर भी अपनी बात पहुंचा दी जहां पर वो नहीं जा रहे थे. चाहे जितने किलोमीटर की उन्होंने यात्रा की हो, उन्होंने सफलतापूर्वक समझाया कि इस समय देश में  एक कर्मठ व्यक्ति है, जिसका नाम नरेंद्र मोदी है और वो नरेद्र मोदी संघ से भी अलग है, भारतीय जनता पार्टी से भी अलग है. उन्होंने इस बात की सावधानी रखी कि उनके प्रचार-प्रसार में भारतीय जनता पार्टी और संघ की झलक न दिखाई दे. नरेंद्र मोदी ने योजना पूर्वक, किस समय क्या कहना है, अपने व्यक्तित्व को निखारने वाले लोगों की टीम के द्वारा दिए जाने वाली सलाह के आधार पर कही. उन्होंने जैसा कहा उन्होंने वैसा किया. जैसे कपडे पहनने के लिए कहा वैसे कपडे पहने.  ने जिस तरह से उन्हें बोलने के लिए कहा गया वैसे नरेंद्र मोदी बोले, लेकिन नरेंद्र मोदी कहीं पर भी राजनीतिक सवालों से अलग खुद को नहीं हटाया. उन्होंने हमला भी वहीं किया जो हमला रराजनीतिक रूप से लोगों के दिमाग में उनकी समस्याएं बताता था. उन्होंने मां बेटे की सरकार शब्द का सोच समझकर उपयोग किया. मां बेटे की सरकार कहते ही लोगों को महंगाई, बेरोजगारी, भ्र्रष्टाचार याद आ जाती थीं. नरेंद्र मोदी ने कहीं पर भी मनमोहन सिंह के उपर हमला नहीं किया. उन्होंने मनमोहन सिंह को बेचारा बना दिया. कांग्रेस पार्टी नेे मनमोहन सिंह का इस्तेमाल इस चुनाव में शायद इसलिए नहीं किया कि वो अपनी सारी जिम्मेदारी मनमोहन सिंह के उपर डालना चाहती थी और राहुल गांधी को एक ऐसे नेता के रूप में खडा करना चाहती थी जो देश के लिए एक फैंटम की तरह आसमान से उतर रहा है. लोगों ने  कांग्रेस की इस रणनीति को अस्वीकार कर दिया. यहीं पर नरेंद्र मोदी के सामने अवसरों को वास्तविकता में बदलने की एक चुनौती खडी हुई. नरेंद्र मोदी किन सवालों को प्राथमिकता देते हैं, इसे देश के लोग जानना चाहेंगे. इस वक्त वे लोगों के असीम समर्थन और आकांक्षाओं के शेर की सवारी कर रहे हैं और अगर वो समस्यओं को हल करते हुए दिखाई देते हैं तो ये देश उन्हें महानायक की तरह मान लेगा, क्योंकि आज नरेंद्र मोदी के सामने वहीं स्थिति है जो जवाहर लाल जी के सामने थी, इंदिरा जी सन 1971 में जैसा चाहतीं, वैसा कर सकती थीं. मोरार जी देसाई सन 77 में जैसा चाहते वैसा कर सकते थे, विश्‍वनाथ प्रताप सिंह सन 89 में जैसा चाहते वैसा कर सकते थे. लोग उनके साथ थे. लेकिन ये सारे लोग अपनी पार्टियों के अंर्तविरोधों से उपर नहीं जा पाए. राजीव गांधी सन 84 में जो चाहे कर सकते थे, क्योंकि वो भी आशाओं के शेर पर सवार थे. उन्हें जनता का अभूतपूर्व समर्थन प्राप्त था. पर ये सारे लोग आशाओं के, अरमानों के उस शेर का  शिकार हो गए, जिस पर उन्होंने सवारी की थी. नरेंद्र मोदी को इतिहास ने वहीं स्वर्णिम अवसर दिया है. वक्त ने पूरे तौर पर उन्हें महानायक के रूप में खडा कर दिया है, पर ये महानायक सिनेमा के पर्दे का है या असली जीवन का है इसका फैसला होना बाकी है. यहीं नरेंद्र मोदी के सामने भी चुनौती है और देश के लोगों के सामने भी चुनौती है. मानना ये चाहिए कि अगले दो महीने में नरेंद्र मोदी काम करते हुए दिखाई देंगे. वो संघ को, भारतीय जनता पार्टी को तीन साल तक एक किनारे रखेंगे और अगर देश के गरीबों, दलितों, पिछडों, सवर्ण गरीबों, मुसलमानों की जिंदगी में बदलाव आता है तो फिर ये सवाल जिन्हें हम राम जन्मभूमि या बाबरी मस्जिद कहते हैं या 370 कहते हैं या कॉमन सीविल कोड कहते हैं, इन सवालों का जिंदगी से रिश्ता नहीं है, दिमाग से रिश्ता है. अगर नरेंद्र मोदी लोगों की जिंदगी में बदलाव लाने में कामयाब होते हैं तो इन सारे सवालों को वो आसानी से हल कर लेंगे, लेकिन वो पहले अगर इन सवालों को हल करने में लगेंगे और लोगों की जिंदगी में तब्दीली नहीं आएगी तो नरेंद्र मोदी के महानायकत्व के सामने एक प्रश्‍न चिन्ह लग जाएगा. आशा करनी चाहिए कि नरेंद्र मोदी के सामने कोई प्रश्‍नचिन्ह नहीं लगेगा और इस देश की जनता ने, इतिहास ने जो अवसर दिया है वह अवसर इस देश को बदलने में बड़ी भूमिका निभाएगा. 

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