गुरुवार, 22 मई 2014

यह देश अब नागपुर के हवाले है कृपया हिंदू राष्ट्र की खिलाफत का पाखंड न करें

पलाश विश्वास
लाल नील विचारधारा मुखर, आब्जेक्टिव ढिंढोरची दोनों पक्ष का सबसे बड़ा अपराध तो शायद यह है कि भारतीय बहुसंख्य मेहनत कश कृषि आजीविका वाले जन गण की जमातों को लाल नीले धड़ों में बांटकर फर्जी विचारधारा और आब्जेक्टिव के छलावे से एक दूसरे के खिलाफ लामबंद करके हिंदू राष्ट्र की यह भव्य इमारत उन्होंने तामीर कर दी है। जनबल में आस्था न हो, जनता के बीच जाने की आदत न हो और जनसरकार से पूरी तरह कटकर सिर्फ सत्ता ही विचारधारा और अंतिम लक्ष्य में तब्दील हो तो कृपया हिंदू राष्ट्र और कारपोरेट राज की खिलाफत का पाखंड अब न करें तो बेहतर।
जनता को तय करने दें कि उसे अब क्या करना है।
इस जनबल पर भरोसा रखें।
मुझे मेरे मित्र केसरिया करार दें तो कोई ताज्जुब की बात नहीं है क्योंकि समकालीन यथार्थ के अत्यंत जटिल तिलिस्म में हर कोई या तो दोस्त लगता है या दुश्मन। आंखों में भर भर उमड़ते पानी में ग्लिसरिन की भूमिका जांचना बेहद मुश्किल है।
सत्ता बदल की औपचारिकता मध्य फिर गरीबों के नाम है सरकार सत्ता दोनों। गरीबों की भलाई के बहाने बहुत कुछ हुआ, बल्कि जो कुछ भी हुआ आज तक गरीबी की पूंजी के बाबत। गरीबी मिट जाये तो सत्ता समीकरण का क्या होगा कोई नहीं जानता।
हम विचारधारा और अंतिम लक्ष्य के बारे में बहुत बोल रहे हैं पिछले सात दशकों के मध्य लागातार। यह विचारधारा और यह अंतिम लक्ष्य भला क्या है, इसे आत्मसात किये बिना।
आलम यह है कि अंबेडकरी विचारों के झंडेवरदार बसपाई चार फीसद वोट देश भर में जुटाने के बावजूद केसरिया हुए जा रहे हैं। अंबेडकरी दुकानदार तो सारे के सारे केसरिया पहले ही हो चुके हैं।
समाजवादी विचारधारा का हश्र यह है कि संसद में अपने वंश के प्रतिनिधित्व में गांधी नेहरू राजवंश से भी आगे।
साबरमती किनारे अवतरित कल्कि अवतार ही अब गांधी का बोधिसत्व अवतार है। गांधी हत्यारा महिमामंडित है गांधीवादियों के देश में क्योंकि राष्ट्र अब हिंदू है। अकेले उत्तर प्रदेश में हजारों अंबेडकरी कैडर इतिमध्ये केसरिया अंगवस्त्रम धारक हो चुके हैं। वैसा ही है जैसे गुजरात के दंगों के दौरान, जब दलित आदिवासी पिछड़े और महिलाओं तक को धू-धू जल रहे अल्पसंख्यक इलाकों में खून से लथपथ बेशकीमती सामान से अपना अपना घर भरते देखा गया।
इतिहास की पुनरावृत्ति कितनी बारंबार होती है।
नामदेव धसाल और रामदास अठावले के कितने अवतार अब तक अवतरित हैं, हिसाब लगाते रहिये।
उदित राज और पासवान के कितने अवतार होंगे, यह भी हिसाब लगाते रहिये।
जो मैं कह रहा था, यह सच है कि विचारधारा नियंत्रक शक्ति होती है सत्ता और राष्ट्र के लिए, व्यवस्था के लिए, तो परिवर्तन और क्रांति के लिए भी।
हमने पहले भी लिखा है कि संघ परिवार के पास एक एजेंडा तो है हिंदू राष्ट्र का। हमारा कोई एजेंडा है ही नहीं। उनकी विचारधारा हिंदुत्व है और हमरी कोई विचारधारा है ही नहीं।
हिंदू राष्ट्र का अंतिम लक्ष्य हासिल करने के लिए स्वदेशी का बलिदान करके क्रोनी पूंजी और कारपोरेट राज का विकल्प चुनने में संघ परिवार ने कोताही नहीं बरती।
हिंदू राष्ट्र के लिए मनुस्मृति शासन और वर्ण वर्चस्व के धारकों वाहकों ने भारी निर्ममता से अपने तमाम सारस्वत कन्नौजिया चितकोबरा नेताओं नेत्रियों को हाशिये पर फेंक दिया और सत्ता के लिए बंगाली फार्मूले पर ओबीसी वोट बैंक के केसरियाकरण के लिए ओबीसी मोड या तेली नमो को प्रधानमंत्री बना दिया।
इसके मुकाबले अंबेडकरी सामाजिक न्याय और समता के लिए लड़ रही जमात मूर्तिपूजा मार्फत अपना-अपना घर भरने का काम करती रही या फिर अपने अपने कुनबे के लिए न्याय और समता का सौदा करती रही।
वामदलों ने इस देश में जात-पांत का विरोध अंबेडकर के जाति उन्मूलन के एजेंडे को स्वीकार किये बिना अपने जनसंगठनों के जरिये औद्योगिक और सूचना क्रांति के मध्य बखूब किया।
धर्मनिरपेक्षता को हिंदुत्व की विचारधारा के खिलाफ लड़ने का अचूक हथियार भी उन्होंने बनाया। इसी बाबत बंगाल में पैतीस साल तक वर्णवर्चस्वी नस्ली लैंगिक राज बहाल रखा।
मतुआ आंदोलन और तमाम किसान आंदोलन के बुनियादी मुद्दा भूमि सुधार को भी अकेले वामदलों ने संबोधित किया और बंगाल में वाम सरकार के एजेंडे की सर्वोच्च प्राथमिकता थी यह।
सत्ता खेल में धर्मनिरपेक्षता क्षत्रपों की जात पांत की राजनीति में तब्दील है अब। भूमि सुधार का एजेंडा जमीन दखल इलाका दखल की गेस्टापो संस्कृति में तब्दील।
वाम आंदोलन का विराट चालचित्र, मुर्याल अब यह है कि मजदूर किसान महिला छात्र आंदोलन तहस-नहस और ऊपर से नीचे तक वर्णवर्चस्व लैंगिक नस्ली भेदभाव प्रबल।। एकाधिकारवादी जाति आधिपात्य।
हिंदू राष्ट्र के लिए ओबीसी नमो को वर्णवर्चस्वी संघ परिवार ने बाकायदा अमेरिकी राष्ट्रपति की तर्ज पर महिमांडित करके राष्ट्रनायक ही नहीं, उपनिषदीय पौराणिक ईश्वर का दर्जा दे दिया।
तो दूसरी ओर त्रिपुरा में देश भर में वाम विपर्यय के बावजूद चौसठ प्रतिशत वोटरों के अभूतपूर्व ऐतिहासिक समर्थन से माणिक सरकार ओबीसी की अगुवाई में दोनों लोकसभा सीटों में जीत के बावजूद सीढ़ीदार जाति व्यवस्था वामदलों में आज का क्रांति विरोधी महावास्तव है।
रज्जाक मोल्ला सिर्फ इसलिए निकाले गये दशकों की प्रतिबद्धता के बावजूद कि वे पार्टी नेतृत्व में परिवर्तन करके वामदलों की जनाधार में वापसी की मांग कर रहे थे।
जेएनयू में दशकों के वर्चस्व को खत्म करके केसरिया जमीन इसलिए तैयार कर दी गयी क्योंकि जेएनयू पलट वाम नेतृत्व, नेतृत्व की समालोचना के लिए किसी भी स्तर पर तैयार नहीं हैं।
यह कैसी विचारधारा है, कैसा अंतिम लक्ष्य है, जिसका विश्वविख्यात कैडर संगठन एक झटके से हरा हरा हो गया तो दूसरे झटके से केसरिया, इस पर विवेचना जरूरी है।
फिल्म अभिनेत्री मुनमुन सेन की कोई फिल्म आजतक हिट हुई है तो याद करके बतायें, लेकिन अतीत की इस ग्लेमरस कन्या ने बांकुड़ा में 44 या 45 डिग्री सेल्सियस तापमान के मध्य नौ बार के सांसद वासुदेव आचार्य को हरा दिया। वासुदेव आचार्य ने सफाई दी है कि भाजपा के वोट काटने की वजह से यह हार हुई। अब तो कम अंतर से हारने वाले लोग नोटा की भी दुहाई दे सकते हैं।
बंगाल में वाम दलों का 11 फीसद वोट भाजपा ने काट लिए।
मजदूर आंदोलन की विरासत वाले वामदलों का बंगाल के औद्योगिक महाश्मशान में कोलकाता हावड़ा से लेकर आसनसोल तक सफाया हो गया।
इस लोकसभा चुनाव में कोलकाता नगरनिगम के आधे से ज्यादा वार्ड में भाजपा या तो पहले नंबर पर है या दूसरे नंबर पर। तीसरे नंबर के लिए भी देश भर में पराजित कांग्रेस से वामदलों की टक्कर है।
आसनसोल में तो 45 के 45 वार्डों में भाजपा की बढ़त है।
हम महीनों पहले से कामरेडों को और दीदी को भी इस केसरिया लहर के बारे में चेताते रहे हैं। किसी के कानों को जूं नहीं रेंगी।
पहले ही लगातार चुनावी मार के बावजूद असहमत, या नेतृत्व परिवर्तन की मांग करने वाले हर कार्यकर्ता और जमीनी नेता को बाहर का दरवाजा दिखाने के अलावा संगठनात्मक कवायद के नाम पर बंगाल में परिवर्तन के बाद वामदलों ने कुछ नहीं किया।
पार्टी महासचिव प्रकाश कारत हवा में तलवारबाजी करते रहे तो बंगाली वर्णवर्चस्वी नेतृत्व के साथ बंगाल से राज्यसभा पहुंचे जेएनयू पलट सीताराम येचुरी अंध धृतराष्ट्र भूमिका निभाते रहे।
मोदी सीधे ध्रुवीकरण की राजनीति करते रहे। धर्मनिरपेक्षता के बवंडर से नमो हिंदुत्व कारपोरेट सुनामी की हवाई किले बंदी की जाती रही, बहुसंख्यक बहुजनों के कटते जनाधार और उनके थोक केसरिया करण के संघ परिवार के प्रिसाइज सर्जिकल आपरेशन, युवाजनों को साधने के लिए ट्विटर फेसबुक क्रांति को सिरे से नजर अंदाज करते रहे लाल नील रथी महारथी ।
 ध्रुवीकरण के मास्टर मांइंड अमित शाह को गायपट्टी में खुल्ला छोड़ दिया तो बंगाल में मोदी के छापामार हमले से वैचारिक जमीन तोड़ने की रणनीति भी समझने में नाकाम रहे कामरेड।
नेतृत्व पर जाति वर्चस्व बनाये रखने के लिए, बंगाल के वैज्ञानिक नस्ली भेदभाव की सोशल इंजीनियरंग करने वाले कामरेड उसी तरह पिट गये जैसे सर्वजन हिताय नारे के साथ सवर्ण समर्थन के जरिये ओबीसी और आदिवासियों की परवाह किये बिना सिर्फ दलित और मुस्लिम वोट बैंक को संबोधित करके मायावती ने खुद मोदी की हवा बनायी।
सारा क्रेडिट अमित शाह का नहीं है, जैसा कहा जा रहा है।
 उदित राज, राम विलास पासवान, शरद यादव, लालू यादव, नीतीशकुमार, मुलायम और मायावती सबने जाति व्यवस्था के तहत बहुसंख्य जनगण को खंड खंड वोट बैंक में तब्दील कर दिया।
नीले हरे लाल सारे के सारे विचारधारा झंडेवरदार हिंदुत्व से अलग कब हुए, यह सोचा नहीं गया। जाति पहचान के बजाय धर्म पहचान बड़ी होती है।
बांग्लादेश में फिर भी मातृभाषा देश को जोड़ती है।
हमारे यहां दर्जनों भाषाएं, सैकड़ों बोलियां। सर्वत्र विराजमान हिंदुत्व की पहचान जाति, क्षेत्र और भाषा की अस्मिता से बड़ी है और ओबीसी जनसंख्या देश की आधी आबादी बराबर है, सिंपली इसी समीकरण पर संघ परिवार ने संस्थागत तरीके से नमो राज्याभिषेक का अबाध कार्यक्रम को कामयाबी के सारे रिकार्ड तो़ड़ते हुए पूरा कर डाला।
गुजरात नरसंहार के पाप को धोने के लिए 1984 के सिख जनसंहार को मुद्दा बना दिया गया। यह नजरअंदाज करते हुए कि सिख संहार के मध्य, उससे पहले इंदिरा गांधी से देवरस संप्रदायके एकात्म हिंदुत्व का क्या रसायन रहा है।
1984 राजीव गांधी की जीत हो या 1971 में दुर्गाअवतार इंदिरा की भारी विजय, उसके पीछे नागपुर का भारी योगदान रहा है।
राजनीति की राजधानी नई दिल्ली, साहित्यकी राजधानी भोपाल, संस्कृति की राजनीति कोलकाता और उद्योग कारोबार की राजनीति भले ही मुंबई हो, देश की राजनीति, अर्थव्यवस्था और संस्कृति को नियंत्रित करने वाली संस्थागत विचारधारा की राजधानी नागपुर है।
यह देश अब संघ मुख्यालय, नागपुर के हवाले है।
कांग्रेसी दंगाई नेतृत्व के मुकाबले सिख विरोधी केसरिया दंगाई चेहरा सिरे से भूमिगत हैं लेकिन उस नारे की गूंज अभी बाकी है, जो नागपुर से घर-घर मोदी की तरज पर गढ़ा गया था, जो हिंदू हितों की रक्षा करें, वोट उसी को दें।
कांग्रेस ने बाकायदा वाकओवर दिया है भाजपा को और सत्तावर्ग ने अपनी अपनी भूमिका बदल दी है। एजेंडा नहीं बदला और न विचारधारा बदली है।
फिर वामदलों का अर्थव्यवस्था की समझ सबसे ज्यादा होने की घमंड है। उनकी वैज्ञानिक सोच आर्थिक है। लेकिन आर्थिक सुधारों का प्रतिरोध करने में वे सिरे से नाकाम तो रहे ही, बंगाल की सत्ता बचाने के लिए मनमोहिनी विनाश के साझेदार बने रहे अंतिम समय तक और इस चुनाव में भी नतीजा आने तक कांग्रेस के वंशवादी विनाशक शासन वापस लाने का संकल्प दोहराते रहे।
त्रिपुरा में 64 फीसद वोट तो केरल में भी दोगुणी सीटों के मुकाबले बंगाल में वाम विपर्यय से साफ जाहिर है कि विचारधारा और अंतिम लक्ष्य के मामले में कामरेड भी अंबेडकरी झंडेवरदारों से कम फर्जीवाड़ा, कम जात पांत की राजनीति नहीं करते रहे।
वैज्ञानिक वाम सांप्रदायिकता ही धर्मनिरपेक्षता का पाखंड है जो संघी एजेंडा को कामयाब बनाने में रामवाण साबित हुआ है।
वाम आंदोलन फेल हो या नहीं, इतिहास तय करेगा लेकिन उसकी हालिया कूकूरदशा की एकमात्र वजह वर्णवर्चस्वी बंगाल लाइन और उसका पालतू पोलित ब्यूरो है।
लाल नील विचारधारा मुखर, आब्जेक्टिव ढिंढोरची दोनों पक्ष का सबसे बड़ा अपराध तो शायद यह है कि भारतीय बहुसंख्य मेहनत कश कृषि आजीविका वाले जन गण की जमातों को लाल नीले धड़ों में बांटकर फर्जी विचारधारा और आब्जेक्टिव के छलावे से एक दूसरे के खिलाफ लामबंद करके हिंदू राष्ट्र की यह भव्य इमारत उन्होंने तामीर कर दी है।
अब बंगाल में थोक बगावत है। फेसबुक से लेकर पार्टी दफ्तर तक बेशर्म एकाधिकारवादी नेताओं के खिलाफ जंगी पोस्टबाजी करने लगे हैं प्रतिबद्ध वाम कार्यकर्ता।
लेकिन जैसा कि रिवाज है, न वाम विचारधारा की मशाल लेकर चलने वाले कभी नहीं बदले, वैसे ही अंबेडकर को बोधिसत्व बनाकर उनके एटीएम से निकासी करते रहने वाल नीले झंडे के वारिश भी अपना तौर तरीका बदलने वाले नहीं है।
हिंदू राष्ट्र की नींव बन गये लाल नील नेतृत्व तबके भारतीय मेहनत कश सर्वस्वहारा जनता के सबसे बड़े दुश्मन बतौर सामने आये हैं और उनकी आस्था अगर ओबीसी अवतार नमो महाराज के कारपोरेट राज हिंदू राष्ट्र में हैं, तो आइये आगामी अनंतकाल तक हम सिर धुनने की रस्म अदायगी करते रहे।
या फिर गायत्री मंत्र या हनुमान चालीसा का जाप करें।
जनबल में आस्था न हो, जनता के बीच जाने की आदत न हो और जनसरकार से पूरीतरह कटकर सिर्फ सत्ता ही विचारधारा और अंतिम लक्ष्य में तब्दील हो तो कृपया हिंदू राष्ट्र और कारपोरेट राज की खिलाफत का पाखंड अब न करें तो बेहतर।
जनता को तय करने दें कि उसे अब क्या करना है।
इस जनबल पर भरोसा रखें।
 

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पलाश विश्वास। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता एवं आंदोलनकर्मी हैं । आजीवन संघर्षरत रहना और दुर्बलतम की आवाज बनना ही पलाश विश्वास का परिचय है। हिंदी में पत्रकारिता करते हैं, अंग्रेजी के लोकप्रिय ब्लॉगर हैं। “अमेरिका से सावधान “उपन्यास के लेखक। अमर उजाला समेत कई अखबारों से होते हुए अब जनसत्ता कोलकाता में ठिकाना।

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