अपने करियर में जीएन साईबाबा को थ्रूआउट स्कॉलरशिप मिली। सेंट्रल यूनिवर्सिटी में नौकरी मिल गई थी। ठाठ से पूरी फैमिली की जिंदगी कटती लेकिन साईबाबा ने ऐसा नहीं किया। साईबाबा प्रतिरोध की सबसे मुखर आवाजों में से एक हैं। दोनों पैर नहीं होने के बावजूद कश्मीर-नॉर्थ ईस्ट, दलित-आदिवासी अधिकारों पर उनका कमिटमेंट देखते बनता है। इसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि साईबाबा इन्हीं सताए गए लोगों के बीच से आते हैं।
घर में बिजली नहीं थी। पिता तीन एकड़ की जमीन पर चावल उगाते थे। साईबाबा जब 10 साल के हुए तो तीन एकड़ जमीन भी साहूकार हड़प कर बैठ गया। गरीबी का आलम यह था कि ट्रेन पहली बार ग्रेजुएशन के बाद देखी। जब अपने कस्बे अमलपुरम से हैदराबाद आगे की पढ़ाई करने जा रहे थे। ट्रेन पर चढ़ने का किराया किसी और ने दिया था। व्हील चेयर उस वक्त नसीब हुई जब 2003 में दिल्ली आए। उसके पहले ज़मीन पर रेंगते हुए या सहारे से चलते थे। कदम-कदम पर एडमिशन के ऑफर थे लेकिन मास्टर्स में एंट्रेंस फीस किसी और ने भरी।
नब्बे के दशक में जब मंडल की आग फैल रही थी, तब साईबाबा देशभर का दौराकर रिजर्वेशन की जरूरत और उसकी अहमियत बता रहे थे। लिबरेशन के लिए कश्मीर से लेकर नॉर्थ ईस्ट तक और दलितों-आदिवासियों के लिए सुदूर जंगलों में कई हजार किलोमीटर की यात्रा की। साईबाबा ने अपनी आंखों ने इस देश में जड़ कर गई गैरबराबरी को देखा और महसूस किया। तभी खुलकर कहने का यह साहस रखते हैं कि हां, मैं माओवादी विचारधारा से प्रेरित हूं। सरकार से लेकर पुलिस तक सभी को बताया। इसके पक्ष में खुलकर लिखा। लेकिन साथ में यह भी कहा कि मैं विचारधारा से माओवादी हूं। माओवाद के नाम पर जंगलों में सशस्त्र क्रांति कर रहे लड़ाकों के तौर-तरीकों से उनका कोई लेना-देना नहीं और ना ही कोई संपर्क है।
साईबाबा को यह सब कहने का साहस देश के लोकतांत्रिक ढांचे से मिला था। अगर इस तरह गिरफ्तारियां होती रहीं तो फिर इस ढांचें में किसका यकीन रह जाएगा? जिस टाइमिंग पर साईबाबा की गिरफ्तारी हुई है, वह सुनियोजित है। सबका ध्यान काशी पर लगा हुआ है। फिर साईबाबा के बारे में कौन बात करेगा। लेकिन याद रहे अभी तक साईबाबा पूरी ताकत से चीखते हुए अपना पक्ष रखते थे, भविष्य में औरों को मिमियाने की भी इजाजत नहीं होगी, पक्ष रखना तो दूर की कौड़ी होगी।
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